“योग”.... बाजीगरी नहीं वरन् उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है।

August 1988

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आज-कल योग का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है। स्थान-स्थान पर नित्य नए योग केन्द्र खुलते तथा सभी को योग की उच्चतम स्थिति तक पहुंचा देने का दावा करते है। देश की तरह विदेशों में भी अनेकानेक तथाकथित योगीगण अपने इन केंद्रों की स्थापना के उÌष्य से निरन्तर जाते है। सामान्य मानव मन में सहज ही जिज्ञासा उमंगती है कि यह योग है क्या? जिस योग को आज बाजीगरी के रूप में प्रदर्शित कर उसे अर्थकारी विद्या के रूप में अपनाया जा रहा है, क्या पूर्व काल में ऋषियों ने भी इसी का प्रतिपादन किया था?

मानव मन को उद्वेलित करने वाली ये जिज्ञासाएँ स्वाभाविक है। इनके समाधान हेतु चिन्तन मनन करने तथा पतंजलि प्रणीत योग दर्शन के पृष्ठ उलटने पर स्पष्ट हो जाता है कि योग शब्द “युज” धातु से निःसृत हुआ है- जिसका तात्पर्य है जोड़ना। अध्यात्म साधना के क्षेत्र में यह शब्द आत्मा और परमात्मा को मिलाने वाली पुण्य प्रक्रिया के रूप में प्रयुक्त होता है। इसे सद्ज्ञान और सत्कर्म का समन्वय भी कह सकते हैं। संसार में सबसे बड़ा दुःख वियोग है। प्रिय परिजनों से बिछुड़ जाने पर जितना कष्ट होता है उतना अन्यत्र कहीं भी कभी नहीं होता। आत्मा के अपनी परम प्रिय परब्रह्म-परमसत्ता से विलग होने पर अहर्निशि पग-पग पर कुकर्म घेरते है और शोक सन्तोष दुःख देते है।

साधन और सत्प्रयोजन का समन्वय हो सके तो उसे व्यावहारिक जीवन का योग कहा जाएगा। इस सुयोग को जिनने भी बनाया, वे स्वल्प साधनों से भी आशातीत प्रगति कर सकने में समर्थ हुए। जिन्हें यह सन्मार्ग नहीं मिला, जो साधनों को बाल क्रीड़ा के मनोविनोदों में गँवाते रहे, उन्हें दुष्कर्मों में नष्ट करते रहे ऐसे मनुष्यों की जीवन सम्पदा सुर दुर्लभ होते हुए भी अभिशाप-दुर्भाग्य ही सिद्ध होती रहेगी।

मानव जीवन की अमूल्य साधन है तथा परमात्मा की प्राप्ति है-महत् सत्प्रयोजन। इसका समन्वय न हो पाने के कारण ही हेय गतिविधियाँ गले बँधती तथा सर्वनाश का पथ प्रशस्त होता है। जन्म-जन्मान्तरों से संग्रहित पशु प्रवृत्तियां अपने-अपने उन्हीं हेय संस्कारों के अनुरूप गतिविधियाँ अपनाने के लिए आकर्षित करती रहती है। यह वृत्तियां किसी भी तरह मानवी गरिमा के अनुकूल नहीं इनके बहकने पर ही नर के कलेवर में अनुकूल नहीं। इनके बहकने पर ही नर के कलेवर में दिखता मानव वस्तुतः मानव न होकर नर पशु रह जाता है।

आवश्यकता वृत्तियों के नियमन की है। इसी कारण योग दर्शन के सूत्रकार ने योग का यथार्थ अभिप्राय बताते हुए “योगाष्चितवृति निरोध” का सूत्र प्रतिपादित किया है। योगाभ्यास का प्रारम्भ चित्त वृत्तियों के निरोध से ही होता है। आमतौर से इसका अर्थ एकाग्रता का अभ्यास समझा जाता है। पर यह अभ्यास योग का एक छोटा सा अंश है इसे इसका भौतिक भाग भी कहा जा सकता है। एकाग्रता में अध्यात्म साधक ही नहीं अपितु ऐसे अनेक संसारी व्यक्ति भी उसमें परिणत होते है। जिनका आध्यात्मिकता से दूर-दूर का रिश्ता नहीं। सरकस में तमाशा दिखाने वाले नटों के सारे खेल इसी एकाग्रता के बल बूते टिके होते है। यदि उनका ध्यान बटाने लगे तो तार पर चलने, झूलों पर उछलने जैसे करतब दिखा सकना किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगा, वैज्ञानिक, कलाकार, मूर्तिकार आदि अपने-अपने विषयों में तन्मय हो सकने की विशेषता उत्पन्न करत तथा सफल होते है। पर इसे एक मस्तिष्कीय कौशल भर कहा जा सकता है। अध्यात्म प्रयोजनों में भी इस विशेषता की आवश्यकता है। इतना होते हुए भी मात्र इसी विशिष्टता के आधार पर किसी को योगी नहीं कहा जा सकता।

चित्त निरोध का अर्थ है मन की अस्त-व्यस्त भाग दौड़ को नियन्त्रित करके किसी विशेष प्रयोजन में लगाये रखने का अभ्यास। यह आवश्यक भी है और सराहनीय भी, पर इससे योग साधना का प्रयोजन पूरा नहीं होता। आत्मिक प्रगति के लिए मात्र चित्त निरोध और चित्त वृत्तियों के निरोध का अन्तर प्रत्येक विचारशील के मन-मस्तिष्क में स्पष्ट रहना चाहिए।

