सामर्थ्य-सम्पदा से भरा पूरा मानवी अन्तराल

August 1988

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अदृश्य सूक्ष्म शक्तियों का ज्ञान न होने से मनुष्य उनका लाभ नहीं उठा पाता। शरीर बल, बुद्धि, बल तथा अन्यान्य भौतिक सम्पदाएँ जो प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती हैं, प्रायः उन्हें ही करतलगत करने का प्रयास किया जाता है। शरीर और उससे जुड़ी इन्द्रियों की बनावट ही ऐसी है कि मनुष्य दृश्य अथवा प्रत्यक्ष लाभ देने वाले घटकों को ही अधिक महत्व देता है। फलतः उनसे सीमित ही लाभ उठा पाता है। इतने पर भी प्रकृति एवं चेतना से समन्वित सर्वांगपूर्ण काय संरचना में सन्निहित सूक्ष्म शक्ति स्रोतों का महत्व कम नहीं हो जाता। उनकी गरिमा एवं सामर्थ्य यथावत् है।

शरीर एवं बुद्धि की तुलना में मन अधिक सूक्ष्म, विलक्षण एवं सामर्थ्यवान् है। जीवन पर प्रमुख रूप से यही छाया रहता है। इसी कारण मनः संस्थान को मनुष्य के व्यक्तित्व का सबसे महत्वपूर्ण घटक माना गया है। पर उसकी क्षमता का विकास बिरले कर पाते तथा बिरले ही उससे लाभ उठा पाते है। व्यक्तित्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं समर्थ घटक उच्चचेतन मन के उपेक्षित पड़े रहने से ही अधिकाँश व्यक्तियों का जीवन व्यर्थ भटकाव में व्यतीत होता है। शरीर एवं बुद्धि से समर्थ होते हुए भी वे अपने जीवन को सही दिशा एवं प्रेरणा देने में प्रायः असमर्थ सिद्ध होते हैं।

भारतीय ऋषियों की पहुँच प्रकृति एवं चेतना की गहन परतों तक थी। उन्होंने भौतिक जगत एवं उससे जुड़े उपादानों को उतना ही महत्व दिया जितना कि शरीर व्यापार को गतिशील रखने के लिए आवश्यक था। शरीर और बुद्धि का मन न केवल संचालक है, वरन् मनुष्य के उत्थान-पतन का कारण भी है, यह वे भली-भाँति जानते थे। तभी उनका यह उद्घोष था- “जीव के बन्धन और मोक्ष के विद्यान में मन ही प्रधान कारण है।” यदि उसका सुधार, सम्भाल एवं विकास कर लिया जाए तथा उसकी शक्ति को जीवन लक्ष्य की दिशा में नियोजित कर लिया जाए तो मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव न रह जाए। यही कारण था कि उनकी अधिकाँश चेष्टाएँ-जप, तप की प्रक्रियाएँ मानसिक परिष्कार, शोधन, अभिवर्धन एवं विकास के लिए चला करती थीं। अतिमानवी शक्तियों का प्राकट्य भी उस युग में इसी कारण संभव हो सका था।

मनःशास्त्री भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि व्यक्तित्व की उत्कृष्टता-निकृष्टता का केन्द्र बिन्दु मानसिक चेतना के गहन अन्तराल में सन्निहित है। मनः संस्थान की इस सबसे गहरी अन्तिम परत को उन्होंने ‘सुपरचेतन’ कहा है। सुपर इसलिए कि उसकी मूल प्रवृत्ति मात्र उत्कृष्टता से ही भरपूर है। उसे यदि अपने वास्तविक रूप में रहने दिया जाय-अवाँछनीयताओं के घेरे में जकड़ा न जाए तो वहाँ से अनायास ही ऊँचे उठने-आगे बढ़ने की ऐसी प्रेरणाएँ मिलेगी। जिन्हें आदर्शवादी या उच्चस्तरीय ही देखा जा सके। प्रकारान्तर से ‘सुपरचेतन’ को ईश्वर के समतुल्य ही माना जा सकता है। वेदान्त में जिसे परिष्कृत अन्तःकरण माना जाता है उसी को विज्ञान की भाषा में “सुपरचेतन” कहते हैं।

मनोविज्ञान के अनुसार मानव मन के तीन स्तर होते हैं जिन्हें क्रमशः अचेतन मन-अनकान्शस माइन्ड, अवचेतन मन-सबकान्शस माइण्ड तथा चैतन्य मन-कान्शस माइण्ड के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इससे आगे उच्चस्तरीय विकसित परत को अतिचेतन सुपर कान्शस या सुपर माइण्ड कहा जाता है। अचेतन से अवचेतन और अवचेतन से चेतन मन को प्रेरणा और प्रकाश मिलता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि कारण से सूक्ष्म शरीर और सूक्ष्म से स्थूल शरीर प्रेरित होता तथा प्राण ऊर्जा प्राप्त करता है।

