कणाद ऋषि के आश्रम में एकबार चातुर्मास का सत्संग चला। गर्मी के दिनों में जितनी जलाने की लकड़ी एकत्रित की गई थी वह सब समाप्त हो गई। भोजन पकाने के लिए ईंधन शेष नहीं रहा। कोई मजदूर भी उपलब्ध न था।
आखिर सभी आगत विद्वानों ने स्वयं चल कर लकड़ी बीनने और काटने का निश्चय किया। कई दिन की लगातार मेहनत से पर्याप्त मात्रा में ईंधन जमा हो गया।
वर्षा खुलने पर विद्वान उस क्षेत्र में घूमने निकले। अबकी आर अचम्भे की बात यह दिखाई दी कि उस क्षेत्र में दुर्लभ फूलों जैसी सुगंध आ रही थी।
सभी ने इसका कारण जानना चाहा। उन दिनों कोई फूल तो कही खिला दिखाई नहीं पड़ता था।
उलझन को सुलझाते हुए महर्षि कणाद ने कहा यह बुद्धि जीवियों के शारीरिक श्रम का प्रतिफल है।
मजदूर तो मेहनत करते ही हैं पर यदि विद्वान जब भी कड़ी मेहनत करने में जुट पड़ें तो उसके परिणाम ऐसे सुन्दर होते हैं, जैसे कि इस क्षेत्र में फैली सुगन्ध के रूप में परिलक्षित होते हैं। आप लोगों का जहाँ पसीना गिरा था वहीं से में फूलों जैसी सुगन्ध उठ रही हैं।