तर्कों की भाषा से परे है ईश्वर की सत्ता

August 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ईश्वर अनादि और अनन्त है-इसे प्रायः सभी स्वीकारते हैं, पर अनीश्वरवादी इसे यह कह कर सामान्य कर देते हैं कि यदि ईश्वर अनादि अनन्त होता, तो उसकी सृष्टि नाशवान क्यों होती? अनन्त सत्ता की रचना भी अनन्त होनी चाहिए पर ऐसा कहाँ देखा जाता है उसके क्रिया-कौतुक तो सीमित होते हैं, फिर उसके कर्त्ता की अनन्त कैसे माना जाय?

इन प्रश्नों पर यदि गंभीरता से विचार किया जाय, तो इन तर्कों में निहित भ्रान्ति स्पष्ट हो जाती है। वस्तुतः मनुष्य का ज्ञान स्वल्प है। उसे जो कुछ दिखाई पड़ता है, उसे ही सब कुछ मान बैठता है। इस संसार में हम नित नई-नई घटनाएँ घटित होते देखते रहते हैं, किन्तु उन घटनाओं के कई पक्ष ऐसे होते है जो हमें अविज्ञात होते हैं। सीमित इंद्रिय सामर्थ्य के कारण हम उन्हें जान नहीं पाते। इस पर कोई दृश्य पक्ष को ही पूर्ण मान कर उसकी विवेचना करें, तो यह उसकी भूल ही होगी। सूर्यकिरणों में कितनी ही प्रकार की किरणों विकिरणों का समावेश होता है, पर इन सब को हम आँखों से देख-समझ कहाँ पाते हैं? पदार्थ के बाह्य स्वरूप को देखकर कोई यदि इनके मूल कारणों से इन्कार कर दे, तो विज्ञान की नींव ही ध्वस्त हो जायेगी। फिर तो परमाणु बम का सिद्धान्त ही गलत हो जायें। मगर विज्ञान-जगत इनके अस्तित्व को स्वीकारता है, भले ही प्रत्यक्ष रूप से हम इनका अनुभव न कर सकें।

सृष्टि व पदार्थ संबंधी ऐसे कितने ही नियम हैं, जिन्हें हम अभी जान नहीं पाये हैं। विज्ञान इन्हीं के उद्घाटन में लगा हुआ है। दस साल बाद वह जिन रहस्यों को जान सकेगा, उसे अभी वे ज्ञात नहीं हैं। इस पर विज्ञान यदि इस बात पर गर्व करें कि उसने पदार्थ जगत के सम्पूर्ण रहस्यों को समझ लिया है, उचित न होगा। वस्तुतः अब तक इस संसार को जितना कुछ जाना-समझा गया है, वह उसका एक स्वल्प अंश मात्र है। जिस भी पदार्थ के बारे में हम उसके पूर्ण ज्ञान का दावा करते हैं, वास्तव में उस संदर्भ में हमारा ज्ञान अधूरा होता है। उसका कोई-न-कोई पक्ष ऐसा होता है, जो अविज्ञात रहता है। जब उस पक्ष की जानकारी प्राप्त करते हैं, तो कोई अन्य अधूरापन सामने आता है, फिर कोई अन्य। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि इस सृष्टि की प्रत्येक घटना व पदार्थ में अनन्त नियमों का समावेश है। जब सृष्टि में अनन्त नियम हैं, तो उसका सृजेता सादि और परिमित कैसे हो सकता है?

