प्रतिकूलताओं में हड़बड़ाएं नहीं।

August 1988

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जीवन जीते समय खिलाड़ी द्वारा खेले जाने जैसी मनःस्थिति होनी चाहिए। आये दिन घटित होने वाले घटना-क्रमों को संसार में निरन्तर चलने वाली अनुकूल प्रतिकूल लहरों में से एक मानना चाहिए। समुद्र में ज्वार-भाटे आते रहते है। तालाबों में लहरे उठाती रहती है, पर इससे उनके अन्तराल में स्थिरता ही बनी रहती है। कोई विक्षेप नहीं होता। उसी प्रकार समय–समय पर आती जाती रहने वाली अनुकूलताओं प्रतिकूलताओं के संबंध में भी मन को समय-संतुलित बनाये रहना चाहिए। यह तभी संभव हो सकता है जब बदलती परिस्थितियों की क्रमबद्धता को सामान्य माना जाये। उन्हें असामान्य होने का महत्व न दिया जाये।

मनोविज्ञान जैम्स का कथन है कि “यह संभव नहीं कि सदा अनुकूलता ही बनी रहे कभी प्रतिकूलता ही बनी रहे। कभी प्रतिकूलता न आये। “ दिनमान की कितनी ही महत्ता क्यों न हो पर उसका भी संध्याकाल में अवसान होता ही है। दिन के समय जो प्रकाश था, ऊष्मा का जैसा प्रवाह था उस सबका रात्रि का आगमन होते ही अन्त हो जाता है। परिस्थिति सर्वथा विपरीत बन जाती है, सघन अंधकार छा जाता है। इस परिवर्तन को रोका नहीं जा सकता। अंधकार से कितना ही डरा जाय कोसा जाय वह नियति क्रम के अनुरूप आता ही है। उस आगमन को रोकने के लिए सिर खपाने की अपेक्षा सही उचित है कि अपनी गतिविधियों में ऐसा हेरफेर कर लिया जाय तो परिवर्तित परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठा सके।

रात्रि के आमतौर से सभी सो जाते है। इस विवशता के पीछे एक लाभ भी है कि दिन भर के किये हुए श्रम की थकान मिटती है। दूसरे दिन नई स्फूर्ति के साथ काम करने का अवसर मिलता है। दिन छिपने पर सभी घर लौट आते हैं है ओर परिवार के साथ रहने, मौज मनाने का अवसर प्राप्त करते है। रात्रि निरर्थक असुविधाजनक और डरावनी प्रतीत होती है तो भी विचार करने पर प्रतीत होता है। कि उसकी भी अपनी उपयोगिता और आवश्यकता थी। प्रकृति ने इसी आधार पर उसका अहर्निश चलते रहने वाला चक्र घुमाया है।

ऋतु परिवर्तन में एक दूसरे से सर्वथा भिन्नता रहती है। वर्षा के दिनों वाली स्थिति सर्दी में नहीं रहती। जो दृश्य सर्दी और शरद की परिस्थितियां अपने ढँग की अनोखी हैं। उस समय जैसी परिस्थितियाँ अन्य किसी ऋतु के साथ नहीं बनती। हो सकता है किसी को कोई ऋतु अनुकूल पड़ती हो किसी को प्रतिफल। बुवाई के दिनों में वर्षा उपयोगी लगती है और कटाई के दिनों गरम मौसम सुहाता है। कुम्हार पूरे साल सूखा पसंद करता है ओर माली का उद्यान तब उमंगता है, जब बदली छाई रहे, बूंदा–बांदी होती रहती रहे। भावुकों की उमंग बसन्त में इतराती है। कास फूलने से शरद में समूचा क्षेत्र सुवाहना लगता है। यह पसंदगियाँ कितनी प्रिय क्यों न लगती हो पर उनका सदा बने रहना संभव नहीं।

थोड़े-थोड़े समय के लिए वे अपनी छटा दिखाती हैं और फिर दूसरे दौर में बदल जाती है। उन्हें इस बात की परवाह नहीं और किनको अप्रिय। नियति का क्रम नहीं बदला जा सकता, अपने को ही उस परिवर्तन के अनुरूप ढालना बदलना पड़ता है।

खेल-खिलाड़ी निरन्तर हारते जीतते रहते है। ताश-शतरंज में भी हार-जीत होती रहती है। किन्तु खेलने वाले उसकी परवाह नहीं करते। चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देते। जो इतना कर पाते हैं उन्हीं को खेल का आनंद आता है। जो हर हार उदास होते हैं और हर जीत पर इतराते हैं उनका खिलाड़ी होना व्यर्थ है।

