अपनों से अपनी बात - स्वास्थ्य संरक्षण के क्षेत्र में एक अभिनव प्रयोग

August 1988

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स्वास्थ्य मनुष्य की प्रथम और प्रमुख आवश्यकता है। इसके गड़बड़ाने पर जीविकोपार्जन से लेकर अन्यान्य उत्तरदायित्वों में से किसी का भी निर्वाह ठीक तरह नहीं बन पड़ता। स्वस्थता मात्र शरीर की ही पर्याप्त नहीं। मानसिक असंतुलन भी मनुष्य को एक प्रकार से अपंग असमर्थों जैसी स्थिति में ही पहुँचा देता है। शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ हों। तो समझना चाहिए कि सही तरह से जीवन निर्वाह एवं प्रगति के पथ पर चल सकना संभव होगा।

दुर्भाग्य से प्रचलन यह है कि लोग अनेक छोटे -मोटे रोगों से घिरे रहते है, उनकी परवाह नहीं करते। चेतते तब है,तब चारपाई पकड़ने की स्थिति आ जाती है। काम रुक जाता है। तब चिकित्सकों के पास दौड़ने और दवा-दारु लेकर आपदा से निपटने का एक मात्र उपाय रह जाता है। पथ्य का महत्व न देने के कारण रोग की जड़े तो कटती है, मात्र दब भर जाता है। आगे चलकर फिर किसी अन्य रूप में उभर कर सामने आता है। होना यह चाहिए कि पीड़ा का लाक्षणिक चिकित्सापरक उपचार चलाने के अतिरिक्त उन्हीं दिनों शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक नियमोपनियमों का पालन करने के लिए भी जोर दिया जाता। बीमारी के समय ऐसा प्रशिक्षण साधारण समय की अपेक्षा अधिक कारगर होता है।

इस मुहीम पर काम करने के लिए शांतिकुंज हरिद्वार ने व्यापक स्तर की एक सुविस्तृत योजना बनाई है। स्वास्थ्य संरक्षण के प्रति जन चेतना जगाने के लिए एक समग्र स्वास्थ्य संरक्षण प्रतिक्षण कार्यक्रम शांतिकुंज से आरंभ किया गया है इस केन्द्र की यह मान्यता है स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से प्रारंभिक स्तर ही निपटा जा सकता है। इसके लिए शरीर व मन की संरचना, क्रिया प्रणाली, रोगों के कारण व लक्षण तथा वनौषधियों के ताजी अथवा सुखी स्थिति में निरापद प्रयोग तथा पथ्य संबंधी कुछ सावधानियों संबंधी जानकारी से पूर्णरूपेण प्रशिक्षित कार्यकर्ता एक व्यापक स्तर पर तैयार करने की योजना है। ऐसे कार्यकर्ता जनसाधारण औषधियों के तात्कालीन लाभ की तुलना में वनौषधि उपचार सर्वथा निरापद है। इस प्रक्रिया में लाभ भले ही देर से मिल पाता हो, पर कोई प्रतिक्रिया या संकट उत्पन्न होने का खतरा बिल्कुल भी नहीं रहता रहता। वनौषधियों की मौलिक विशेषता यह है कि वे जीवनी शक्ति बढ़ाती है और रोग निरोधक सामर्थ्य को सुदृढ़ बनाती है। इससे सामयिक रोग तो टलता ही है, भविष्य में स्वस्थ बने रहने के द्वार भी खुलता है। वे यह भी समझाती है कि मात्र उपचार प्रक्रिया संपन्न कर लेने से ही स्वास्थ्य रक्षा का प्रयोजन पूरा नहीं होता। मूलतः स्वास्थ्य संरक्षण की प्रक्रिया का समग्र प्रशिक्षण होना चाहिए। इसके अंतर्गत प्रत्यक्ष रोगी एवं वे जो रोगी ता नहीं है, पर आज के प्रदूषित पर्यावरण भरे युग में कभी रोगी हो सकते है तथा वे जो प्रशिक्षण को माध्यम से स्वास्थ्य संरक्षण की भूमिका निभा सकते है, तीनों को ही यह बनाया जाना चाहिए कि रोग होते क्यों है? इसके लिए शरीर की संरचना एवं कार्य पद्धति की मोटी-मोटी जानकारी दी जानी चाहिए ताकि वे शरीर के विभिन्न अंगों, उनके उत्तरदायित्वों एवं विभिन्न परामर्श किस स्तर पर काम करेंगे, यह भली-भाँति समझ सके। रोगों के कारण यदि बाहर के वातावरण में है तो वे क्या है व उनसे कैसे बचा जाय? इसका समग्र शिक्षण अनिवार्य है। स्वच्छता का महत्व समझते हुए तनाव शैथिल्य की महत्ता भी समझाई जानी चाहिए ताकि मनोविकारों की जड़े काटी जा सके। इस सर्वांगपूर्ण प्रशिक्षण में आहार विज्ञान की जानकारी भी दी चाहिए ताकि उचित आहार से,विभिन्न ऋतुओं के अनुरूप आहार ग्रहण कर, कुपोषण के कारणों को समझकर प्रतिरोध सामर्थ्य बढ़ायी जा सके।

