निर्मल मन सो मोह अति भावा”

August 1988

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भगवान को निर्मलता अतिशय प्रिय है। इस सद्गुण से वे जिसे भी अनुप्राणित देखते हैं, उससे सामान्य स्तर का नहीं, वरन् असाधारण प्रेम करते हैं। भगवत् प्रेम की प्राप्ति के लिए अन्य आधार भी हो सकते हैं, पर उन सब में उत्कृष्ट वही है जो निर्मल मन वाला है।

निर्मलता से तात्पर्य है-मलिनता का निराकरण। मलिनता हमारे चारों और संव्याप्त है। उसका आक्रमण निरन्तर होता रहता है। भीतर से भी मलिनता उपजती रहती है। जन्म-जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कार तनिक सी अनुकूलता पाते ही उभरने लगते हैं। इस कार्य में शरीर भी पीछे नहीं। वह भी अनवरत मलों का निर्माण करता रहता है। मल, मूत्र, स्वेद, श्वास तथा अन्य छिद्रों से यह मैल सतत् बाहर निकलता रहता है। यदि किसी कारणवश मल बाहर निकलने से रुक जाय तो विग्रह खड़ा हो जाता है। मलों का निष्कासन वह उपचार है जिसके आधार पर निर्मलता का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।

जो बात मन के संबंध में है, वही शरीर के संबंध में भी लागू होती है। शरीर ही नहीं निवास और उपकरणों के संबंध में उन सबको बार-बार स्वच्छ करते रहने से ही काम चलता है। घर में बुहारी न लगाई जाय, बर्तनों को माँजा न जाय, रसोईघर आदि की विशेष सफाई का ध्यान न रखा जाय तो उनमें विषाक्तता, मलिनता, कुरूपता भरने लगती है।

कृमि कीटक पलने लगते हैं और उनके द्वारा की गई तोड़-फोड़ में अनेक प्रकार के विग्रह खड़े होते हैं। ऐसी स्थिति में घिरे हुए व्यक्ति को मनुष्य समुदाय में से भी कोई पसंद नहीं करते। उनसे बचने की चेष्टा करता है। तिरस्कार की दृष्टि से देखता है। माता कीचड़ में सने हुए बच्चे को तब गोदी में लेती, दूध पिलाती है जब उसकी गंदगी को धो पोंछकर साफ कर लेती है। यही बात भगवान के संबंध में भी है। जिसे मलिनता प्रिय है उसका परब्रह्म की पुनीत सत्ता के साथ संबंध नहीं जुड़ सकता।

स्वच्छता, सुरुचि का प्रतिनिधित्व करती है। उसे शालीनता का चिह्न भी कहा जा सकता है। सम्पन्न और सुसंस्कारिता का अनुपात जिसमें जितना बढ़ेगा, उसकी जानकारी इसी आधार पर मिलेगी कि उसने स्वच्छता को किस सीमा तक अपनाया।

व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में यह बात समान रूप से लागू होती है। अनगढ़ लोग ही मलिनता से लिपटे रहते हैं। उन्हें ही मैला कुचैलापन रास आता है। आलसी और घिनौने लोग ही शरीर, वस्त्र, घर, उपकरण में मलिनता जमने देना सहन करते हैं। सफाई के लिए उन्हें कोई उत्साह नहीं उभरता। ऐसे लोग दुर्गन्ध से घिरे रहते हैं। जिसके संपर्क में पैर बढ़ाना किसी सभ्य व्यक्ति को रास नहीं आता। ऐसे वातावरण से बच कर निकलने के लिए ही मन करता है। गंदे लोग स्वयं तो उस मलिनता के कारण उत्पन्न होने वाले संकटों में घिरते ही हैं। दूसरों को भी उस छूत के कारण अप्रसन्न करने का कारण बनते हैं। गंदगी की उपेक्षा करने वाले आलसी अपने सम्मान को दूसरों की आँखों में गिरा लेते हैं। उन्हें हेय दृष्टि से देखा और गये गुजरे स्तर का समझा जाता है। यह क्षति ऐसी है जिसके कारण ऐसे लोगों को प्रगति का अवसर ही नहीं मिलता। वे गई-गुजरी स्थिति में ही मौत के दिन पूरे करते रहते हैं। जहाँ जाते हैं वही घृणा, तिरस्कार और उपहास का कारण बनते हैं।

आध्यात्मिक जीवन के संबंध में भी यही बात है। मनोविकारों से ग्रसित व्यक्ति उस परोक्ष विकृति के कारण शरीर को भी बीमार बना लेते हैं और संतुलन सौजन्य गँवा बैठते हैं। मन में अशुभ तत्व, मलिनता भर चले तो वे अन्तरात्मा की आवाज दबाते हैं। उसकी खुराक को छीनकर खाते हैं। फलतः आत्म-ज्योति धूमिल हो जाती है। उसके प्रकाश में इतना दम नहीं रहता कि ठीक तरह मार्ग-दर्शन कर सके। फलतः दिग्भ्रान्त जैसी स्थिति बनती है। अन्तर्द्वन्द्व उठ खड़े होते हैं। विपरीत बुद्धि को सही गलत सूझता है और गलत को सही होने का आभास उभरता है।

आन्तरिक मलिनता उत्पन्न करने वाले विषाणु काम, क्रोध, मोह, मद मत्सर हैं। वे जहाँ भी एकत्रित होते हैं वहीं गंदगी के ढेर लगा देते हैं। अशुभ कल्पनाएँ उठती हैं, हेय योजनाएँ बनती रहती हैं।

मनः स्थिति के अनुरूप क्रिया−कलाप बन पड़ता है। वे यदि हेय स्तर के हैं जो अपनी प्रतिक्रिया संकटापन्न परिस्थितियों के रूप में उत्पन्न करेंगे। विपत्तियाँ बाहर से नहीं आती, वे भीतर से ही उभरती हैं। इस प्रकार सुस-पन्नता और प्रगति का आधार भी भीतर ही रहता है। कहा गया है कि आत्मा ही आत्मा का शत्रु और आत्मा ही आत्मा का मित्र है। उत्थान -पतन की अपनी ही जेब में है। मन को यदि धो लिया जाय तो सारा जगत निर्मल दृष्टिगोचर होगा। आँखों पर जिस रंग का चश्मा चढ़ा होता है उसी रंग का चश्मा चढ़ा होता है उसी रंग का दृश्य जगत प्रकट होता है। मन में मलिनताएँ भरी रहें तो उसके प्रभाव से अपने व्यक्तित्व का स्तर तो गिरता ही है साथ ही यह भी होता है कि निजी चुम्बकत्व के अनुरूप निकृष्ट स्तर का परिकर भी अपने ईद-गिर्द जमा हो जाता है। उस जमघट की परिणति उन प्रेत पिशाचों जैसी होती है जो मरघट में रहते हैं। डरते-डराते समय व्यतीत करते हैं। अपने विकास क्षेत्र को बीभत्स बना लेते हैं।

यह चयन अपनी सूझ-बूझ पर निर्भर है कि मलिनता का मार्ग चुनें निर्मलता को अपनायें। असावधानी आलस्य के रूप में विकसित होती है और दूरदर्शी विवेक को कुँठित बना कर रख देती है। ऐसी स्थिति में कीचड़ में समय गुजारने वाले कृमि कीटकों की तरह दिन गुजारने पड़ते हैं। बाहर न जनता में सम्मान, सहयोग मिलता है और न आत्मिक क्षेत्र में सुख-शाँति का माहौल बनता है।

स्वच्छता एक विभूति है, जिसकी प्रस्थापना जहाँ भी होती है वहीं उत्साह और उल्लास का प्रवाह बहने लगता है। इस वास्तविकता को अपने भौतिक संसाधनों के साथ सफाई की जड़ को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। स्वच्छता के पीछे शालीनता और सुसंस्कारिता की आभा झलकती दिखाई पड़ती है। मनुष्य सभ्य प्रतीत होता है। सुसज्जा के अनेकानेक कलात्मक साधनों में स्वच्छता अकेली ही अपना चमत्कार दिखा सकती है।

आत्मिक पवित्रा का तो कहना ही क्या? नहीं जीवन लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक आधार खड़ा करने में समर्थ है। इसी के सहारे स्वर्ग, मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति का परमानंद प्राप्त किया जा सकता है।


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