महर्षि अरविंद के अनुसार सुपर चेतन उच्चतम कोटि की आध्यात्मिक चेतना है। उनका कहना है कि उच्चतर मन, प्रकाशित मन, संबुद्ध मन और ओवर माइण्ड से भी ऊपर सुपर माइण्ड का स्तर है। यह मन का ऐसा उच्चतम सोपान है जिसका उपयोग अभी तक विरले लोग ही कर सके हैं। बुद्धि के धरातल से ऊपर उठकर मन के उच्चतम सोपान अतिमन पर पहुँच कर ही मनुष्य सर्वज्ञ बन सकता है।

वस्तुतः सूक्ष्मातिसूक्ष्म कहे जाने वाले मन का अस्तित्व अब मात्र कोरी कल्पना नहीं रहा गया है। रॉकफेलर यूनिवर्सिटी, न्यूयार्क के प्रख्यात न्यूरोसाइंटिस्ट जोनाथन विन्सन ने कई वर्षों के लगातार अथक प्रयास और श्रम साध्य अनुसंधान करने के पश्चात् मानव मस्तिष्क में मन के निवास स्थान को खोज निकालने में सफलता पाई है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “ब्रेन एण्ड साइक” में लिखा है कि मन का निवास स्थान “लिम्बिक सिस्टम” के भीतर होता है। यह तंत्र ही मन का प्रधान कार्यालय है, जो यह निर्णय करता है कि किन स्मृतियों, घटनाओं, आँकड़ों तथा किन बातों को सुरक्षित रखना है और किन्हें विस्मृति के गर्त में धकेलना है। उनके अनुसार अचेतन की परत मन के हृदय केन्द्र में स्थित होती है। यह मानसिक अनुभवों को अपने अंदर संकलित-संग्रहित करता रहता है और अपनी अभिव्यक्ति योजनाबद्ध तरीके से समयानुसार साँकेतिक भाषा में प्रकट करता रहता है। विन्सन का कहना है कि अचेतन से भी असंख्य गुनी उच्चस्तरीय संभावनाओं से भरा पूरा-सुपर चेतन है। उसको नये सिरे से समझा-खोजा और उसके अभ्युदय का अभिनव प्रयास किया जाना चाहिए।

मनोविज्ञानी, नीतिशास्त्री, तत्व विज्ञानी, समाज शास्त्री आदि सभी इस मिले जुले निष्कर्ष पर पहुँच रहे हैं कि पतन पराभव से छूटने और वरिष्ठता, उत्कृष्टता उपलब्ध करने के लिए अतिमन की-सुपर चेतन की उच्च स्तरीय परतें खोजी कुरेदी जानी चाहिए। पैरासाइकोलॉजी, सुपर साइकोलॉजी, मैटाफिजिक्स आदि माध्यमों से पिछले दिनों अचेतन की महत्ता बखानी जाती रही है और जगाने उभारने के लिए तरह-तरह के प्रयोग परीक्षणों की चर्चा होती रही है। दूर दर्शन, दूर श्रवण, विचार संप्रेषण, प्राण प्रत्यावर्तन, भविष्य ज्ञान जैसे कितने ही कला-कौशल इस संदर्भ में खोजे और परखे गये हैं। इस दिशा में प्रयास चालू रखते हुए भी मूर्धन्य स्तर के मनीषी इस बात पर जोर दे रहे हैं कि चेतना के उस उच्चतर परत की कुरेदबीन की जानी चाहिए, जिस क्षेत्र की उपलब्धियाँ व्यक्ति और समाज में उच्चस्तरीय परम्पराओं का समावेश और नये युग का नया सूत्रपात कर सकने में समर्थ हो सकती है।