मध्यवर्ती संतुलित स्वाभाविक स्थिति हैं। तापमान बढ़ जाने से ज्वर माना जाता है। शरीर ठंडा रहे तो वह भी शीत प्रकोप माना और चिन्ताजनक समझा जाता है। रक्तचाप बढ़ने की ही तरह उसका घटना भी रुग्णता का चिन्ह है। किसी अनुकूलता से लाभान्वित होने पर असफलता की प्रतिकूलता का सामना करने पर विषाद में डूबे जाना और सिर धुनना भी अविकसित अनपढ़ व्यक्तित्व का चिन्ह है। इन असंतुलनों से बचा ही जाना चाहिए।

सभी व्यक्ति इच्छानुकूल आचरण करेंगे यह आशा रखना व्यर्थ है। सभी अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व रखते हैं। जन्म जन्मान्तरों के संचित भले-बुरे संस्कार साथ लेकर आते पलने और विकसित होने की परिस्थितियों में भिन्नता रहती है। किसी पेड़ के पत्तों का गठन आपस में मिलता-जुलता है पर उनमें भिन्नता अवश्य रहती है। हर आदमी के अंगूठे के निशानों में अन्तर होता है। एक आकृति प्रकृति के दो मनुष्य कहीं नहीं देखे गये भिन्नता ही इस संसार की विशेषता है। उसके आधार पर बहुत तरह से सोचने और स्थिति के अनुरूप बदलने, व्यवहार करने की कुशलता आती है। मनुष्य बहुज्ञ, बहुज्ञ, कहु कौशल सम्पन्न इसी आधार पर बनता है। उतार चढ़ावों का सामना करते रहने सक ही व्यावहारिकता में निखार आता है।

हलके बर्तन चूल्हे पर चढ़ते ही आग-बबूला हो जाते है और उसमें डाले गये पदार्थ उफनने लगते है। पर भारी भरकम बर्तनों में जो पकता है उसकी गति धीमी होती है पर परिपाक उन्हीं में ठीक से बन पड़ता है। हमें बबूले की तरह फूलना, फुदकना और इतराना नहीं चाहिए। ऐसी रीति नीति स्थिर नहीं रहती। वह कुछ क्षण में टूट-टूट जाती है। प्रवाहमान रहे तभी वह अपने स्वरूप को सही काम कर सकता है।

चंचलता वयगता की मनःस्थिति में सही निर्धारण और सही प्रयास करते धरते नहीं बन पड़ता। असंतुष्ट और उद्विग्न व्यक्ति जो सोचता है, एक पक्षीय होता है और जो करता है उसमें हड़बड़ी का समावेश रहता है ऐसी मनःस्थिति में किये गये निर्धारण या प्रयास प्रायः असफल ही होते है। उन्हें यशस्वी बनने का अवसर नहीं मिलता।

आवेश या अवसाद दोनों ही व्यक्ति को लड़खड़ाती स्थिति में धकेल देते हैं। ऐसी दशा में निर्धारित कार्यों को पूरा कर सकना साथियों के साथ उपयुक्त ताल-मेल बिठाये रह सकना कठिन जान जितनी आती है। उससे कहीं अधिक परिस्थितियों के कारण जितनी आती है उससे कहीं अधिक निज का असन्तुलन काम को बिगाड़ता है। व्यक्ति को उपहासास्पद, अस्थिर अप्रामाणिक बनाता है।

सबसे बड़ी बात यह है कि उत्तेजना शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डालती हैं। आक्रोश में भरे हुए उद्विग्न व्यक्ति न चैन से रहते है, न दूसरों को रहने रहता है। रक्त उबलता रहता हैं, विचार क्षेत्र में तूफान उठता रहता हैं। फलतः जो व्यवस्थित था वह भी यथा स्थान नहीं नहीं रह पाता। पाचन तंत्र बिगड़ता है, रक्त प्रवाह में व्यतिरेक उत्पन्न होता है, असंतुलित मस्तिष्क अनिद्रा, अर्द्धविक्षिप्तता जैसे रोगों घिरकर स्वास्थ्य संतुलन को गड़बड़ाता है। हमें हँसती -हँसाती स्थिति में ही रहना चाहिए। सफलता और प्रसन्नता का रहस्य इसी में सन्निहित है। यही जीवन जीने की सही रीति है।


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