तीन शरीरों के विकास परिष्कार के लिए यों अनेकों साधनाएँ प्रचलित है। पर उनका वर्गीकरण किया जाय तो सभी को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। जप, ध्यान और प्राणायाम। इन्हीं त्रिविध आधारों के भेद-उपभेद अनेकानेक साधनाओं का स्वरूप विनिर्मित करते है। उन्हें समेटा-सिकोड़ा जाय तो फिर वे तीन में सिकोड़ा भी जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई ऐसा प्रयोग नहीं है जिसे इस परिधि से बाहर किया जा सके।
जप में किसी मंत्र विशेष की अनवरत रट लगाई जाती है। पुनरावर्तन एक गतिचक्र विनिर्मित करता है। उसमें अपने प्रकार की विशेष शक्ति होती है। ब्रह्मांड के ग्रह नक्षत्र अपनी कक्षा में अनवरत भ्रमण करते है। उसी घुमाव परिभ्रमण से वह चुम्बकत्व उत्पन्न होता है जिसके सहारे स्वयं भी अपनी कक्षा में सुस्थिर बने रहते है और अपने संपर्क क्षेत्र के अन्यान्य ग्रह पिंडों को भी जकड़े रहते है। यदि यह परिभ्रमण क्रिया बन्द हो जाय तो उसका परिणाम बिखराव के रूप में ही होगा। यों शरीर के मूल घटक यह प्रक्रिया अपनाये रहते है। पर उसमें तीव्रता-तालबद्धता और सुव्यवस्था लाने के लिए जप की शब्द प्रक्रिया एक विशेष भूमिका निभाती है। पुनरावर्तन कालान्तर में स्वभाव का अंग बन जाता है और बिना प्रयास के ही अपनी धुरी पर परिभ्रमण करने लगता है। पत्थर से उपकरण को घिस-घिस कर ही धारदार और चमकीला बनाया जाता है।
स्थूल शरीर का केन्द्र नाभिचक्र माना गया है पर उसका प्रभाव क्षेत्र अधोभाग की दशा में एक बड़ी परिधि तक फैला हुआ है। मूलाधार और स्वाधिष्ठान चक्रों वाला मेरुदंड भाग इसी का प्रभाव क्षेत्र समझा जाता है। विशेषतया जननेन्द्रिय मूल और सुषुम्ना का अन्तिम छोर नाभिचक्र से प्रभावित होता है। कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया पूरी तरह इसी परिकर से संबद्ध है। कुण्डलिनी स्थूल शरीर की बीज शक्ति है जो जननेन्द्रिय मूल से उठकर मेरुदंड का देवयान मार्ग पार करती हुई मस्तिष्क के मध्य वाले ब्रह्मरंध्र सहस्रार कमल तक पहुँचती है और आज्ञाचक्र द्वारा बाहर निकलकर संपर्क क्षेत्र को अपनी विद्युत शक्ति से प्रभावित करती है।
जप के साथ-साथ पूजन अर्जन वाली प्रक्रिया भी जुड़ी हुई है। उनके माध्यम से आत्म परिष्कार का प्रशिक्षण क्रम चलता है। चंदन, अक्षत, धूप-दीप, नैवेद्य-जल आदि को सद्गुणों में से एक-एक का प्रतीक मानकर अपने आप को यह सिखाया समझाया जाता है कि सर्वतोमुखी शालीनता की अवधारणा, अभिवृद्धि किस प्रकार की जानी चाहिए। मंत्र जप के साथ इष्ट देव की छाँव को सम्मुख रखना होता है और उस पर श्रद्धा समर्पण का आरोपण करते हुए अपने क्रिया–कलापों में आदर्शवादिता का बढ़ा-चढ़ा समावेश करने की मनःस्थिति बनानी पड़ती हे। उसे उस स्तर तक बढ़ाना पड़ता है ताकि व्यावहारिक जीवन में उसका कार्यान्वयन भी हो सके। इस समस्त पक्षों के समन्वय से स्थूल शरीर में उत्कर्ष अभ्युदय बन पड़ने की सम्भावना परिपक्व होती है।
