इंग्लैण्ड के बादशाह सप्तम एडवर्ड की पत्नी एलेक्जैण्ड़ास बचपन से ही बड़ी परिश्रमशील थीं। बेकार उनसे एक क्षण के लिए भी नहीं बैठा जाता था।
विवाह होने पर उन्हें और भी अधिक सुविधा साधन मिलें। हर काम के लिए नौकर थे तो वे स्वयं फिर क्या काम करती। अन्ततः उनने अपने लिए एक काम ढूंढ़ निकाला। वे निर्धन लोगों को बाँटने के कपड़े खुद अपने हाथ से सिया करती और उन्हें बाँटने के लिए उन मुहल्लों में जाया करती।
विलास की सुविधा सामग्री से कही अधिक सुख संतोष उन्हें उस परमार्थ कार्य में मिलता।
नौवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वितसता नदी की भीषण बाढ़ों से कश्मीर घाटी दलदली एवं कृषि के अयोग्य बनती जा रही थी। परिणाम स्वरूप अकाल की स्थिती बनती जा रही थी। राजा अवंती वर्मा और मंत्री किंकर्तव्यविमूढ़ थे। ऐसी विषम परिस्थिति में एक तरुण ने, जिसके माँ बाप तक का कोई पता नहीं था उसने कहा मेरे पास इस समस्या को सुलझाने की बुद्धि तो है परन्तु इसे कार्यान्वित करने का साधन नहीं है। क्या करूं
समस्या जब बढ़ती गई तब राजा ने परेशान होकर उसे अपनी योजना कार्यान्वित करने को कहा, स्वर्ण मुद्राओं की बड़ी राशि भी दी। मंत्री इसका विरोध करते ही रहे। उसने फिर तब राजा को भी पागल समझा जब उस व्यक्ति ने सारी स्वर्ण राशि वितस्ता नदी के पहाड़ी भागों में (जहाँ पानी रुका था) फेंक दिया। वह व्यक्ति तो पागल साबित हो ही चुका था।
वितस्ता नदी में स्वर्ण मुद्रायें फेंकी जाने का समाचार हवा की तरह फेल चुका । दुर्भिक्ष पीड़ित ग्रामवासी जल रोकने वाली चट्टानों को हटाने लगे एवं सवर्ण मुद्रायें खोजने लगे। चट्टानों के हटाये जाने से नदी के रास्ते में रुका हुआ जल झील की और तीव्र गति से बहने लगा। जल पलावित क्षेत्र की समस्या हल हो गई।
अब तो उस पागल ठहराये जाने वाले व्यक्ति का सम्मान होने लगा एवं उसकी अग्रिम योजना के लिए राज्य से धन भी दिया गया। योजना का विस्तार कर उसने नदी पर बाँध बंधाया, नहरें निकाली एवं विस्तता झेलम के संगम स्थान भी बदले। उसके बाद कश्मीर में बाढ़ की स्थिति ही नहीं सुलझी उसका भाग्य ही खुल गया। कश्मीर को स्वर्ग बनाने वाला, सड़कों पर पागलों की तरह घूमने वाला, माँ-बाप हीन और कोई नहीं मध्य युग का महान इंजीनियर अन्नपति सुम्य था।