किन-किन चित्त वृत्तियों का अवरोध करना होगा इसका संकेत योगदर्शन के साधन पाद के सूत्र 6 में दिया गया है। समस्त वृत्तियां पाँच प्रकार की होती है तथा उन पाँचों वृत्तियों में से प्रत्येक वृति क्लिष्ट तथा अक्लिष्ट रूप में होती है। प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा, एवं स्मृति प्रायः यही पाँच प्रकार की चंचलताएँ मन पर छाई रहती है और उसे उच्च उद्देश्यों से विरत करके पशु प्रवृत्तियों में उलझाती है। प्रमाण वृति उसे कहते हैं जो इन्द्रिय विषयों के पूर्वाभ्यास से वृत्ति सम्बंधित विषयों के प्रसंग आने पर उभरती है। विपर्यय कहते हैं-प्रतिकूल ज्ञान को, वस्तु स्थिति की जानकारी न होने से चित्त कस्तूरी के हिरन के सदृश उद्विग्न फिरता है। विकल्प का अर्थ है-भय, आशंका, सन्देह, अशुभ सम्भावना आदि कुकल्पनाओं से उत्पन्न कातरता। निद्रा का अर्थ है आलस्य प्रमोद-उपेक्षा अवसाद-अनुत्साह। स्मृति वे संस्मरण है जो निष्कृष्ट योनियों में रहते समय अभ्यास में आते रहे स्वभाव के अंग बने रहे। उनकी छाया मनुष्य योनि में भी छाई रहती है। उसके फलस्वरूप कई बार इतने जोर से उभरती है कि विवेक मर्यादाओं के बाँध तोड़ कर ऐसा करा लेती है। जिसके संबंध में पीछे प्रायश्चित करना ही शेष रह जाता है।

जिस युग में समाज में जिस वातावरण में हम रह रहे हैं। उसमें अवांछनीय प्रचलनों की कमी नहीं। उनका आकर्षण मन को अपनी ओर खींचता-लुभाता है। पानी स्वभावतः नीचे गिरता है। अधिकांश लोग अवाँछनीय गतिविधियाँ अपनाकर अनुपयुक्त जीवन जीते है। इससे वे तात्कालिक लाभ भी पाते है पीछे भले ही उन्हें दुष्परिणाम भुगतने पड़े। इस तत्काल लाभ की बात सहज ही मन को आकर्षित करती है और दबी हुई दुष्प्रवृत्तियां उभर कर उस मार्ग पर घसीट ले जाती है जो मनुष्य जैसे विवेकी प्राणी के लिए अशोभनीय है।

योग साधना का मूल उद्देश्य इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों के साथ प्रचण्ड संघर्ष खड़ा कर देना है। जिस महाभारत में कृष्ण और अर्जुन ने सम्मिलित भूमिका निभाई थी, वह आत्म परिष्कार में योग साधना के साथ पूरी तरह से सम्बन्धित है। कुसंस्कार कौरव दल से किसी भी कीमत में कम नहीं। ये निकृष्ट योनियों से साथ चले आ रहे तथा वातावरण में घुसी अवांछनीयता से उद्दीप्त हो भड़कते है। जिस तरह से कौरवों ने पाण्डवों की सारी सम्पदा हथिया ली थी। उसे वापस लेने के लिए युद्ध करना पड़ा। ठीक उसी तरह से आत्मिक गरिमा पर असुरता आच्छादित हो रही है। उसको इस चंगुल से छुड़ाने के लिए विरोध प्रतिरोध का महाभारत खड़ा करने के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं शेष रह गया है। योगाभ्यास में इसी “निरोध” संघर्ष का उल्लेख है। इसमें आत्मा परमात्मा का सत्कर्म सद्ज्ञान का समन्वयन करने पर विजय सर्वथा निश्चित हो जाती है।

इस अभ्यास के आठ सोपान है, जिनको अपनाना व्यूह रचना के सदृश है। इस तरह क्रम-क्रम से अभ्यास करते हुए दुष्प्रवृत्तियों का निरस्त कर अन्तः प्रकृति की परतों का भेदन कर लक्ष्य को पाया जा सकता है। शास्त्रकारों ने योग साधना का माहात्म्य तथा तत्वदर्शन समझाते हुए बताया है कि जिस प्रकार क ख ग घ से अक्षरारम्भ करते हुए तत्वज्ञान प्राप्त हो जाता है।

यह न तो कठिन है, न ही अशक्य। इसकी सुलभता सर्व साधारण के लिए है। उस मार्ग पर न्यूनाधिक जितना भी चला जा सके उतना ही लाभ है। इस तथ्य को समझने तथा अपनाने से ही तथाकथित “योगा” बनाम बाजीगरी के मोह-जाल से भी उबरा जा सकेगा।

जड़ पदार्थों में एक-एक का जोड़ दो बनता है। प्राणियों की चेतना का सहयोग समन्वयन होने से यह तथ्य भिन्न प्रकार से होता है। और एक को बराबर रख देने से वे 11 बन जाते है। दो सच्चे मित्र सहयोगी मिलकर असाधारण काम करते है। इसी प्रकार यदि आत्मा और परमात्मा के समन्वयन होने की स्थिति को सूत्रकार इस प्रकार समझाते है।

“पुरुषार्थ शून्यानाँ गुण्ण्नाँ प्रतिप्ररुपः कैवल्यं स्वरुवं प्रतिष्ठा वा चित्तषक्तिरिति॥4। 34॥”

गुण कारणों में लय होते तथा चैतन्य शक्ति अपने स्वरूप में प्रतिष्ठा पाती है। इस तरह चिर वियोग की दुःख दूर होता तथा योग की वह दुर्लभ स्थिति आती है, जिसमें आनन्द, शक्ति, सिद्धि सभी कुछ है। यही है योग का सही स्वरूप, जिसे समझा व हृदयंगम किया जाना चाहिए।


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