नाभिचक्र में कमल पुष्प का ध्यान करना पड़ता है जिसमें उसकी प्रत्येक पंखुड़ी उस क्षेत्र की अगणित दिव्य शक्तियों का प्रतीक बन कर निरन्तर विकसित होती रहे और समग्र रूप में विकसित शोभायमान कमल का रूप प्रस्तुत कर सके।
इसका शरीर सूक्ष्म शरीर है जिसे एक शब्द में मानसिक संस्थान कह सकते हैं। कल्पना, विचारणा, निर्धारणा इसी के अंग है। तर्क वितर्क इसी में उठते है। शिक्षण, अनुभव, स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन-मनन आदि उपायों के द्वारा व्यावहारिक रूप में इसे विकसित किया जाता है। बुद्धिमान, विद्वान, कुशल, पारंगत, समुन्नत बनने का अवसर इसी क्षेत्र के परिसर में बन पड़ता है।
मनःक्षेत्र को विकसित करने के लिए प्राण प्रवाह का अवलम्बन लेना पड़ता है। प्राण एक ऐसी विद्युत शक्ति है और वायु के साथ घुली रहती है। इसे संकल्प शक्ति से खींचा और धारण किया जाता है। साधारणतया साँस चलती रहती है। उसके साथ जीवनोपयोगी ऊर्जा प्रदान करने वाली आक्सीजन भी समुचित मात्रा में घुलती रहती है। गहरी साँस लेना इसी दृष्टि से आवश्यक माना गया है कि आक्सीजन की समुचित मात्रा फेफड़ों से लेकर छोटे-छोटे सभी घटकों को आवश्यक ऊर्जा मिल सके। साथ ही भीतरी क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली गंदगी की सफाई भी होती रहे। गहरी साँस लेना छोड़ना एक स्वसंचालित व्यायाम है। इसे अपनाया तो जाना चाहिए पर इतना ही सूक्ष्म शरीर के परिष्कार के लिए पर्याप्त नहीं है।
प्राणायाम में संकल्प भरी इच्छा शक्ति का समुचित प्रयोग होता है। भावना करनी पड़ती है कि ब्रह्माण्डव्यापी प्राण तत्व साँस के साथ खिंचता चला आता है और नाम द्वारा प्रवेश करके स्थूल शरीर में ही नहीं सूक्ष्म शरीर के अदृश्य प्रकोष्ठों में भी भर जाता है। इस प्रकार की संकल्प युक्त साँस खींचने की प्रक्रिया जितनी लम्बी हो सके करनी चाहिए। इसके बाद साँस रोकने का कुँभक आता है। इसे खींचने में जितना समय लगा था उससे आधा समय ही रोकने को कुंभक में लगाना चाहिए। साथ ही अवधारणा करनी चाहिए कि साँस में धुला हुआ जो प्राण तत्व कण-कण में भरा है वह नव जीवन प्रदान कर रहा है।
अवधारणा के समय मस्तिष्क क्षेत्र के अन्तराल का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए उसमें सद्प्रवृत्तियां और सद्विचारणाएँ अतीन्द्रिय क्षमताएँ प्रसुप्त स्थिति में छिपी पड़ी रहती है। प्राणायाम द्वारा खींचा गया प्राण उन्हें झकझोरता और प्रसुप्ति से जाग्रत स्थिति में लाता है। संतुलन, उत्साह, विवेक, इस आधार पर सरलतापूर्वक उभारा जा रहा है और जो अवाँछनीय तत्व सूक्ष्म शरीर के किसी क्षेत्र में जम गये है उन्हें प्राण युक्त साँस छोड़ने को रेचक प्रक्रिया द्वारा बाहर निकाला जा सकता है।
सूक्ष्म शरीर का प्रतिनिधि केन्द्र हृदय चक्र माना गया है। साधारण स्थिति में वह मूँदी हुई कला जैसा रहता है पर प्राण की ऊर्जा एवं प्रातःकालीन उदीयमान सूर्य सविता के ध्यान द्वारा उसे खिले कमल की स्थिति में लाया जाय। इसकी पंखुड़ियाँ मानसिक विशेषताओं की कुंजियां है। हृदय जब खिलता है तो उससे सम्बन्धित मानसिक विशेषताएँ भी उभर पड़ती है। साधक के अधिक प्राणवान होने की संभावना बढ़ती है।
