मृत्यु के बाद भी है जीवन

August 1988

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पंचभौतिक कायकलेवर की मृत्यु के साथ ही जीव चेतना का अन्त नहीं हो जाता वरन् उसका अस्तित्व पीछे भी बना रहता है, इसके प्रत्यक्ष प्रणाम भी बहुधा मिलते रहते हैं। पिछले दिनों यह तथ्य परंपरागत मान्यताओं एवं कथा पुराणों के प्रतिपादनों पर ही निर्भर था कि मरणोत्तर काल में भी जीवात्मा को अशरीरी किन्तु मानवी अस्तित्व बनाये रहना पड़ता है एवं पुनर्जन्म के चक्र में भ्रमण करना पड़ता है।

इस संदर्भ में अब तक के अन्वेषणों ने कई अनोखे तथ्य प्रतिपादित किये हैं। मरने के उपरान्त अनेकों को शान्ति मिलती है और वे प्रत्यक्ष जीवन में अहर्निश श्रम करने की थकान को दूर करने के लिए परलोक की गुफा में विश्राम लेने लगते हैं। इसी निद्राकाल में स्वर्ग-नरक जैसे स्वप्न दिखाई पड़ते रहते होंगे। थकान उतरने पर जीव पुनः क्षमता सम्पन्न बनता है और अपने संग्रहित संस्कारों के खिंचाव से रुचिकर परिस्थितियों को इर्द-गिर्द मँडराने लगता है। वहीं किसी के घर उसका जन्म हो जाता है।

किन्तु जब कभी कोई मनुष्य मरण के समय विक्षुब्ध मनःस्थिति लेकर मरता है तो प्रायः वे भूत-प्रेत की योनि प्राप्त करते हैं। यह मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच की स्थिति है जिसे न तो जीवित स्थिति कही जा सकती है और न पूर्ण मृतक ही। जीवित इसलिए नहीं कि स्थूल शरीर न होने के कारण वे कोई वैसा कर्म तथा उपयोग नहीं कर सकते जो इन्द्रियों की सहायता से ही संभव हो सकते हैं। मृतक उन्हें इसलिए नहीं कह सकते कि वासनाओं और आवेशों से अत्यधिक ग्रसित होने के कारण उनका सूक्ष्म शरीर काम करने लगता है अस्तु वे अपने अस्तित्व का परिचय यत्र-तत्र देते फिरते है। इस विचित्र स्थिति में पड़े होने के कारण वे किसी का लाभ एवं सहयोग तो कदाचित ही कर सकते हैं, हाँ डराने या हानि पहुँचाने का कार्य वे सरलता पूर्वक सम्पन्न कर सकते हैं। इसी कारण आमतौर से लोग प्रेतों से डरते हैं और उनका अस्तित्व अपने समीप अनुभव करते ही उन्हें भगाने का प्रयत्न करते हैं। प्रेतों के प्रति किसी का आकर्षण नहीं होता वरन् उनसे भयभीत रहते और बचते ही रहते हैं। वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से-वस्तु स्थिति जानने एवं कौतूहल निवारण की दृष्टि से अब उस क्षेत्र में प्रवेश करके तथ्यों की जानकारी के लिए अनेकों प्रयास किये गये हैं तथा उत्साहवर्धक परिणाम भी सामने आये हैं।

योरोप एवं अमेरिका के कई देशों में प्रेतात्मा के रहस्यों-तथ्यों को जानने के लिए बैठकों का आयोजन किया जाता है। इसे “सेआँन्स” कहते हैं जिसमें किसी एक व्यक्ति को माध्यम-मीडियम बनाकर उस के द्वारा प्रेतात्माओं से संपर्क कई माध्यमों से साधा जा सकता है। कई मृतात्माएँ स्वयं ही बिना किसी प्रयास के अनपेक्षित तरीके से लोगों को दिखाई देने लगती हैं। वे अलग-अलग प्रकृति के उपयुक्त-अनुपयुक्त व्यक्तियों से संपर्क साधते देखी सुनी गई हैं। उच्चस्तरीय सदाशयी पितर आत्माएँ अपने उच्च स्वभाव संस्कार के कारण सम्बन्धित व्यक्तियों को सहायता देती परिस्थितियों को सँभालती तथा प्रिय वस्तुओं की सुरक्षा के लिए अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। सूक्ष्म जगत से सम्बन्ध होने के कारण उनकी जानकारियाँ भी अधिक होती हैं। उनका जिनसे सम्बन्ध हो जाता है उन्हें कई प्रकार की सहायताएँ पहुँचाती हैं। भविष्य ज्ञान होने से वे सम्बद्ध लोगों को सतर्क भी करती हैं तथा कई प्रकार की कठिनाइयों को दूर करने एवं सफलताओं के लिए सहायता करने का भी प्रयत्न करती हैं। ऐसी दिव्य प्रेतात्माएं कुमार्गगामिता से असन्तुष्ट होती तथा सन्मार्ग पर चलने वालों पर प्रसन्न होती हैं। वे अशरीरी होती हैं। देहधारी से संपर्क करने की उनकी अपनी सीमाएँ होती हैं।