प्रख्यात मनः शास्त्री काँलिन विलसन का कहना है कि मन की परतों को समझने में कुछ गलती हुई है। दृश्य पक्ष चेतन के क्रिया-कलापों के रूप में सामने आता है, जो बहिर्मुखी इन्द्रियों का प्रायः पक्षधर रहता है। इन्द्रियों की रुझान उपभोग में होती है। वह चेतन मन को भी अपने अनुरूप खींचती है। फ्रायड ने यह देख कर ही प्रतिपादित किया था कि मनुष्य अन्य पशुओं की तरह मूल प्रवृत्तियों का गुलाम तथा इन्द्रियों का दास है। पर विलसन का मत है कि अदृश्य पक्ष अचेतन तथा सुपर चेतन की चमत्कारी सामर्थ्य से अपरिचित होने तथा उपयोग में न आने के कारण ही ऐसा सोचा जाता है। बोध हो सके तो मनुष्य अपनी हर विकृत इच्छा, आकाँक्षा तथा उनसे संचालित होने वाले अवाँछनीय क्रिया कलापों पर नियंत्रण स्थापित कर सकता है।

प्रचलित फ्रायडवादी मनोविज्ञान से अलग सुपर साइकोलॉजी का प्रतिपादन करने वालों में अमरीकी मनोवैज्ञानिक अब्राहम मैस्लो का नाम प्रमुख है। उनका मत है कि मनुष्य के अन्तराल में सुपर चेतन केन्द्र का अस्तित्व विद्यमान है जो प्रसुप्त पड़ा है। इस प्रसुप्ति का कारण है उस केन्द्र से उठने वाली दिव्य प्रेरणाओं की उपेक्षा। इस केन्द्र से दिव्य प्रेरणाएँ कभी न कभी उभरती हैं, पर अचेतन का अभ्यस्त स्वभाव उन्हें दबा देता तथा व्यवहार में आने से रोक देता है। यदि उन्हें सुना और तद्नुरूप क्रिया-कलाप अपनाया जा सके तो मनुष्य अपनी सामर्थ्य को कई गुना बढ़ा सकता है। मैस्लो से ही मिलता जुलता प्रतिपादन प्रसिद्ध विद्वान मित्या करागाजोव का भी है। उनके अनुसार श्रेष्ठता की भावना का उद्भव ही मानवी विकास का सही अर्थों में कारण बनता है। ऐसी संभावनाएँ सुपरचेतन से समय-समय पर निस्सृत होती रहती हैं जिसे अधिकाँश व्यक्ति प्रायः अनसुनी कर देते हैं। फलतः व्यक्तित्व विकास की संभावनाएँ धूमिल पड़ी रहती हैं।

“साइकोलॉजी ऑफ इंट्यूशन” नामक अपनी पुस्तक में एमिली मारकाल्ट ने कहा है कि उच्च चेतन मन शरीर एवं व्यक्तित्व का अतिसूक्ष्म एवं उच्चस्तरीय भाग है। ज्ञानेन्द्रियों और तर्क बुद्धि से जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं उससे भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण समाधान सुपर चेतन मन की सहायता से मिल सकता है। इस तंत्र को उजागर कर लेने का अर्थ है एक ऐसे देवता का साथ पा लेना जो उपयोगी सलाह ही नहीं देता वरन् महत्वपूर्ण सहायता भी करता है।

प्रख्यात मनोविश्लेषक जुँग कहते हैं कि मात्र अचेतन ही सब कुछ नहीं हैं, वरन् इससे भी आगे की परत ‘उच्चचेतन’ का भी अलग अस्तित्व है। आदर्शवादी प्रेरणाएँ एवं उमंगे वहीं से उठती है। अचेतन तो अभ्यस्त आदतों का संग्रह-समुच्चय भर है। वे बुद्धि एवं साहसिकता से भी अधिक अग्रणी संकल्प शक्ति का गुणगान करते हैं और कहते हैं कि व्यक्तित्व को विनिर्मित करने में मनुष्य के विश्वासों का ही प्रमुख योगदान रहता है।

एडलर के मतानुसार-अचेतन की सुदृढ़ता देखते हुए उसके सुधार संदर्भ में किसी को निराश नहीं होना चाहिए। स्वसंचित संकल्प, आत्म विश्वास और आदर्शों के प्रति आस्थावान बनने से उन मूल प्रवृत्तियों में भी परिवर्तन कर सकना संभव है जिन्हें चिरसंचित, दुराग्रही एवं अपरिवर्तनशील माना जाता है।

मनः शास्त्री विलियम मैकडूगल कहते हैं कि-अचेतन से भी ऊँची परत ‘अतिचेतन’ या ‘उच्च चेतन’ की अभी जानकारी भर मिली है। अगले दिनों उसे अच्छी तरह जाना समझा जा सकेगा और यह कहा जायगा कि सामान्य जीवन क्रम का सूत्र संचालन करने वाले अचेतन की कुँजी इस ‘अतिचेतन’ के पास ही है। अगले दिनों जब उच्च चेतन का स्वरूप और उपयोग ठीक प्रकार समझा जा सकेगा तब व्यक्तित्वों में क्राँतिकारी परिवर्तनों के सम्बन्ध में वैसी कठिनाई रहेगी जैसी आज है।”

