परमाणुशक्ति से बढ़ कर है आत्मसत्ता

August 1988

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पदार्थों को बड़ी मात्रा में एकत्रित करके अधिक वैभव, बल या सुख पाया जा सकता है, यह मान्यता अब बहुत पुरानी हो गई। मात्रा की अपेक्षा अब गुण को महत्व मिलने लगा है। जो उचित भी है। “खोदा पहाड़ निकली चुहिया” वाली कहावत वहाँ लागू होती है जहाँ यह सोचा जाता है कि जो जितना बड़ा है- साधन सम्पन्न है वह उतना ही सशक्त है। शक्ति का श्रोत हर छोटे पदार्थ, व्यक्ति एवं साधन में मौजूद है। यदि हम बारीकी से ढूँढ़ना, परखना और सही रीति से प्रयुक्त करने की विद्या जान जाएँ तो थोड़ी सी सामग्री से ही प्रचुर शक्ति सम्पन्न बन सकते हैं हमारे छोटे-छोटे-व्यक्तित्व ही ऐसे महान कार्य सम्पन्न कर सकते हैं जिन्हें देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़े। अणु से भी सूक्ष्म आत्म सत्ता की शक्ति सामर्थ्य असीम और अनन्त है।

अणु शक्ति इस तथ्य को प्रत्यक्ष रूप से प्रमाणित करती है। पदार्थ का छोटे से छोटा घटक ‘अणु’ कितना सशक्त है और वह कितने बड़े कार्य कर सकता है इसे देखने, समझने पर इस सच्चाई को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि छोटा समझा जाने वाला व्यक्ति भी यदि अपने को पहचान सके तो जो कुछ वह है उतने का ही सही उपयोग कर सके तो वह कर सकता है जिसके लिए सामान्य बुद्धि बहुत बड़े साधनों की आवश्यकता अनुभव करती है।

अब परमाणु पदार्थ की सबसे छोटी इकाई नहीं रहा उसके भीतर 110 से भी अधिक सूक्ष्म ऐलिमेन्टरी पार्टिकल खोज निकाले गये हैं। इनको भी अंतिम इकाई नहीं कहा जा सकता। इनके भीतर जो सूक्ष्मता के अनुपात से अधिक रहस्यमय स्पंदन, स्फुरता भरे पड़े हैं उनका रहस्योद्घाटन होना अभी शेष है। अब विज्ञान अधिक गहराई में प्रवेश कर रहा है। पिछले दशकों के प्रतिपादन अब झुठलाये जा रहे हैं। यथा- ‘ईथर’ की कल्पना का अस्तित्व पिछले दिनों प्रख्यात भौतिक विज्ञानी मोर्स तथा माइकेलसन ने सिद्ध किया था। शब्द तरंगों के वहन करने वाले इस ईथर की खोज पर वैज्ञानिक द्वय फिट्ज गेराल्ड और लारेन्टज को बहुत ख्याति मिली थी और उनकी शोध को बहुत उपयोगी मानकर सर्वत्र मान्यता मिली थी। पर अब उसके नकारात्मक प्रबल प्रतिपादन ने विज्ञान की अन्य मान्यताओं के भी खोखली होने की आशंका उत्पन्न कर दी है। आइन्स्टाइन का सापेक्षवाद अब उतना उत्साहवर्धक नहीं रहा। उसमें बहुत सी शंकाओं और त्रुटियों की संभावना व्यक्त की जा रही है। गैलीलियो-न्यूटन आदि की मान्यताएँ अब पुरातन पंथी वर्ग की कल्पनायें ठहराई जा रही हैं।

महर्षि कणाद ने अपने वैशेषिक दर्शन में अपने ढंग से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि यह संसार छोटे-छोटे कणों से मिलकर बना है। ईसा से 400 वर्ष पूर्व यूनानी दार्शनिक देमोक्रेटस भी अणुवाद का प्रतिपादन करते थे। इससे पूर्व यह जगत पंच तत्वों का बना माना जाता था। अब यह पंच तत्वों वाली वर्गीकरण की मान्यता बहुत मोटी पड़ जाती है। पानी अपने आप में मूल सत्ता नहीं रहा। इसे हाइड्रोजन और आक्सीजन का सम्मिश्रण मात्र स्वीकार किया गया है। पुरानी मान्यताएँ अपने समय में बहुत सम्मानित थीं, पर वे अब त्रुटिपूर्ण ठहरा दी गई हैं।