विभिन्न रोगों के लक्षणों का शिक्षण भी इस रूप में जरूरी है कि रोगों के निदान में उससे मदद मिल सकें सही निष्कर्ष तक पहुँचकर तदनुसार रोग का उपचार आरम्भ किया जा सके। रोगी के द्वारा स्वयं बरता जाने वाला पथ्य एवं समय तथा दूसरों के द्वारा उसकी परिचर्या के मोटे-मोटे नियम तथा व्यावहारिक शिक्षण दिया जाना भी जरूरी है प्राथमिक सहायता तथा सर्वसुलभ व्यायामों, आसन, प्राणायाम आदि के द्वारा आरोग्य रक्षा किस प्रकार संभव है, यह शिक्षण भी स्वास्थ्य संरक्षण के अंतर्गत कराया जाना जरूरी है। इन सबके अतिरिक्त मानसिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य की जानकारी व महत्व समझाया जाना चाहिए। इतना सब समझ लेने के उपरान्त उपचार का क्रम आता है जो विभिन्न वनौषधियों द्वारा अनुपान भेद से एकाकी या सम्मिश्रित प्रयोगों द्वारा की जाती है। किन रोगों में कौन-सी एवं किस रोगी को किस परिमाण में किस अनुमान के साथ औषधि कब तक दी जानी है, यह प्रशिक्षण का एक महत्वपूर्ण अंग है सही वनौषधि की पहचान, शुद्धाशुद्ध परीक्षा,बोने-उगाने की विधि,ताजे रूप में कैसे दिया जाय एवं सूखे चूर्ण या द्रव क्वाथ रूप में किस प्रकार, यह भी प्रशिक्षण में बताया जाता है।

वस्तुतः जड़ी बूटी विज्ञान ही प्राचीन काल का आयुर्वेद है। यह वही विद्या है, जिसमें मूर्च्छित लक्ष्मण का जनजीवन प्रदान करने और वृद्ध च्यवन ऋषि को पुनः युवा बनाने की क्षमता कभी विद्यमान थी। कभी आयुर्वेद विश्वभर में मान्यता प्राप्त चिकित्सा विज्ञान था। पर अब्र बूटियों के सही रूप में न मिलने, वर्षों पुरानी, घुन लगी, सड़ी-गली नकली से काम चलाने जाने के कारण उसका वैसा प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता। पर यदि उन्हें सही मार्गदर्शन व संरक्षण में उत्पादित किया जा सके। समयानुरूप शोध प्रयास उनके साथ जुड़ते रहें तो कोई कारण नहीं कि उनके प्रभाव से सामान्य रोगों कष्टों का निवारण संभव न हो सके। इस मान्यता के आधार पर शांतिकुंज की पूरी खाली भूमि में जड़ी-बूटी उद्यान लगाया गया है। उनके गुण-दोषों, कर्म एवं प्रभाव की समीक्षा-विश्लेषण हेतु एक साथ सम्पन्न मेडिकल कालेज स्तर की प्रयोगशाला है जिसमें एलोपैथी, आयुर्वेद एवं रसायनशास्त्र के पोस्टग्रेजुएट स्तर के अनुभवी चिकित्सा-वैज्ञानिक निरन्तर अनुसंधान कार्य करते है।

शान्तिकुँज के कार्यकर्त्ताओं की संख्या प्रायः पाँच सौ है, जो स्थायी रूप से यहीं परिवार के रूप में रहते है। लोक सेवी कार्यकर्ता भी एक मास का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए लगभग इतनी संख्या में सतत् यहाँ बने रहते है। इस एक हजार के परिवार को आरोग्य संबंधी जाँच पड़ताल का एवं रोगियों को जड़ी-बूटी उपचार से लाभान्वित कराने का प्रयत्न निरन्तर चलता रहता है। इसमें इस विज्ञान की वस्तुस्थिति समझने का अवसर सभी को मिलता है। पिछले दस साल के अन्वेषण उपचार के अनुभव से यह बात भली प्रकार स्पष्ट हो जाती है। कि जड़ी-बूटी उपचार किसी अन्य चिकित्सा पद्धति से उपयोगी नहीं है।