संभव है, कुछ लोग ध्वंस व निर्माण की प्रक्रिया को देख कर सृष्टि नाशवान अथवा सादि समझ बैठे हों, पर यह तो इसका स्वभाव है। रात-दिन और जन्म-मृत्यु की भाँति बनना-बिगड़ना तो सृष्टि का स्वाभाविक क्रम है। जिस प्रकार रात के बिना दिन और मृत्यु के बिना जन्म की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार ध्वंस के बिना सृजन कैसे संभव हो सकता है? समग्रता तो दोनों के मिलने से बनती है। भूल तभी हो जाती है जब हम दोनों क्रिया को दो पृथक् घटना मान बैठते हैं। वस्तुतः ये एक ही घटना के दो पक्ष हैं। एक के बाद दूसरा अवश्य घटित होता है। इस प्रकार यह एक प्रवाह का निर्माण करते हैं, जो सदा प्रवाहमान रहता है। यदि कोई यह कहे कि इस सृष्टि से पूर्व कोई सृष्टि थी ही नहीं, अथवा इसके बाद रहेगी ही नहीं, तो यह कैसे संभव है? ध्वंस और सृजन का यह प्रवाह तो अनादि काल से चलता आ रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा। इसी को संसार का गति चक्र कहा गया है। यह इसलिए, क्योंकि जिस प्रकार रथ के पहिये का कोई आदि-अन्त नहीं होता, वैसा ही यह सृष्टि प्रवाह है। अतः सृष्टि को सादि कहना ठीक न होगा। यदि ऐसा मान भी लिया जाय, तो अनेक ऐसे प्रश्न उठ खड़े होगे, जिनका उत्तर दे पाना संभव न होगा। यथा यदि ईश्वर की यह पहली रचना है, तो अब तक वह चुप क्यों बैठा रहा? फिर अचानक संसार-सृजन की प्रेरणा उसे कहाँ से मिली? इससे संबंधित अनुभव कहाँ से प्राप्त हुआ? ज्ञान और क्रिया कैसे उत्पन्न हुई? क्रिया और शक्ति यदि आरंभ से ही थी, तो अब तक निष्क्रिय क्यों पड़ी रही? आदि-आदि। अस्तु यह मानना ही पड़ेगा कि यह भगवत् सत्ता अनन्त है।

यह तो काल संबंधी सृष्टि की अनन्तता हुई। आकाश संबंधी अनन्तता पर विचार करने से भी यही निष्कर्ष सामने आता है कि यह विश्व-ब्रह्मांड विशाल है। इसकी अनन्तता का दिग्दर्शन भगवान राम ने एक बार माता कौशल्या एवं काकभुशुण्डि को कराया था। वस्तुतः इस सृष्टि में अनेकानेक स्थूल-सूक्ष्म सृष्टियाँ हैं। हम लोग अभी इस दृश्य जगत को ही भली-भाँति नहीं समझ पाये है, तो सूक्ष्म जगत को कैसे जान समझ पायेंगे? इन्द्रिय सामर्थ्य के अभाव में ही हमें उनकी प्रतीति नहीं हो पाती और स्थूल संसार को ही हम सब कुछ मान कर यदि उसे सादि समझ बैठते हैं, पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। इस प्रकार जब सृष्टि की अनन्तता सिद्ध हो गई, तो उसे बनाने वाला अनादि अनन्त नहीं होगा- यह कैसे कहा जा सकता है? सच तो यह है कि जो अनन्त नहीं है, वह अनन्त सृष्टि की रचना कर ही नहीं सकता।

यजुर्वेद में इसी बात को स्वीकारते हुए भगवत् सत्ता को अनन्त शिर वाला, अनन्त नेत्रों और पैरों वाला बताया गया है और कहा गया है कि वह सत्ता सृष्टि को हर ओर से घेरे हुए है। एक अन्य स्थान पर कहा गया है कि यह सम्पूर्ण सृष्टि उसका एक चौथाई भाग है। तिगुना अंश तो अमृत है। तात्पर्य यह कि हम जो कुछ देखते हैं, वह उस विराट् सत्ता की स्थूल व नगण्य अभिव्यक्ति मात्र है। इसका अधिकांश अमृत भाग तो हमें दिखाई ही नहीं पड़ता। सृष्टि तो अनित्य है। इसमें उस महत सत्ता का अमृत दिखाई भी कैसे पड़ सकता है? जो सृष्टि के विनाश व निर्माण की प्रक्रिया को देख कर उसके निर्माता को भी ऐसा ही मान बैठते हैं, वे भूल करते हैं। शरीर मरणधर्मा है- इस आधार पर कोई आत्मा को भी नाशवान बताये, तो यह उसकी अल्पज्ञता होगी।

शरीर तो आत्मा का उपकरण मात्र है। इसी प्रकार परमात्मा का उपकरण यह सृष्टि है। यदि सृष्टि न होती तो उसे जान-समझ ही कौन पाता? अतः सृष्टि के आधार पर उसके नियन्ता के गुण-स्वरूप निर्धारित करना समीचीन न होगा। सृष्टा अनन्त है। उसकी अनन्तता उसके अमृतत्व में समाहित हैं क्योंकि अमृतत्व परिमितता की निशानी है। अथर्ववेद इसी का उद्घोष करते हुए कहता है कि “यों भूर्त च भवयं च सर्व यश्चाधितिष्टति”, अर्थात् ईश्वर तीनों कालों से परे है।

कुछ लोगों का कहना है कि मनुष्य सीमित-परिमित है, फिर वह अनन्त ईश्वर को समझने का दावा किस आधार पर करता है? कोई चींटी हिमालय की विशालता को कैसे जान सकती है?