हर किसी से वे संपर्क नहीं कर सकती। उपयुक्त मनोभूमि एवं व्यक्तित्व देखकर ही वे अपनी उपस्थिति प्रकट करती और सत्परामर्श, सहयोग-सहायता तथा सन्मार्ग-दर्शन कराती हैं।

वैज्ञानिकों में मूर्धन्य सर विलियम कुक्स और सर ओलीवर लाज की मृतात्माओं से संपर्क स्थापित करने की खोजों को संसार भर में प्रामाणिक माना जाता है। सर ओलीवर लाज की गणना ब्रिटेन के वरिष्ठ वैज्ञानिकों में की जाती है। वे ब्रिटिश एसोसियेशन के प्रधान भी थे। ईथर तत्व का पदार्थ के साथ क्या संबन्ध है, इस विषय पर उनकी खोज अत्यन्त प्रमाणिक मानी जाती है। अपनी शोध दृष्टि का समुचित प्रयोग करके वह न केवल आत्मा का अस्तित्व और मरणोत्तर जीवन की यथार्थता स्वीकार करने की स्थिति में पहुँचे थे, वरन् उन्होंने प्रेतात्माओं को साक्षात् करने और उनके साथ संपर्क बनाने में भी सफलता प्राप्त की थी। अपने पुत्र रेमण्ड के प्रथम विश्व-युद्ध में मारे जाने पर उसकी मृतात्मा से संपर्क बनाने और उसके माध्यम से अनेकों ऐसी अविज्ञात जानकारियाँ प्राप्त करने में वे सफल हुए थे जो परखने पर पूर्णतया सत्य सिद्ध हुई। ओलीवर लाज की खोजों को विज्ञान और मानव विकास, “मैं आत्मा के अमरत्व में क्यों विश्वास करता हूँ?” आदि पुस्तकों में विस्तृत विवरण के साथ प्रकाशित किया गया है। जिनसे मृत्यु के उपरान्त पुनर्जन्म के प्रमाण और नवीन जन्म के बीच कतिपय मनुष्यों को सूक्ष्म शरीर धारण करके प्रेत रूप में भी रहना पड़ता है। इसकी पुष्टि करने वाले विद्वानों में अल्फ्रेड रसेल, सर आर्थरकानन डायल, डॉ. मेयर्स, सर एडवर्ड मार्सल आदि के नाम अधिक प्रख्यात हैं।

इंग्लैण्ड के सुप्रसिद्ध परामनोविज्ञानी एण्ड्रयू ग्रीन ने भूत−प्रेतों को 98 किस्मों का वैज्ञानिक तरीके से विश्लेषण किया है। उनके मतानुसार मृतात्माओं से मिलने का अभिप्राय शरीर और मस्तिष्क की चुम्बकीय शक्ति से उनका टकराना होता है। व्यक्ति के मनोभाव एवं विद्युत चुम्बकीय शक्ति आपस में घनिष्ठता स्थापित किये रहते हैं। भूत−प्रेतों का दीखना इन्हीं मनोभावों की तीव्रता पर निर्भर करता है। इस संदर्भ में डॉ. मैप्यर का कहना है कि प्रेतात्माओं के सूक्ष्म शरीर का गठन विशिष्ट प्रकार के अति सूक्ष्म, प्रकाशवान एवं जीवनी शक्ति से भरपूर “एक्टोप्लाज्म” नामक तत्व से होता है। प्रतिक्रियाओं के आधार पर उनके अस्तित्व का परिचय प्राप्त किया जा सकता है। ये मृतात्माएँ अपने प्रकटीकरण के लिए किसी सहयोगी की तलाश करती हैं और साजिश में अनुकूलता प्रतीत होती है उसे अपना वाहन बनाकर अपनी इच्छित चेष्टाओं को चरितार्थ करती हैं। सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व भर है उसे भौतिक जीवन में कुछ कृत्य करने के लिए किसी अनुकूल माध्यम-सहयोगी की आवश्यकता होती है। मृतात्मा उसी स्तर के व्यक्ति से संपर्क साधती है जिसका मानसिक स्तर उनसे मिलता जुलता है।

