कारण शरीर की विशिष्टता-भाव श्रद्धा

August 1988

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आदर्शवादी भाव संवेदनों का उद्गम अन्तःकरण है जिसे कारण शरीर भी कहते है। प्राणिवर्ग में जो तुच्छ स्तर के हैं उनका केवल शरीर पौरुष ही गतिशील रहता है। जो इससे अधिक विकसित हैं, उनका मन मस्तिष्क और युद्ध कौशल भी एक सीमा तक काम करने लगता है। कारण शरीर समस्त प्राणि समुदाय में से किसी का भी विकसित और सक्षम नहीं होता है। अकेला मनुष्य ही है जो चेतना क्षेत्र में विकास कर सका है। उसकी अविकसित स्थिति तो नर-वानरों जैसी ही होती है पर जैसे-जैसे मानवी गरिमा की परत खुलती जाती है वैसे-वैसे उसकी भाव संवेदना जगती है। आस्थाओं में परिपक्वता आती है और श्रद्धा का उत्कृष्टता अपनाने के लिए ऐसा प्रयास चल पड़ता है जिसे आत्मिक क्षेत्र का उत्कर्ष एवं अभ्युदय कहा जा सके। वस्तुतः मानवी गरिमा का शुभारंभ यहीं से होता है।

आत्मिक प्रगति का एक ही लक्षण है आदर्श के मार्ग पर चलते को धकेल सकने जैसी क्षमता से सम्पन्न भाव संवेदना का उभरना। यह उभार वस्तुतः मानवी गरिमा का उन्नयन है। डंठल, डाली पत्ते जब सभी परिपक्व हो जाते हैं तो कमल पुष्प खिलता है। पौधा जब तक कच्चा रहे तब तक उस पर सुविकसित पुष्प नहीं खिलता। इस प्रकार शरीरगत संयम और बुद्धिगत चिन्तन, मनन की परिपक्वता ही कारण शरीर को विकसित करती और मनुष्य को इस स्तर तक पहुँचाती है कि वह सद्भाव का श्रद्धा की सुविकसित स्थिति का अनुभव कर सके। यह श्रद्धा ही है जो अन्तराल को परमात्म सत्ता के साथ जुड़ सकने की परिस्थिति पैदा करती है।

श्रद्धा विहीन व्यक्ति साधनों से, दक्षताओं से, बौद्धिक विलक्षणताओं से कितना ही सुसज्जित क्यों न हो उसके अन्तराल की गहराई में श्रद्धा के अंकुर नहीं उग पाते। इस अभाव के रहते उस भूमिका में प्रवेश कर सकना बन नहीं पड़ता जिसे आदर्शवादी भाव संवेदना कहते हैं। करुणा की अनुभूति होती है। आत्मीयता विकसित होती है। महानता का मार्ग अपनाने के लिए उमंग उठती है। मनुष्य में देवत्व का उदय यही है। उसे अपनी आत्मा में सबकी आत्मा और सबकी आत्मा में अपनी आत्मा परिलक्षित होती है। विराट् विश्व के कण-कण में प्रभुसत्ता की उपस्थिति विद्यमान लगती है। जिस लोक में भगवान का निवास है वही- स्वर्ग है। ऐसा स्वर्ग अपनी विकसित श्रद्धा ही अपने लिए अपना स्वतंत्र स्वर्ग गढ़ लेती है। जिनमें निरन्तर निवास करते रहने और आनन्द से ओत प्रोत रहने का अवसर मिलता है। महा मानवों जैसे स्वभाव संस्कार भी उसी स्थिति में विकसित होते हैं। ऐसे कृत्य भी उसी मनोदशा में करते बन पड़ते हैं, जिन्हें मनीषियों और तपस्वियों के जीवन में ही क्रियान्वित होते देखा जाता है।

