पुण्य की सही परिभाषा

August 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सम्राट अशोक के विशाल साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र और भागीरथी का उफनता हुआ कोप, बढ़ती हुई जलराशि का निरन्तर तीव्र होता जा रहा वेग, सम्राट अपने मंत्रियों, सेनापतियों और पुरोहितों को साथ अवश भाव से खड़े देख रहे थे। गंगा का जल स्तर निरन्तर बढ़ता जा रहा था, किसी भी क्षण कुपित नदी की विपुल जल राशि तट बंधनों को तोड़कर राजधानी को अपने से समेटने के लिए बढ़ सकती थी पर किया क्या जाय?

सम्राट ने बाढ़ के सनसनाते हुए जल की ओर एक दृष्टि दौड़ाई और फिर दूसरे ही क्षण महामंत्री और खड़ी भीड़ की ओर टुकुर-टुकुर देखने लगे। फिर कहा, क्या अपने साम्राज्य में ऐसी कोई पुण्यात्मा नहीं जो इस भीषण बाढ़ पर काबू पा सके?

यह अनुरोध अकेले महामंत्री से ही नहीं किया गया था। वरन् वहाँ उपस्थित लाखों नगरवासियों से भी था। सम्राट के दाँये सहस्रों लोगों का जमघट था। सभी इस समस्या के लिये अपने-अपने ढँग से सोच रहे थे, समाधान का उपाय खोज रहे थे। तभी पशोपेश में पड़ी हुई बड़ी भीड़ को चीरती हुई एक महिला आगे बढ़ी। उसे देखकर कितनों के ही मुंह घृणा से दूसरी ओर घूम गये। बहुतों ने तो यहाँ तक कहा”रोको इसे। नहीं तो विनाश नहीं होगा। तो भी हो जायेगा। इस अधम नारी के जल स्पर्श से गंगा और कुपित हो उठेगी।”जन आक्रोश का कारण यह था। कि इतने लोगों की भीड़ को चीर कर बढ़ने वाली यह महिला रूपजीवा वेश्या बिन्दुमती थी।

अनेकों कंठों से निकले तिरस्कार और अपमान भरे स्वरों को हंसते हुए भरे कंठ से उसने सम्राट को अपना परिचय दिया। “मैं हूँ बिन्दुमती रूपजीवा। अपना रूप और यौवन बेचकर जीविका चलाने वाली एक वेश्या। पर माँ भागीरथी से एक प्रार्थना करने का अवसर चाहती हूँ सम्राट!” उन्होंने स्वीकृति दे दी और बिन्दुमती भयंकर गर्जना करती हुई गंगा के समीप पहुँची। उसने नदी की ओर हाथ उठाते हुए कहा,” माँ गंगे! यदि मेरे पाप कर्मों के बीच पुण्य कर्म के तनिक भी संस्कार रहे हो, यदि मैं सत्यनिष्ठ रही हूँ तो इन पुण्यों का फल परलोक में देने के स्थान पर इसी लोक में दीजिये। आप अपने कोप को समेट ले माँ।”

यह कह कर बिन्दुमती के नेत्रों से एक और गंगा दो धाराओं में बह उठी। उन आँसुओं का स्पर्श गंगा के गर्जन करते जल से होना था की निरन्तर वेगवान होता जा रहा जल प्रवाह घटने लगा। कुछ क्षणों में ही गंगा का उफान शनैः-शनैः शान्त होने लगा।

सम्राट को आश्चर्य हुआ इस वेश्या के ऐसे कौन से पुण्य संस्कार है जिनके प्रताप से उफनता हुआ गंगा का जल प्रवाह भी शान्त हो गया। सम्राट ही नहीं, वहाँ खड़े सहस्रों नागरिक भी विस्मय विमुग्ध थे। अपने प्रश्न का उत्तर जानने के लिए सम्राट बिन्दुमती को अपने पास बुलाने के स्थान पर उसके पास गये और बोले” भद्रे! तुम जैसी पाप पंक में पली हुई नारी ने किस प्रकार इतना पुण्य अर्जित किया कि भागीरथी को तुम्हारी बात माननी पड़ी।

“राजन्! आपकी प्रत्येक बात सत्य है” बिन्दुमती ने कहा,” पर मैं धन,जाति, शिक्षा, कुल

और रूप के आधार पर किसी से पक्षपात नहीं करती।परिस्थितियों ने मुझे रूपजीवा बनाया पर सत्य,व्यवसाय के प्रति मेरी ईमानदारी, प्रत्येक व्यक्ति के सम्मुख निश्छलता के साथ उसे संतुष्ट करने का प्रयास ही वह पुण्य हो सकता है जिसे गंगा ने स्वीकार किया”

सम्राट ने तथ्य को स्वीकार किया और राजकीय सम्मान से विभूषित करते हुए एक समारोह में यह शिलालेख भी खुदवाया कि अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति पुण्यात्मा है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles