लोक मंगल हेतु सर्वस्व अर्पण

August 1988

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उस आरण्यक के अन्यान्य ऋषि अपनी व्यक्तिगत साधना में लगे रहते थे। स्वर्ग-मुक्ति उनका लक्ष्य था। पर विश्वामित्र के मन में तो जन-कल्याण ही भरा हुआ था। वे अपने को भूल चुके थे। त्याग मात्र साँसारिक सुखों का ही नहीं किया था वरन् आत्मिक उत्कर्ष की बात भी उन्हें जाँची नहीं। उन्हें परमार्थ ही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ प्रयोजन जँचा। किसी रास्ता चलते की सामयिक सहायता कर देने में भी उन्हें संतोष नहीं था। आकाँक्षा व्यापक थी और प्रबल भी। वे वातावरण को बदलना चाहते थे। पुराने अनुचित प्रचलनों को समाप्त करके वे नयायुग लाना चाहते थे।

उनकी यह योजना बनी तो, पर साधनों के अभाव में चल न सकी। बड़े कार्यों के लिए बड़े साधन भी चाहिए और सहयोग भी। पर उन दिनों विश्वामित्र के पास दोनों का ही अभाव था। यों तप-बल की विपुलता और योजना की समग्रता में कमी नहीं थी, पर साँसारिक प्रयोजनों के लिए साधन और सहयोग भी तो चाहिए।

विश्वामित्र की योजना और उसकी उपयोगिता के संबंध में चर्चा फैली। फैलते-फैलते वह राजा हरिश्चन्द्र के कानों तक पहुँची। वे भी ऐसे ही महान कार्य में अपना जीवन लगाने को उत्सुक थे। सोचा एकाकी ऋषि भी कुछ कर नहीं पर रहे हैं। फिर मैं कैसे कर पाऊँगा? साधन और संयोजन का सुयोग बैठने पर ही वह योजना पूरी हो सकनी संभव है, जो ऋषि ने बना रखी है। मेरे पास साधन भी है, जिनका उनके पास अभाव है। हम लोग मिल जुलकर काम क्यों न करें?

दो धाराएँ एक साथ मिली और गंगा यमुना का सम्मिलन एक नया सुयोग बनकर विकसित हुआ। दोनों ने एक दूसरे के साथ गठबंधन किया और दो पहियों की गाड़ी अपने रास्ते पर चल पड़ी। अंधे-पंगे द्वारा मिलकर नदी पार कर लेने की उक्ति चरितार्थ होने लगी।

हरिश्चन्द्र ने अपना राज्य ऋषि विश्वामित्र को सौंप दिया। ऋषि की विशाल युग निर्माण योजना गति पकड़ने लगी और सफलता के निकट तक जा पहुँची। किंतु अंतिम दिनों में साधनों की और अधिक आवश्यकता पड़ गई। जगह-जगह माँगने जाने में विलम्ब लगता था। एक व्यक्ति से साधन मिल पाते तो अधिक सुगमता रहती। विचार हरिश्चन्द्र तक पहुँचे। वे राज्यकोष तो पहले ही ऋषि को सौंप चुके थे। अब उनके पास अपना शरीर ही शेष था। सोचा उसे ही एक मुश्त बेचकर ऋषि की आवश्यकता पूरी क्यों न की जाय? अवसर न चूकने की बात राजा के मन में आई और शरीर बेचने की योजना ऋषि को बताई। इतना त्याग करने की साहसिकता देखकर ऋषि की छाती गर्व से फूल उठी। उनके जीवन दान की बात जब प्रकट हुई तो उनकी स्त्री तथा बच्चे ने भी उसी साहसिकता का परिचय दिया वे भी बिकने को तैयार हो गए।

हरिश्चन्द्र एक श्मशान व्यवस्थापक के हाथों बिक गए। स्त्री तथा बच्चे को एक ब्राह्मण ने खरीद लिया। मिली राशि के आधार पर ऋषि का रुका हुआ प्रयोजन फिर से चल पड़ा।

उदारता अपनाना कठिन है, पर उससे भी अधिक कठिन है-लोभ और मोह पर विजय प्राप्त करना वैसा अवसर भी हरिश्चन्द्र के इकलौते पुत्र रोहिताश्व को सर्प ने डस लिया। रोहित की मृत्यु हो गयी। रानी लाश लेकर मरघट पहुँची। गंगा का यह वही घाट था जिस पर हरिश्चन्द्र पहरा देने के लिए नियुक्त थे। राजा को पुत्र मृत्यु दुःख तो बहुत हुआ पर वे कर्त्तव्य से बँधे थे। बिना कर लिए अन्त्येष्टि उस स्थान पर नहीं होने दे सकते थे। पत्नी और पुत्र के प्रति उनका लगाव तो बहुत था, पर कर्त्तव्य की अवहेलना कैसे की जाए? लाश जलाने की व्यवस्था न बन पड़ी। उनकी पत्नी शैव्या का रुदन एवं हरिश्चन्द्र की कर्तव्यनिष्ठा देखकर विश्वामित्र वहाँ प्रकट हुए और अपना प्रयोजन पूरा हुआ बताकर राज्य भी लौटा दिया, पुत्र के प्राण भी।

परमार्थ प्रयोजनों के लिए उदारता और कर्तव्यनिष्ठा की दुहरी परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर हरिश्चन्द्र महामानवों की श्रेणी में गिने गए। उनकी कथा-गाथा अभी भी गायी जाती है। उनके जीवन प्रसंग को सुनकर गाँधी जैसे महामानव उत्पन्न हुए और होते रहेंगे।


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