एक क्षण के लिए पलकें झपकी, दृष्टि पुनः सामने बह रही नदी की जल धारा से एकाकार होने की कोशिश में लग गई। फ्लोरेंस के शहरी जीवन से थोड़ा हटकर इस टेकरी पर खड़े वृक्षों के घने झुरमुट के बीच बनी झोंपड़ी में वह विगत कई वर्षों से रह रहे थे? सोच क्या थे मन की पोथी को उलटने-पुलटने का प्रयास?
इस उलट पुलट में जब से होश सँभाला था, तब से लेकर अब तक की यादें, जीवन की घटनाएँ एक-एक करके मुखर हो उठीं। जन्मते ही उन्हें वह परिस्थितियाँ प्राप्त हुई जिनके मिलने पर मनुष्य को सौभाग्यशाली समझने की परिपाटी है। किन्तु परिपाटियाँ तो अक्सर भ्रमों से सन होती हैं। सौभाग्य और दुर्भाग्य सुख और दुःख, शान्ति और अशान्ति, कहाँ है यह सब? अन्दर या बाहर! उनके अधरों से टपक पड़ी मुसकान को बह रही सरिता ने लहरों के आँचल में थाम लिया।
वैभव शान-शौकत राब दाब ऐशो-आराम के किले में रहने वाले स्वजनों को उन्होंने अतृप्ति के धधकते ज्वालानल में जलते अनुभव किया था। ओह! शायद विलासिता के पाश उन्माद में मानव अपनी मानवता दौड़ गई। मानस पटल पर दृश्य साकार हो उठा। शराब के टकराते जामों की झनकार में दासों की देह पर बरस रहे कोड़ों की विलय होती चीत्कार। आखिर उस दिन वह बेचारा प्राण छोड़ ही बैठा।
अमीरी और गरीबी सुख और दुख के प्रचलित पर्याय। न न वह होठों ही होठों में बुदबुदा उठे। उफ! कितना भ्रम है। सारा खेल तो मन का है। मन की सुगढ़ता सुख है और इसी की अनगढ़ता दुःख जैसे वह अपने आप से कहने लगे मन की समस्याएँ मन के समाधान। लोक मन के अनगढ़ होने के कारण ही तो कितना भौंड़ा, कुरूप, बेडौल होता जा रहा है लो जीवन।
इसी को भव्य और दिव्य बनाने के लिए ही तो.....। हवा के एक तेज झोंके के साथ चिन्तन श्रृंखला को झटका लगा। अन्तर में झाँकने की कोशिश कर रही दृष्टि फिर से बाहर लौट आई। प्रहरी की भाँति सीधे तने खड़े पेड़ कभी-कभी हिलडुल कर अपनी गोद में तारों को लहरों की प्यार भरी झपकियाँ देकर सुलाने का यत्न कर रही थी। रात्रि के गतिमान चरण अपनी सघनता की ओर बढ़ रहे थे।
वह उठा, नपे-तुले कदमों से अपनी झोंपड़ी की ओर चलने लगा। कितनी खट्टी मीठी स्मृतियों की साक्षी बनी है यह। जब उसने लोक सेवा के लिए, जन मन को जीवन बोध कराने के लिए, वैभव के किले से अपने पैर बाहर निकाले सुवर्ण की अर्गलाएँ तोड़ी तब सभी तो विरोधी थे हर कोई उसे मूर्ख, कहता था। अभी ही कौन से कम हैं? सोचते-सोचते पैर को ठोकर लगी झुक कर नीचे की ओर देखा एक पत्थर का टुकड़ा था। सँभल कर दोनों हाथों से उठा एक ओर फेंक दिया। पैर फिर बढ़ने लगे। दिव्य जीवन की राह में भी तो इसी तरह अवरोध है। इन अवरोधों से कैसे बचा जाय संभल कर कैसे बढ़ें जीवनोद्देश्य की ओर-इसी के लिए तो उसने नक्शा तैयार किया हैं। आज ही तो उसकी समाप्ति हुई है। भले उसका स्वरूप काव्य हो पर यथार्थ में वह दिव्य जीवन का नक्शा है।
झोंपड़ी आ चुकी थी। आहिस्ते से द्वार खोला। दीपक की पतली लौ अन्दर के तम से एकाकी जूझ रही थी। भले वह दुर्बल हो, कमजोर हो किन्तु उसकी लगन निष्ठा के सामने चारों ओर पसरा हुआ अंधेरा हारने को मजबूर हो रहा था। आँखों की पुतलियाँ इधर से उधर हुई पैनी दृष्टि ने कुछ भाँपने की कोशिश की। शायद कोई आया है सामान की बेतरतीबी से ऐसा कुछ लग रहा था। अभी वह कुछ और सोचते कि पीछे से किसी ने वार करने का प्रयास किया। दीपक के प्रकाश में उसकी हिलती-डुलती छाया दिखी। उन्होंने झुक कर वार बचाया और पीछे मुड़ कर उसके हाथ पकड़ लिए।
यह सब एक क्षण में बिजली की तेजी से हुआ। वार करने वाला हतप्रभ था। हाथ का गँडासा छीन कर उसे रोशनी में लाते हुए पूछा “तुम कौन हो भाई। मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है, जो मुझे मारने की कोशिश कर रहे थे। मुझे मार डालने से तुम्हें मिलेगा भी क्या? कंद माल भत्ता तो मेरे पास है नहीं।”
सुनने वाला मौन ही टुकुर टुकुर उनकी ओर देखे जा रहा था। शायद उसका प्रयत्न उनका चेहरा पढ़ने का हो अथवा यह सोच रहा हो कि अब क्या होगा मेरा!