तीनों शरीरों के जागरण उन्नयन का क्रम एक साथ चलता है। एक-एक करके अलग-अलग समयों में पृथक्-पृथक् विकास की परम्परा नहीं है। शरीर के सभी अंगों का साथ-साथ विकास होता हैं ऐसा नहीं कि पहले हाथ पुष्ट करले इसके बाद पैर को संभालेंगे। स्कूलों में, छात्रों में, भाषा, गणित, भूगोल, इतिहास आदि की पुस्तकें एक ही समय में क्रमपूर्वक चलानी पड़ती है। ऐसा नहीं होता कि पहले भाषा पढ़ ले, पीछे गणित, व्याकरण। इसी प्रकार तीनों शरीरों का उन्नयन क्रम विविध चक्रों को प्रस्फुटित करने की प्रक्रिया के साथ चलना पड़ता है। साधनाक्रम में तीनों का समावेश साथ-साथ किन्तु क्रमिक रूप से करना पड़ता है। इस समग्र साधन को ग्रंथिभेद कहते है। इसमें नाभि, हृदय और ब्रह्मरंध्र के अतिरिक्त तीनों कमलों की मुंदी हुई प्रसुप्त स्थिति में उबारकर जाग्रति में परिणत करना होता है। मुँदी कलियों को खिले हुए कमलों के स्तर तक पहुँचाना होता है। इसके लिए प्रातः कालीन सूर्य सविता की ऊर्जा को ध्यान धारणा द्वारा तीनों शरीरों में उनके प्रतीक केन्द्रों में ओत−प्रोत करना होता है।
तीसरा कारण शरीर भाव शरीर कहलाता है इसमें आस्थाएँ, मान्यताएँ आकाँक्षाएँ, संवेदनाएँ निवास करती है। इस सभी को आदर्श की दिशा में धकेलना पड़ता है और मैत्री करुणा मुदिता के स्तर पर सेवा साधना में नियोजित करना होता है। पुण्य परमार्थ की ओर बढ़ चलने के लिए प्रोत्साहित करने वाली योजना एवं क्रिया-प्रक्रिया में नियोजित करना होता है। उसे संयम और उदारता का समन्वय भी कह सकते है।
मस्तिष्क, मध्य, जिसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार कमल कहते है। यही कारण शरीर के संवेदन परिकर का मध्य केन्द्र है। यहाँ भी मुँदी कली की स्थिति रहती है। इसे ध्यानयोग द्वारा कमल पुष्प की तरह खिलाया जाता है। पूर्व दिशा में प्रातःकालीन स्वर्णिम सूर्य का ध्यान इस समूचे प्रयोग के लिए आधारभूत अवलम्बन है। उदीयमान सूर्य को एक सेकेंड खुली आँख देखने के उपरान्त उसी दृश्य की ध्यान धारणा प्रायः दस पन्द्रह सेकेंड तक आंखें बंद करके करनी होती है। जब अनुभूति झीनी होने लगे तो फिर आँख खोलकर एक सेकेंड उदीयमान सूर्य को देखा जा सकता है और पुनः आँखें बंद करके उसी दृश्य की अनुभूति की क्रिया दुहरायी जा सकती है। सूर्य के प्रत्यक्ष दर्शन का उपरोक्त क्रम अधिक से अधिक एक सप्ताह चलाना चाहिए और वह अवधि पन्द्रह मिनट से अधिक नहीं होनी चाहिए। क्योंकि जैसे-जैसे सूर्य के प्रकाश में तीव्रता आती जाती है वैसे-वैसे वह खुली आँखों से देखने जैसी स्थिति में नहीं रहता। विकसित सूर्य को देखने पर आँखों को हानि पहुँचती है। उदीयमान को भी देर तक नहीं देखना चाहिए। यह प्रयोग आरंभिक अभ्यास के लिए है। प्रायः एक सप्ताह में ऐसी स्थिति बन जाती है कि बिना प्रत्यक्ष दर्शन के ही भावनात्मक ध्यान द्वारा भी सविता देव का दिव्य दर्शन होने लगे। इस आलोक को नाभिचक्र हृदयचक्र और ब्रह्मचक्र में अपनी आभा को प्रवेश कराते हुए अनुभव करना चाहिए।