विचार तंत्र सुव्यवस्थित रहें

August 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

रेल उस पटरी पर चलना आरंभ करती है, जिसके लिए उसे सिगनल और लाइन क्लीयरा दिया जाता हैं। मनमर्जी से वह किसी भी दिशा में नहीं दौड़ पड़ती है। ठीक इसी प्रकार जीवनक्रम किस मार्ग पर चले इसका निर्धारण मस्तिष्क में उठने वाले विचार करते हैं। यों विचारों के झूले पर झूलते और बिना पंख के आकाश-पाताल चूमने वाली उड़ाने उड़ते रहना मन का स्वभाव है तो भी वह आमतौर से उसी क्षेत्र में दौड़ धूप करता है जिसकी कि अन्तराल में कामना जाग्रत रहती हैं अनेकानेक कामनाओं में से किन्हें अपने लिए रुचिकर माना जाय यह निर्णय करना अन्तराल का काम हैं। मेले में अनेक चीजें बिकती हैं। पर बालक उनमें से उन्हीं का चुनते है जो उन्हें पसंद आ जाती है। का कुछ उस क्षेत्र में सजधज की साथ रखा हुआ है उस सभी का नहीं बटोरते। जिसे रुचिकर या हितकर मानते हैं उसी के लिए मचलते है। यह मनचला मात्र कल्पना के आधार पर हुआ प्रतीत होता है किन्तु वास्तविकता यह है कि भीतरी रुझा नहीं दाके लिए प्रेरणा देती है।

विचारों को कर्म का बीज माना हैं। बीज ही अवसर पवाकर अंकुरित पल्लवित होता हैं। कल्पना क्षेत्र में उठते रहने वाले विचार ही दिशा में रुचि लेने लगते है। बारबार का प्रयास ही स्वभाव बन जाता है और उससे रुझान अनपढ़ होते हैं जो कल्पनाओं की असंयत उड़ानों के कारण ढले है। इनमें अधिक मजबूती का समझते हुए पे्रसतन पूर्वक उसे उभारने के लिए प्रयत्न किया जाता है। जबकि प्रौढ़ता उन्हें विचारो में होती है जिनके साथ रुझान का गहरा पुट हो अन्यथा बेतुके विचार में होती है जिनके साथ रुझान का गहरा पुट हो अन्यथा अन्यथा बेतुके विचार इस डाली से उस डाली पर फुदकने वाले पक्षी की तरह अकारण भगदड़ मचाये रहते हैं। उनसे मस्तिष्क घिरा रहता है और चिन्तन का महत्वपूर्ण उपक्रम ऐसे ही दिशा विहीन भटकना बौर बर्बाद होता रहता है। जो योजनाबद्ध जीवन जीना चाहते हैं सर्वप्रथम अपनी अभिरुचि इच्छा आकाँक्षा का चुनाव करना चाहिए। इसके उपरान्त उस सीमा में विचारा की कार्यपद्धति एवं संभावना को कल्पना चित्र बनाने की छूट देनी चाहिए। लक्ष्य निर्धारित करने तीर छोड़ने पर उसके निशाने पर लगने की संभावना रहती है। पर यदि उन्हें कौतुक रूप में किसी भी दिशा में चलाते रहा जा तो श्रम की बर्बादी और कुछ न कुछ पाने की लोग हँसाई ही हाथ आती है।

विचारों को दिवास्वप्न नहीं मानना चाहिएं कल्पनाओं की संरचना परलोक में विचरण करने जैसी असंगत नहीं होनी चाहिए। वरन् यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कल्पनाओं की डत्रडाया में ही रुझान ढलता है और चिन्तन की अपनाई हुई दिशा ही स्वभाव बन जाती है। प्रिय लगने लगती है।

यों कर्म शरीर से ही बन पड़ते है। पर उन्हें कर गुजरने के लिए हाथ पैर समर्थ हैं न इन्द्रिय समूह की स्वेच्छापूर्वक कुछ कर गुजरने में तत्परता होती हैं। इसके लिए मानसिक सहमति जरूरी हैं। घोड़ा चलता तो अपने पैरों है। पर उसे किस दिशा में चलना है कितनी तेजी से चलना है इसका निर्धारण वह सवार करता है जिसे हाथ में संकेत देने वाली लगाम है। हाथी भी महावत के इशारे को समझता है इसी आधार पर वह अपने भारी भरकम शरीर को किसी दिशा में निर्धारित गति को स्वीकार करके चलना आरंभ करता है। मन का क्रिया−कलाप ही शरीर को कुछ करने के लिए उकसाता और तत्पर करता हैं। इसलिए विचारों का ही कार्यों का प्रेरक माना गया है।