“बताते क्यों नहीं? मुझे अपना मित्र समझो। कुछ परेशानी समस्या हो तो निःसंकोच कहो।” वाणी में मधुरता थी, प्यार छलक रहा था।
व्यवहार की इस मधुरता ने उस में आत्म ग्लानि भर दी। स्वपरिताप से आँखों से आँसू ढुलक पड़े। सिसकते हुए बोला “आप से मेरा कोई बैर नहीं। मुझे तो फ्लोरेंस की साहित्यिक सभा के अध्यक्ष ने भेजा था। उसके आदेश के मुताबिक़ आपको मार कर कोई एक किताब चुरानी थी जिसे आपने लिखा है”। “ओर”! सुनकर उन्होंने गहरी श्वास ली। “यही है पाण्डित्य, यही है विद्वता जिसका एक ही काम बचा है कि अपने अहंकार के पत्थरों से लोकहित को कैसे कुचले। विद्वता विभूति है जब वह अपने को जनहिताय समर्पित करें और दुर्भाग्य है तब जबकि इस में आड़े आए।”
“तुम जानते हो वह किताब कैसी है”।
“न”
“अच्छा, तुम्हें उसका एक अंश सुनाता हूँ। सुनकर निर्णय करना”। कहकर कपड़े में लिपटी एक हस्तलिखित पोथी उठाई। उसके कुछ पन्ने पलट कर दीपक के प्रकाश में पढ़ना शुरू किया। लोक भाषा का माधुर्य हृदय की गहराइयों से निकला काव्य रचनाकार की वाणी से झरने लगा।
‘सुनने वाला निस्तब्ध था। “इतनी अच्छी बातें। रोजमर्रा के जीवन से लेकर अध्यात्मिक ऊँचाइयों तक का इतना मर्मस्पर्शी मार्गदर्शन। ऐसी कृति को नष्ट करने चला था वह” अन्तरात्मा धिक्कार उठी। अनजाने में कितना बड़ा अपराध हो जाता सोचकर वह सिहर उठा।
काव्य पाठ चलता रहा। भावों के मोती झरते रहे साथ ही कितनी देर तक यह क्रम चला। बन्द होने के साथ ही एक अन्य व्यक्ति के अन्दर प्रवेश किया।
“अरे तुम कब आए”। रचनाकार ने बड़ी तत्परता के साथ उसे गले से लगा लिया।
मैंने सुना था कि तुमने लैटिन को छोड़कर लोक भाषा में कोई काव्य लिखा है, पर उसमें इतना अकल्पनीय सौंदर्य होगा, इतना सार्थक जीवन बोध होगा, ऐसी कल्पना नहीं थी”।
“तो तुम भी सुन रहे थे”। अपने बाल मित्र की ओर आश्चर्य से देखा।
“हाँ बाहर खड़े होकर” ‘पर इतनी रात को कैसे?’
लैटिन के पण्डितों ने साहित्यकारों ने आज की रात तुम्हें समाप्त करने की योजना बनाई थी। उन मूर्खों को क्या पता साहित्य का मर्म -’। कहते हुए आगन्तुक ने मुँह बिचकाया।”
कुछ ही क्षणों के वार्तालाप में सारी बात स्पष्ट हो गई। “सच कहते हो मित्र! यथार्थ में साहित्य दिव्य जीवन का मानचित्र है। जो कलात्मक ढंग से सीधे-सच्चे सुखप्रद जीवन की राहें सुझाता है। इसकी सार्थकता तभी है जब सभी समझें। ऐसा होने के लिए आवश्यक है कि यह सहज, सरल सुबोध और भावों से ओत प्रोत है, ताकि सरलता से ग्राह्य हो। यही मैंने किया है” बात पूरी करते हुए एक बारगी दोनों की ओर देखा।
“तुम पूर्णतया सफल हो। अपने अहंकार का ढोल बजाने वाले ये पण्डित क्या समझेंगे इन चीजों को।”
“इस लोक भाषा को क्या नाम दोगे”?
इटली की है इसलिए इतालवी’
‘ठीक बिल्कुल ठीक।’
“कल से हम दोनों गाँव-गाँव पहुँच कर औरों को लेकर तुम्हारा यह मानचित्र समझाएँगे, डिवाइन कॉमेडी गाएँगे।”
वह किन्हीं भावों में डूबने लगे। डिवाइन कॉमेडी के रूप में दिव्य जीवन का मानचित्र बनाने वाले रचनाकार थे दाँते। जिन्हें न केवल इटैलियन के जनक के रूप में समूचा इटली 22 मई को याद करता है। 700 वर्ष बीत जाने पर आज भी लगभग उनकी लिखी एक लाख प्रतियों को प्रति वर्ष लोग खरीदते हैं।
भारतीयता के परिवेश में युग साहित्य के रूप में ऐसे ही मानचित्रों का सृजन हुआ है, जिसके सहारे हमारे अपने कदम सही राह पर बढ़ सके। गहराई से पहचानें इन नक्शों को और गति दें अपने रुके पावों को।