न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त एक सीमा तक ही सही है। यदि कोई राकेट प्रकाश की गति से एक सेकेंड में तीन लाख किलोमीटर उड़ने लगे तो वे गुरुत्वाकर्षण नियम गलत हो जायेंगे। रेडियम धातु द्वारा उत्पन्न होने वाले विकिरण की खोज होने तक यही मान्यता थी कि पदार्थ को ऊर्जा में नहीं बदला जा सकता है। दोनों का अस्तित्व स्वतंत्र है पर अब अणु विस्फोट के पश्चात् यह स्वीकार कर लिया गया है कि पदार्थ और ऊर्जा वस्तुतः एक ही सत्ता के दो रूप हैं और उन्हें आपस में बदला जा सकता है।

क्वांटम और मैक्सवेल के सिद्धान्तों को आइन्स्टाइन की नई खोजों ने बहुत पीछे छोड़ दिया है। चुम्बक सम्बन्धी पुरातन मान्यताओं में रदरफोर्ड ने नये तथ्य जोड़े। उनने सिद्ध किया कि रेडियो धर्मी विकिरण का एक भाग एक दिशा में मुड़ता है तो उसे ‘अल्फा’ विपरीत दिशा में मोड़ता है तो ‘बीटा’ और बिल्कुल न मुड़ने वाला प्रवाह ‘गामा’ किरणों के रूप में निस्सृत होता है। यह तीनों प्रवाह अपने-अपने ढंग के अनोखे हैं। पुरानी मान्यता का परमाणु ठोस था। पीछे उसमें भी ढोल में पोल पाई गई है। आकाश में घूमने वाले पिण्डों की तरह परमाणु के गर्भ में कुछ प्राथमिक कण भ्रमण तो करते हैं फिर भी उसमें खाली जगह बहुत बच जाती है। यदि इलेक्ट्रॉन रहित परमाणुओं के नाभिकों को पूरी तरह सटाकर दबाया जा सके तो एक घन सेन्टीमीटर नाभिकीय द्रव का भार 10 करोड़ टन के लगभग हो जायगा। यूरेनियम, थोरियम, प्लूटोनियम जैसे रेडियो सक्रिय तत्वों की सामर्थ्य तो सर्वविदित ही है। धूल मिट्टी का अत्यन्त छोटा घटक होने के कारण उसका प्रत्यक्ष मूल्य नगण्य है, पर यदि उसका वैज्ञानिक ढंग से उपयोग किया जा सके तो शक्ति का असाधारण स्रोत करतलगत किया जा सकता है। नाभिक में प्रसुप्त शक्ति की खोज करने वाले प्रख्यात भौतिक विज्ञानी प्रो. एनारेको के शब्दों में- “हम छोटी-छोटी वस्तुओं में उलझे पड़े हैं। वस्तुतः संसार में महान शक्तियाँ भी हैं, जिनसे सम्बन्ध बनाकर हम अपने आप को शक्तिशाली तथा और अधिक प्रसन्न बना सकते है।”

अणु शक्ति की झाँकी तो कर ली गई है और उसकी क्षमता के सदुपयोग या दुरुपयोग की कला भी मानव बहुत कुछ जान गया है, किन्तु जड़ अणु शक्ति से भी उच्चकोटि की वेतन शक्ति मौजूद है। जड़ से चेतन की गरिमा सर्वविदित है। अणु से भी जीवाणु की क्षमता अत्यधिक प्रचण्ड होना स्वाभाविक है। अणु समूह का थोड़ा-सा यूरेनियम इतनी ऊर्जा शक्ति उत्पन्न कर सकता है जिससे उत्पादित विद्युत सारे क्षेत्र को प्रकाशित कर सकती है तो ईश्वर की अंशधारी आत्म चेतना युक्त मानवी व्यक्तित्व की क्षमता कितनी महान हो सकती है कितनों को प्रकाश दे सकती है, इसका अनुमान लगाया जाना कुछ कठिन नहीं होना चाहिए।