मानवी अन्तराल में सन्निहित उच्च चेतना की महत्ता एवं उसकी महान संभावनाओं का प्रतिपादन विभिन्न मनीषियों ने अपने-अपने ढँग से किया है। जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे ने घोषणा की थी कि “स्वयं से परे हट कर स्वयं को देखना ही वस्तुतः सही ज्ञान की प्राप्ति है।” पर क्या यह संभव है? क्या हम स्वयं को अपने शरीर चिन्तन की परिधि से निकाल बाहर कर सकते हैं? जो शान्त चुपचाप खड़ा हो हमारी हर गतिविधि- हर परिस्थिति का अवलोकन करता रहे? वस्तुतः यह क्षमता हमारे भीतर है- जिसे हम ‘सुपरमाइन्ड’ कहते हैं जो एक लाइट हाउस की तरह दूर-दूर तक अपनी घुमावदार किरणें छोड़ता रहता है, पर स्वयं शान्त बिना विचलित हुए खड़ा रहता है।

दार्शनिक हेनरी वर्सो का कथन है कि- समय की जटिलताओं को न सुविधा संवर्धन से सुलझाया जाय और न दाँव पेंच से। प्रवीण बुद्धि कौशल ही पतन पराभव का निराकरण कर सकेगा। प्रस्तुत जटिलताओं और विभीषिकाओं का समाधान पाने के लिए उस ‘महाप्रज्ञा’ को जगाने की आवश्यकता है जो अन्तःकरण की गहराई में बसती है और ईश्वरीय प्रेरणाओं से मनुष्य को अवगत कराती है।

“मैन द अननोन” और “रिफ्लेक्शन ऑफ लाइफ” के नोबुल पुरस्कार प्राप्त लेखक अलेक्सिस कैरेल ने कई स्थानों पर एक ही बात को दुहराया है कि प्रकृति के दोहन से भी बड़ा संसाधनों का क्षेत्र अन्तःकरण की गरिमा उभारने का है। उस उपेक्षित क्षेत्र को नये सिरे से समझा एवं समुन्नत बनाया जाना चाहिए। विचार बुद्धि की उपयोगिता कितनी ही क्यों न हो पर वह रहेगी सीमित ही। मनुष्य के उच्च चेतन का विकास होने पर ही समस्याओं के समाधान और अभ्युदय उत्थान का आधार खड़ा होगा। विश्व मनीषा को अपना ध्यान एक ही केन्द्र पर एकत्रित करना चाहिए कि मनुष्य को सहृदय बनाने के लिए उसकी प्रसुप्त उच्च चेतना को किस प्रकार जागृत किया जाय?

“ह्वाट मैक्स ए लाइफ सिग्नीफिकेण्ट” पुस्तक में सुप्रसिद्ध मनःशास्त्री विलियम मोक्स ने मनुष्य की सुपर चेतन परतों पर प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि मनुष्य के भीतर अतिमानवी सामर्थ्य विद्यमान है जिन्हें करतलगत कर सकना संभव है। इसका आरंभिक क्रियात्मक चरण है .... की गतिविधियों को उलटने तथा सूझ-बूझ से भरी दूरदर्शितायुक्त महानता के मार्ग का अवलम्बन करने के लिए संकल्पों को परिपुष्ट तथा दृढ़ करना। इच्छा शक्ति-संकल्प शक्ति की प्रबलता पशुवत् अभ्यस्त स्वभावों से छुटकारा पाने तथा आत्म विजय प्राप्त करने का प्रमुख आधार है। इसका सम्पादन तथा अभिवर्धन निरन्तर के अभ्यास से ही संभव है।

बाह्य परिस्थितियों एवं बुद्धि वैभव को ही सब कुछ मानने की अपेक्षा भीतर झाँका जा सके तो मालूम होगा कि कितनी ही प्रकार की सूक्ष्म शक्तियाँ अपने ही अन्दर मौजूद हैं जिनका प्रायः सदुपयोग नहीं हो पाता। आत्मविस्मृति के कारण इच्छाओं, आकाँक्षाओं का सुनियोजन नहीं हो पाता। वे मात्र सामान्य प्रयोजन पूरा करने तक रह जाती हैं। सुपर चेतन की दिव्य प्रेरणाओं के अनुरूप उन्हें गतिशील किया जा सके तो महानता को वरण कर सकना हर व्यक्ति के लिए सुगम हो सकता है।


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