आत्मा और परमात्मा के मिलने से जो अद्भुत अलौकिक शक्ति उत्पन्न होती हैं उसी के आधार पर देवर्षि, महर्षि, ब्रह्मर्षि स्तर की देवात्माऐं अपनी स्थिति को असामान्य बनाती हैं। उनके क्रिया कलाप सामान्य लोगों की तुलना में कही अधिक उच्चस्तरीय होते हैं। वे सामान्य कायकलेवर में रहते तो हैं पर उनका दिशा निर्धारण, लक्ष्य संकल्प कुछ विशेष स्तर का ही होता है। स्थिति में इतना अन्तर आ जाता है कि गीता के अनुसार जब दुनिया सोती है तो योगी जागता है और जब योगी जागता है तब दुनिया सोती है। दोनों की स्थिति में रात दिन जैसा अन्तर होता है। संसारी लोग जहाँ स्वार्थ के लिए ही निरन्तर मरते खपते रहते हैं वहाँ श्रद्धावान् परमार्थ को लक्ष्य रखता है। उसे कर सकने के लिए अपनी अन्तः स्थिति को कषाय कल्मषों से विरत करते रहने में लगा रहता है। साँसारिक लोगों का लक्ष्य जहाँ संकीर्ण स्वार्थ परता की पूर्ति का होता है वही आध्यात्मवादी परमार्थ संचय के अतिरिक्त और कुछ सोचता ही नहीं। एक जहाँ साधन संपदा से लदने के लिए उचित अनुचित का विचार तक छोड़ देता हैं वहाँ श्रद्धावान् न्यूनतम निर्वाह में काम चलाना और क्षमताओं का अपनी तथा दूसरों की संस्कृतियों को समुन्नत करने में नियोजित किये रहता है। दोनों के लक्ष्य और प्रयास में यह स्पष्ट अन्तर सहज ही जाना जा सकता है।

स्वार्थी लोभ और अहंकार में डूबे पाये जाते हैं जबकि परमार्थी को सत्प्रवृत्तियों को बोने-उगाने बढ़ाने से ही फुरसत नहीं मिलती। इसी को मनुष्य और देवता के बीच पाया जाने वाला अन्तर समझा जा सकता है।

उपरोक्त अन्तर के अनुरूप परिस्थितियाँ भी दोनों की अलग-अलग होती हैं। एक की स्वार्थ साधन में व्यस्तता रहती है तो दूसरे की उत्कृष्टता के चरम शिखर पर जा पहुँचने की ललक लगी रहती है।

एक ही जंक्शन पर खड़ी दो रेल गाड़ियाँ दो विभिन्न दिशाओं के लिए छूटती हैं तो कुछ ही समय में दोनों के बीच भारी फासला पड़ जाता है। यही बात अनास्थावानों और आस्थावानों के बीच भी होती है। एक नर पशु की तरह क्षुद्र स्वार्थ की पूर्ति में कोल्हू के बैल की तरह जुता रहता है और बदले में अशाँति, ईर्ष्या, दुर्व्यसन, भय, आतंक, अपमान में डूबा रहकर अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति को उद्विग्नता की आग में जलाता रहता है। वहाँ दूसरा कल्पवृक्ष की तरह फलता-फूलता और अपनी छाया में असंख्यों को सुख शान्ति भरा आनंद अनुदान प्रदान करता रहता है। यह अन्तर श्रद्धा के भाव और स्थायी अभाव के ऊपर ही निर्भर रहता है।

गीता के अनुसार सद्ज्ञान मात्र श्रद्धा के माध्यम से मिलता है। श्रद्धा ही विवेक की आंखें खोलती है। ऐसे दृष्टिवान को यथार्थता का बोध होता है। आत्म ज्ञान का दिव्य अनुदान मिलता है। अज्ञान का पर्दा हटने पर न दोष रहते हैं न दुर्गुण न शोक रहता है और न संताप। जिसने अपना कल्याण कर लिया वही दूसरे अन्य असंख्यों का कल्याण कर सकने में भी समर्थ होता है।

श्रद्धा का प्रभाव और प्रताप सुविकसित व्यक्तित्व में ही परिलक्षित होता है। यहाँ प्रतिभा के रूप में वह गरिमा के रूप में प्रकट होता है। गाँधी जी चर्म चक्षुओं से देखने पर शरीर की दृष्टि से चकाचौंध उत्पन्न करने वाली प्रतिभा के धनी नहीं थे। फिर भी उनकी महानता हर गतिविधि से, हर उच्चारित शब्द से अपनी गरिमा का परिचय देती थी। श्रद्धावानों का व्यक्तित्व अपने-अपने क्षेम में प्रायः इसी स्तर का हो जाता है। आन्तरिक उल्लास की अजस्र अनुभूति होने के अतिरिक्त उन्हें लोक सम्मान की जन सहयोग की भी कमी नहीं रहती। श्रद्धा अपने आप में परमात्म सत्ता का प्रत्यक्ष अनुदान है। वह जिसने अर्जित कर लिया समझना चाहिए कि उसने जीवन के सर्वांगीण सफलता का लक्ष्य प्राप्त कर लिया।