काल्पनिक उड़ाने मनोरंजन मात्र लगती है। उनकी सनक में पड़े-पड़े लोग मकड़ी जैसा जाल जंजाल बुनते रहते है। खाली समय को गुजरते रहते है। उन्हें अपने कल्पनाएँ मनः क्षेत्र पर अपनी छाप छेड़ती है। उन्हें अपने अनुकूल अनुरूप बनाती है। कालान्तर में असंगत विचार ही स्वभाव बन जाते हैं। उत्कंठा बढ़कर फलित होने लगती है। बुद्धि अपने ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर उसका ताना बना बुनती और साधन सरंजाम अवसर प्राप्त करने के लिए कार्य बताती हैं। इतनी खिचड़ी पका लेने के उपरान्त ही शरीर को निश्चित कार्य करने के लिए अपनी ज्ञानेन्द्रियों कर्मेंद्रियों का दशा विशेष में नियोजित करने के लिए साहस करना और कौशल दिखाना पड़ता हैं। इस लम्बी मंजिल का पार कर लेने के उपरान्त ही विचारणा क्रिया प्रक्रिया के रूप में परिणत होती है।

किसी के कार्यों को देखकर ही उसके भले-बुरे होने की कल्पना बनती है। कार्य का अर्थ है श्रम, समय, कौशल और पराक्रम का नियोजन। यह साधन जिस भी प्रयोजन में लगते है उसे पूरा करने के लिए तत्परता बरतते देखो जाते हैं। इसी आधार पर किये गये अधूरे कार्यों को असफलता और समग्र प्रयास को सफलता कहते है। शरीर और मन का समान योगदान जिस प्रयोजन के लिए जुटता है, उसके लिए आवश्यक साधन, सहयोग भी जुटा है, इसके लिए आवश्यक साधन, सहयोग भी जुटा लेता है। उत्कंठा का अपना आकर्षण है। उसका चुम्बकत्व इच्छित अवसर को खींच बुलाने में समर्थ होता देखा जाता हैं।

विचारणा और क्रिया के तारतम्य कस समझा जा सके तो कृत संकल्प होने के साथ ही विचार तंत्र की अस्तव्यस्तता से छुड़ाकर उसी दिशा में चिन्तन मंत्र में भटकने से रोककर नियत दिशा में नियोजित करना होता है। यदि दोनों के बीच खींच तान रही तो प्रगति का कदम आगे न बढ़ सकेगा।

शरीर को इच्छित कार्यों के लिए अभ्यस्त करना होता है।अनजानी दिशा में पैर रुक-रुक कर बढ़ते है। भटकाव का संदेह रहने पर पैर कभी आगे गढ़ती पीछे हटते हैं। सुनिश्चित यात्रा उन्हीं की होती है जिनने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए आवश्यक जानकारी जुटाली है तथा सम्यक् सामग्री एकत्रित करली है। विचार से कार्यों तक और कार्यों से सफलता तक पहुँचने के लिए जिस कौशल को अर्जित करना आवश्यक माना गया है। उसके लिए शरीर को समुन्नत करना होता हैं। इसमें कार्य को दुहराना ही पर्याप्त नहीं वरन् यह भी आवश्यक है कि रुझान उसी दिशा में ढुले। करते समय रस मिले और बुद्धि सजगता पूर्वक मार्ग खोजे ओर उसके सही होने का विश्वास दिलायें। किन्हीं कार्यों कर पूर्णता इसी प्रकार सध पाती है।

कुछ करना या बनना है तो उसका श्रीगणेश विचार संस्थान को तदनुरूप सोचने समझने, चिन्तन मनन करने ओर सींव का निष्कर्ष निकालने में लगाना चाहिए। चित्त का घोड़ा यदि सड़क पर दौड़ने लगे तो उसके साथ बँधा हुआ ताँगा भी लुढ़कने लगता है। मन के पीछे पीछे ही शरीर चलता है। कर्म ही सफलता के निकट तक ले पहुँचते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118