जीवितों और मृतकों की मध्यवर्ती कड़ी को खोजने वाले वैज्ञानिक विलियम कुक्स का कहना है कि प्रेत और पितरवर्ग की दो आत्माएँ होती हैं। पितर वे हैं जो सद्भाव सम्पन्न हैं और सेवा सहायता के लिए संपर्क साधते हैं। प्रेत उद्विग्न रहते और हानि पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। पर वे इतने दुर्बल होते हैं कि यदि कोई अपनी प्रबल इच्छा शक्ति से उन्हें अस्वीकृत कर दे तो वे अपनी ओर से फिर कुछ और अधिक हलचल नहीं कर सकते। पितर आत्माएँ भी उन्हीं का सहयोग देती-सहायता करती हैं जो उनका स्वागत करते-उन पर श्रद्धा रखते हैं।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. जी0 स्टेनले हाल ने मरणोत्तर जीवन सम्बन्धी अपनी पुस्तक “कम्परेटिव एनाटामी ऑफ दि एन्जल्स” में प्रेतात्माओं के स्वरूप एवं स्वभाव का विवरण विशद्रुप से प्रकाशित किया है। उनके अनुसार मृतात्माओं के कई स्तर होते हैं। पितरों के भी अनेक वर्ग हैं और देव सत्ताओं की तरह उनके क्रिया–कलापों के क्षेत्र भी भिन्न हैं। ये सभी प्रतीकात्मक नहीं वरन् जीवन्त देवदूत होते हैं जो कि न तो सर्वोच्च होते हैं और न ही अत्यन्त सुँदर, जैसा कि पौराणिक आख्यानों में वर्णन किया गया है। फिर भी इस जैविक सृष्टि में वे सामान्य मनुष्य से निश्चित ही उच्च श्रेणी की आत्माएँ होती हैं। मानव आकर तो गोलाइयों, खोखलेपन, उभार एवं सतह का एक विचित्र संयोग है जो मानवी संरचना को एक विशिष्ट आदर्शवान्, सुन्दर और आकर्षक कलाकृति बना देता है, किन्तु भूत-प्रेतों में ऐसा नहीं होता। वे प्रकाशमान एवं सूक्ष्म शरीर में रहते हुए भी अदृश्य होते हैं। देव सत्ताओं की तरह वे किसी भी रंग के हो सकते हैं। उसे बढ़ा एवं घटा भी सकते हैं। आकर्षण अथवा घृणा को वे अपने रंगों में परिवर्तित कर व्यक्त कर सकते हैं। ऐसी अदृश्य स्थिति में वे नीचे पृथ्वी पर या ऊपर आकाश में मँडराते रहते है।

प्रेतात्मा विज्ञान के संबंध में वैज्ञानिक “फिचनर” का प्रयास विश्वविख्यात है। उनके निर्धारण की एक विशिष्टता यह भी है कि अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर उन्होंने इस विद्या पर लिखा है। एक लम्बी बीमारी से त्रस्त होने पर उन्होंने इसी स्थिति में “सोल लाइफ ऑफ प्लाण्ट्स” “एलिमेण्टेडर साइकोफिजिक” जैसे कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिख डाले। इस कार्य में उन्हें अदृश्य सहायता उपलब्ध हुई थी। उनके कथनानुसार नयी-नयी प्रेरणायें और अचानक कोई अंतर्दृष्टि जो मनुष्य को कभी-कभी प्राप्त हो जाया करती है, प्रायः वह अन्तरिक्ष स्थित इन देवदूतों की प्रेरणाओं की देन है। इस कार्य में श्रेष्ठ सात्विक पितर आत्माएँ भी भाग लेती है। किंतु कभी-कभी निकृष्ट स्तर की मृतात्माओं से भी व्यक्ति का वास्ता पड़ सकता है। ऐसी दशा में यदि उसका आत्मबल कम हुआ अथवा व्यक्तित्व असंतुलित रहा तो वे उन पर अपना प्रभुत्व जमा सकते हैं। अक्सर मनोविकारग्रस्त व्यक्तियों के साथ ऐसा होता भी है।