प्रश्न वस्तुतः सही है पर विलक्षण मानवी मस्तिष्क को दृष्टिगत रख इसका उत्तर दिया जाना चाहिए न कि तर्क द्वारा। प्रायः अनंत उसे कहा जाता है, जिसके अन्त का या तो हमें अनुभव नहीं होता अथवा जिसे तर्क द्वारा हम सिद्ध नहीं कर सकते। किन्तु हमारी बुद्धि इन दोनों कामों को सरलतापूर्वक कर सकती है। हम जिस कुर्सी पर बैठते हैं, उसमें लम्बाई चौड़ाई, ऊँचाई है। वह सीमित जगह घेरती है। अतः देश अथवा आकाश की तुलना में वह अनन्त नहीं है, क्योंकि हमें उसकी निश्चित सीमा का पता है। इसी प्रकार काल की दृष्टि से भी वह अनादि नहीं है, क्योंकि किसी ने अवश्य उसे बनाया है। जब सृजन हुआ है, तो निश्चय ही उसका अन्त भी होगा। हम चाहे जब कभी भी उसे तोड़ सकते हैं। इस तरह मस्तिष्क ने इसे भली प्रकार जान लिया कि कुर्सी के आदि और अन्त दोनों छोर हैं, अतः वह अनन्त न होकर परिमित वस्तु है। आकार की दृष्टि से यह छोटी होती है और इसका बनना बिगड़ना भी हमारी आँखों के सामने घटित होता है, अस्तु इसके सादि होने में कोई संदेह नहीं रह जाता है। पर जब हम किसी पहाड़ के निकट जाते हैं, तो न तो हमें उसका कोई ओर-छोर दिखाई पड़ता है, न उसके ध्वंस-सृजन की प्रक्रिया हमारे आँखों के सामने होती है, फिर हम उसे अनादि-अनन्त कहाँ मन लेते है? यदि ओर-छोर का न दिखाई पड़ना ही अनन्तता का सूचक होता है, तो निश्चय ही हमारा मस्तिष्क पहाड़ को अनन्त मान लेता, पर व्यवहार में ऐसा होता नहीं देखा जाता है, अतः यह कहना कि मस्तिष्क सादि-अनादि में विभेद नहीं कर सकता, गलत है। समुद्र के निकट जाकर दृष्टि दौड़ाने से जल-ही-जल दिखाई पड़ता है। इतने पर भी मन-मस्तिष्क उसे अनन्त स्वीकार नहीं करता।

इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि ईश्वर और उसका सृष्टि-प्रवाह अनन्त है। यदि उसे अनादि के स्थान पर सादि मान भी लिया जाय, तो फिर प्रश्न उठेगा कि ईश्वर को बनाने वाला कौन है? जिसने उसे बनाया, उसे किसने बनाया? इस प्रकार के प्रश्नों का कोई अन्त नहीं होगा। यदि यह माना जाय कि ईश्वर को किसी ने बनाया नहीं, वह स्वतः उत्पन्न हो गया, तो सृष्टि-रचना के लिए उसकी आवश्यकता क्यों? वह भी स्वयं क्यों नहीं हो जाती। फिर तो यह तर्क भी प्रस्तुत किया जाने लगेगा कि जिस ईश्वर को स्वयं उत्पन्न होने की आवश्यकता पड़ती है, वह इतनी सुन्दर और सुव्यवस्थित दुनिया कैसे बना सकता है? यह सही भी है। इस प्रकार इन तर्कों से ईश्वर की उत्पत्ति किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होती। जो वस्तु उत्पन्न हुई नहीं, वह अवश्य ही अनादि-अनन्त है, इसमें तनिक भी संशय नहीं किया जाना चाहिए। संशय ही सभी विभ्रमों-कुतर्कों का मूल है। आस्तिकता विज्ञान सम्मत तो है ही, वह हमें चिन्तन के आयाम से ऊँचा उठकर भावनात्मक धरातल पर उठने की प्रेरणा देती तथा भ्रान्तियों से भी मुक्त करती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118