वस्तुतः अणु शक्ति से भी बढ़चढ़कर मनुष्य की चेतना शक्ति है। जिसके अंतर्गत मन, बुद्धि, चित्त, आत्मबोध को अन्तःकरण के रूप में जाना जाता है। लगन, तत्परता, एकाग्रता, तन्मयता, निष्ठा, दृढ़ता, हिम्मत जैसे मानसिक गुण ऐसे है जिनके आधार पर अणु शक्ति से भी करोड़ों गुनी अधिक प्रखर आत्मिक शक्ति को जगाया, बढ़ाया, रोका, सँभाला और प्रयुक्त किया जा सकता है।

अणु विज्ञान से बढ़कर आत्म विज्ञान है। जड़ अणु में जब इतनी शक्ति है तो जड़ की तुलना में चेतन का जो अनुपात है, उसी हिसाब से आत्म शक्ति की महत्ता होनी चाहिए। अणु विज्ञानी अपनी उपलब्धियों पर गर्वान्वित हैं और उस सामर्थ्य को युद्ध शस्त्र से लेकर बिजली की कमी को पूरा करने जैसी योजनाओं में प्रयुक्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं। आत्मविज्ञानियों का कर्तव्य है कि वे उसी लगन और तत्परता के साथ आत्म शक्ति की महत्ता और उपयोगिता को इस प्रकार प्रमाणित करें कि सर्वसाधारण को उसकी गरिमा समझा सकना संभव हो सके।

परमाणु के नाभिक की शक्ति की जानकारी से वैज्ञानिक आश्चर्यचकित हैं। वे उसी का विस्फोट कराते और उस ऊर्जा को भले-बुरे प्रयोजनों में प्रयुक्त करते हैं। अध्यात्मवेत्ता योगियों की सूक्ष्म दृष्टि भी वैज्ञानिकों की तरह ही रही है। उन्होंने चेतन सत्ता के नाभिक की जानकारी कर ली है और उसमें सन्निहित ज्ञान शक्ति, इच्छा शक्ति और क्रिया शक्ति की त्रिवेणी को केन्द्रित कर उससे उत्पन्न सामर्थ्य को रचनात्मक दिशा में प्रयुक्त कर सकने की विधि व्यवस्था को अध्यात्म विज्ञान कहा है। पदार्थ का परमाणु हमें सूक्ष्म से सूक्ष्म सत्ता की शक्ति की अनुभूति तो कराता है, पर वह चेतन सत्ता की जानकारी नहीं देता। भारतीय तत्व वेत्ताओं ने भी ऐसे ही चेतन परमाणु और उसके विभु नाभिक का पता लगाया है। उसे चेतन सत्ता आत्मा या ईश्वरीय प्रकाश के रूप में माना है और उसकी विस्तृत खोज की है। उपलब्धियाँ दोनों की एक तरह की हैं। उपनिषद् उसे अणोरणीयात्महतो महीयानात्मा (आत्मोपनिषद्-15/1) अणु से अणु और महान से महान बताती है। योग वशिष्ठ (5/17 /15/5/73/ 10; 4/ 33/ 51) इसे मुक्ति दिलाने वाला, सूक्ष्मातिसूक्ष्म, दृश्य पदार्थों से विलग रहने वाला तथा सब कुछ जानने वाला बताया गया है।

निःसन्देह इस जड़ जगत में सर्वत्र शक्ति का विपुल सागर भरा पड़ा है। पदार्थ के कण-कण में से ऊर्जा की प्रचण्ड लहरें उठ रही हैं। इस बिखराव को समेटने और सही ढँग से प्रयुक्त करने की विद्या जब मनुष्य के हाथ लग जायगी तो फिर अशक्ति जन्य सभी कठिनाइयों का निवारण हो जायगा। मनुष्य के हाथ में सामर्थ्य का अजस्र स्रोत होगा। इससे भी अधिक असंख्य गुना सामर्थ्य का स्वामी वह तब बनेगा जब चेतना जगत में संव्याप्त आनन्द और उल्लास से लेकर सिद्धियों, समृद्धियों और विभूतियों को वह हस्तगत कर लेगा। जीवन चेतना के प्रत्येक घटक में समाई सत्ता को देखना, परखना, समेटना और प्रयुक्त करने की कला में निष्णात बन जायेगा। इस स्थिति में पहुँच कर ही हम नर से नारायण रूप में विकसित हो सकेंगे। अपूर्णता से पीछा छुड़ाकर पूर्ण बन सकने का जीवन लक्ष्य प्राप्त कर सकेंगे।


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