न्यूयार्क ट्रिब्यून के ख्यातिलब्ध संपादक हारेस ग्रीले ने फाक्स की प्रेतात्मा संपर्क क्षमता के संबंध में निजी परीक्षण के उपरान्त सही पाया था। इसका विस्तृत विवरण नोबुल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक विलियम क्रुक्स के बाद में “नोट्स ऑफ ऐन इन्क्वायरी इन टू दि फिनोमेना काल्ड स्प्रिचुअलिज्म” में प्रकाशित किया था। कुक्स ने फाक्स के साथ एक प्रेतात्मा द्वारा लेखन को भी लिपिबद्ध किया है। उनके अनुसार-एक तेजस्वी हाथ कक्ष के ऊपरी भाग से नीचे आया और कुछ सेकेंड तक मेरे पास मँडराया और फिर मेरे हाथ से पेन्सिल लेकर जल्दी से एक कागज पर उसने कुछ लिखा। तदुपरान्त पेन्सिल फेंककर ऊपर उठा और धीरे-धीरे अंधकार में विलीन हो गया। इसका विस्तृत उल्लेख उन्होंने “एनसाइक्लोपीडिया ऑफ साइकिक साइंस” में किया है।

मृत्यु के पश्चात् एवं पुनर्जन्म ग्रहण करने के पूर्व मृतात्मा सूक्ष्म शरीर में स्थित होकर अपने प्रिय पात्रों के आसपास कुछ समय तक चक्कर काटती रहती है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए एलेन कार्डेक जिनका वास्तविक नाम एलू एचू डी रिवेल था ने कहा है कि मृत्यु के पश्चात् आत्मा प्रेत का रूप ग्रहण करती है और पुनः जन्म प्राप्त करने का प्रयास करती जैसा कि पैथागोरस का भी मत था कि यही समस्त मानव आत्माओं की नियति है। मृतात्माएँ भूत, भविष्य और वर्तमान को जानती हैं। कभी-कभी वे मूर्तरूप भी धारण कर लेती हैं और भौतिक रूप से कार्य भी करती हैं। कार्डेक का कथन है कि मानव को अच्छी आत्माओं के मार्गदर्शन को स्वीकार करना चाहिए और बुरी प्रेतात्माओं से दूर ही रहना उचित है। “मिस्टीरियस साइकिक फोर्सेस” में यह विवरण विस्तार पूर्वक छपा है। डॉ. राबर्ट कूकल ने भी स्वीकार किया है कि मृत्यु के बाद मनुष्य अपने सूक्ष्म अणुओं के शरीर से बना रहता है। उसके मन की चंचलता, इच्छायें और वासनायें बनी रहती हैं। यदि वे अतृप्त रहें या जहाँ आसक्ति होती है जीव वही मँडराता रहता है।

हमारे पूर्वज ऋषि इसीलिए जहाँ एक ओर मृतात्माओं की प्रिय वस्तुएँ उसी रूप में संजोकर रखने के स्थान पर उन वस्तुओं को उचित लोगों को दान कर देने का आग्रह करते रहे है ताकि वे लोकमंगल के पुण्य-प्रयोजन का अंग बन सकें, वही दैनन्दिन जीवनक्रम में भी आसक्ति-मोह के अतिरेक को दूर करने का परामर्श व प्रेरणा देते रहे हैं ताकि चित्त पर स्मृतियों-आसक्तियों का बोझ नहीं रहे और हलके-फुलके होकर यह जीवन जिया जा सके और अगले जीवन में भी सहज गति में भी कोई बाधा नहीं रहे। वासनाओं और आवेशों का आधिक्य न केवल इस जीवन को भार बना डालता है, वरन् अगले जीवन को भी अभिशापमय बनाकर रख देता है। अतः उनसे पीछा छुड़ाने का अभ्यास किया जाना चाहिए। तभी लौकिक जीवन का स्वाभाविक आनन्द प्राप्त कर जीवनमुक्त हुआ जा सकता है।


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