पशु और मनुष्य का अन्तर श्रद्धा के आधार पर ही आरंभ होता है। अश्रद्धा को प्रत्यक्षवादी मनः स्थिति में किसी भी आदर्श का महत्व नहीं समझा जा सकता। परमार्थ की ओर एक कदम भी नहीं बढ़ा जा सकता। क्योंकि प्रत्यक्ष स्वार्थ ही सब कुछ समझा जा सकता है। कोई किसी की परवाह क्यों करे? अपनी विलासिता, लिप्सा, लालसा और महत्वाकाँक्षा पर कोई अंकुश क्यों लगाये? स्वेच्छाचार बरतकर गर्व करने का अवसर क्यों खोये? इस नियंत्रण में तो अपने को रोकना प्रतिबंधित ही करना पड़ेगा और दूसरों को लाभ देने की बात में अपने लिए तो घाटा ही है। आक्रमण से अनाचार से यदि लाभ उठाया जा सकता है तो दया धर्म के कारण असाधारण लाभ उठाने से क्यों चूका जाय? उत्पीड़न, शोषण, छल, प्रपंच आदि पर अंकुश क्यों लगाया जाए? इन सभी प्रसंगों में अनास्थावादी बुद्धि का यही निर्णय हो सकता है कि जिनमें स्वार्थ सधता हो वही किया जाय? इस कारण दूसरों को क्या हानि होती है इसका विचार न किया जाय। ऐसी मनःस्थिति में पुण्य परमार्थ की बात सोचते भी नहीं बन पड़ती। क्योंकि उन सब में अर्थ प्रधान दृष्टि अपना अहित होने की बात ही सोचेगी।

श्रद्धा ही है जो मनुष्य को विराट् के साथ, आदर्शों के साथ, मानवी गरिमा के साथ जोड़ती है। जिसने उसे जिस रूप में पाया वह उसी गति से उत्कृष्टता को आध्यात्मिकता की दिशा में चल पड़ने के लिए तत्पर हुआ समझना चाहिए।

श्रद्धा और अन्ध श्रद्धा में जमीन आसमान जितना अन्तर है। अन्ध श्रद्धा पर अविवेक छाया रहता है। परम्परा का निर्वाह ही सब कुछ लगता है। उसमें उचित अनुचित का विश्लेषण करने का भी समय नहीं रहता। अनेकानेक कुरीतियाँ इस अन्ध श्रद्धा के आधार पर ही पनपी और परिपक्व हुई हैं। इसी के सहारे धूर्तों ने मनगढ़ंत संरचनाएँ रच कर मूर्खों को अपने चंगुल में फँसाया है। अन्ध श्रद्धा के साथ ही जो श्रद्धा शब्द लगा है और अपना कुप्रयोजन सिद्ध करने वाले उस अन्ध श्रद्धा की भी यथार्थता जैसी व्याख्या कर देते हैं पर वस्तुतः बात वैसी है नहीं। दोनों के बीच मृत और जीवित जैसा अन्तर है।

यों देवताओं के प्रति धर्म सम्प्रदायों के प्रति भी मान्यताओं का आग्रह रखा जाता है। पर वस्तुतः श्रद्धा भाव-संवेदनाओं की उत्कृष्टता के साथ ही जुड़ी होती है। उसमें अन्तःकरण का ऐसा उल्लास जुड़ा होता है जिसकी प्रेरणा से हृदयता, सद्भावना और शालीनता को क्रियान्वित करने के लिए असाधारण उत्साह उभरे। कष्ट सहकर भी आदर्शों को अपनाये रहने की सतत् प्रेरणा मिले।

भावुकता और भावसंवेदना में अन्तर है। भावुकता एक आवेश है जब कि संवेदना अन्तःकरण का परिष्कृत स्तर। उसमें संकीर्ण स्वार्थ-परता का लेश मात्र भी अंश नहीं होता। जो कुछ सोचते बन पड़ता है और क्रिया रूप में अपनाया जाता है उसमें आत्मीयता का गहरा पुट होता है। श्रद्धा इसी स्थिति की अभिव्यक्ति है। उसमें अपनी श्रेष्ठतम चेतना का अंश निचोड़ा जाता है और उसे निस्वार्थ भाव से जन कल्याण के लिए अर्पित किया जाता है। इसे कारण शरीर से उभरा हुआ वरदान भी कह सकते हैं।


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