उपरोक्त समूची प्रक्रिया स्वास्थ्य संरक्षकों को प्रशिक्षित राष्ट्र के हर कोने-कोने तक पहुँचने की है। लम्बे समय से हर गति से चलते आ रहे इस प्रयोग का अब नया,उत्साहवर्धक व्यापक क्षेत्र में चलने वाला रूप दिया गया है। शांतिकुंज एक-एक माह के लोक सेवी शिक्षण में जूनियर हाईस्कूल तक शिक्षा विद्यार्थियों को स्वास्थ्य संरक्षण की समर्थ शिक्षा के साथ -साथ जड़ी बूटी उत्पादन और उपयोग की जानकारी भी प्रस्तुत माह से ही दी जाने लगी है पौध एवं बीज उन्हें यही से उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गयी हैं पौधे तैयार कैसे की जा सकती है तथा किस फलोरा में उन्हें लगाया जाना चाहिए, यह शिक्षण उपलब्ध जानकारी के आधार पर दिया जाता है। यह बताया जाता है कि वनौषधियों से सामान्य रोगों का उपचार व स्वास्थ्य संवर्धन भली भाँति संभव हैं बड़े रोगों, गंभीर लक्षणों की स्थिति में तो कुशल चिकित्सा व निदान हेतु साधन सम्पन्न अस्पतालों का आश्रय के अलावा और कोई चारा नहीं।

शांतिकुंज के तत्वावधान में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के प्रायः पाँच लाख स्थायी ग्राहक है, पच्चीस लाख पाठक। इनमें से अधिकाँश समाज सेवी प्रकृति के है। इन सभी को लोकमंगल के प्रयत्नों में सहयोगी बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहता है। ऐसी आशा है कि उपरोक्त स्वास्थ्य संरक्षण योजना में अधिकाँश लोग उत्साहपूर्वक भाग लेंगे। एक मास का प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले, जड़ी-बड़ी उद्यान उगाने वाले स्थानीय स्तर पर भी स्वास्थ्य संरक्षण सत्र लगाने में नये उत्साह के साथ सम्मिलित होंगे एवं ऐसा क्रिया−कलाप गतिशील करेंगे जिससे लोक स्वास्थ्य की सुरक्षा एवं प्रगति उत्साहवर्धक मात्रा में हो सके।

प्रस्तुत योजना के पीछे दूरगामी सत्परिणाम उत्पन्न करने वाला एक टाौर भी लाभ जुड़ा हुआ है, जिसे सर्वतोमुखी प्रगति में असाधारण योगदान कर सकने वाला समझा जा सकता है। इस आधार पर घर-घर पहुँचने और जन-जन से संपर्क साधने का कार्यकर्ताओं को उत्साहवर्धक अवसर निरन्तर मिलता रहेगा। स्वास्थ्य समस्या हर घर में किसी न किसी रूप में बनी रहती है। कोई रोग मुक्त होना चाहता है तो कोई बलिष्ठ बनना चाहता है। कोई मनोविकारों से परेशान है ततो कोई भ्रान्तियों के कुहासे से घिरा अकारण ही रुग्ण बना रहता है। स्वास्थ्य परामर्श के आधार पर अधिक घनिष्ठता और सफलता हस्तगत हो सकती है। जन सहयोग के आधार पर बहुमूल्य सफलताएँ हस्तगत हो सकती है।

जिस प्रकार विश्व भर में फैले ईसाई चर्चा में पूजा आराधना के साथ-साथ चिकित्सा उपचार भी अनिवार्यतः जुड़ा रहता है एवं प्रचारक उस माध्यम से जन संपर्क साधते एवं निर्धारित कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न करते है। उसी प्रकार शाँतिकुँज देश भर में फैले कार्यकर्ताओं एवं जड़ी-बूटी उद्यानों के माध्यम से स्वास्थ्य संरक्षण अभियान चलाने जा रहा है। प्रस्तुत अभियान में राष्ट्र निर्माण की समग्र साधना का योजनाबद्ध समन्वय है।


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