माना जाता है कि प्रतिभाएँ अपने वर्चस्व से वातावरण विनिर्मित करती हैं। यह सच है, पर उनकी संख्या थोड़ी सी ही होती है। हीरे जहाँ तहाँ कभी&कभी ही निकलते हैं। पर काँच के नगीने के ढेरों के ढेरों कारखानों में नित्य ढलते रहते हैं। अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो वातावरण के दबाव से भले या बुरे साँचे में ढलते हैं। सत्संग&कुसंग का प्रभाव इसी को कहते हैं। ऐसे लोग अपवाद ही हैं जो बुरे लोगों के संपर्क में रहकर भी अपनी गरिमा बनाये रहते हैं। साथ ही अपने प्रभाव से क्षुद्रों को महान बनाने, बिगड़ों को सुधारने में समर्थ होते हैं। प्रधानता वातावरण की हैं। सामान्य जन प्रवाह के साथ बहते और हवा के रुख पर उड़ते देखे जाते हैं। पारस के उदाहरण कम ही मिलते हैं। सूरज चाँद जैसी आभा किन्हीं बिरलों में होती है जो अंधेरों में उजाला कर सकें।
मान्यता वातावरण को ही मिलती है क्योंकि अधिकांश पर प्रभाव उसी का होता है। आत्मोत्कर्ष का लक्ष्य लेकर चलने वालों को तो विशेष रूप से इस आवश्यकता को अनुभव करना चाहिए। उसे जुटाने के लिए प्रयत्नशील भी रहना चाहिए।
अनेक फसलें किसी विशेष खेत में ही उत्साहवर्धक प्रगति करती हैं। तंबाकू,अफीम,चाय जैसी वस्तुएँ किसी विशेष इलाके में ही होती हैं। अन्यत्र बोया जाए तो वे उगाई भले ही जा सकें, आशाजनक स्तर तक बढ़ने,फलने,फूलने में समर्थ नहीं हो पाती। चंदन के पेड़ रोपे तो कहीं भी जा सकते हैं पर मैसूर जैसी सुगंध उनमें नहीं उभरती आम,संतरा आदी की उत्तम फसल निर्धारित क्षेत्रों में ही पनपती है। नारियल, लौंग, मसाले किसी विशेष भूमि में ही उगते हैं। इसी प्रकार किसी विशेष क्षेत्रों में ही कोई विशेष जड़ी-बूटियां पाई जाती हैं यदि ऐसा न होता तो हनुमान जी को संजीवनी बूटी लेने के लिए सुदूर हिमालय पर्वत पर चढ़कर क्यों जाना पड़ता? जीव जन्तुओं की, फूलों की,धान्यों की भी क्षेत्रीय विशेषता के अनुरूप चित्र विचित्र प्रकार की उत्पत्ति होती है। सोवियत संघ के एक संघीय प्राँत उजेविकिस्तान व अजरबेजान में अधिकांश व्यक्ति सौ से भी अधिक वर्ष तक जीवित रहते हैं। इसे वातावरण की ही विशेषता कहना चाहिए।
आध्यात्मिक प्रगति के लिए भी अनुकूल अनुरूप वातावरण होना चाहिए। अन्यथा संव्याप्त चिन्तन की भ्रष्टता,चरित्र की दुष्टता प्रमाणित किए बिना नहीं रहती। ढलान की और पानी अनायास ही बहता है। ऊपर से नीचे गिरने का उपक्रम पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति ही बनाती रहती है। ऊपर उठाने के लिए विशेष प्रयत्न करने की विशेष साधन जुटाने और शक्ति लगाने की आवश्यकता पड़ती हैं। आत्मिक प्रगति के लिए भी लक्ष्य के प्रति उत्साह बढ़ाने वाला मार्ग दिखाने वाला माहौल चाहिए।
इसके दो उपाय एक यह हक जहां इस प्रकार का वातावरण हो वहां जाकर रहा जाए। दूसरा यह कि जहां अपना निवास है वहीं प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति उत्पन्न कि जाए कम से कम इतना तो हो ही सकता है कि अपने निज के लिए कुछ समय के लिए वैसी ही स्थिति उत्पन्न कर ली जाए। चन्द्रयात्री जब उसके धरातल पर पहुंचे, तब वहां सांस लेने के लिए हवा नहीं पाई गई उन्होंने ऐसे उपकरण साथ लिए जिनमें ऑक्सीजन भरी थी। उसी माध्यम से वे लोग सांस लेते रहे, और चन्द्रमा धरातल सर्वथा प्रतिकूल भ्रमण अन्वेषण करते रहे। पृथ्वी की उतरी दक्षिणी ध्रुवों की स्थिती भी निवास के सर्वथा प्रतिकूल है। इतने पर भी खोजियों ने वहाँ पैर जमाए और साधनों के सहारे बहुत दिन गुजारे। यही प्रयत्न कर अनुपयुक्त वातावरण में भी कम से कम अपने निज के लिए तो विशेष उपायों द्वारा उपयुक्त परिस्थितियाँ गढ़ी जा सकती हैं।
एकान्त स्वाध्याय,मनन चिन्तन ऐसे ही आधार है किसी एकान्त कोठारी या निर्जन क्षेत्र में बैठकर यह अनुभव किया जा सकता है कि संसार में संव्याप्त अवांछनीयता से अपना संबंध टूट गया। बुरे लोगों का बुरा प्रवाह एक एकाँत के कवच को बेध कर भीतर प्रवेश नहीं कर पा सकेगा। यह ढाल बाहरी अनुपयुक्त प्रभावों से बचाने के लिए एल का काम दे सकती है। शर्त एक है कि उस एकान्त में संसार के अवाँछनीय लोगों का विचार,स्वरूप, कृत्य कल्पना में न आने दिया जाय। सर्वथा कोलाहल रहित स्थान मिलने में कठिनाईयाँ दिखे तो यह प्रयोजन आँखें बंद करके, संसार चिन्तन से मन का निरोध करके भी पुरा किया जा सकता है।
अवाँछनीयता को रोकना भर ही पर्याप्त नहीं हैं सर्वथा रिक्त नहीं रहा जा सकता। शून्यता रह नहीं सकती। इसलिए उस स्थान पर श्रेष्ठता की प्रतिष्ठापना तो करनी ही होगी। यह कार्य देवता की ध्यान धारणा में भी अधिक अच्छी तरह उत्कृष्टता, आदर्शवादिता के समर्थक मार्ग दर्शक साहित्य के सहारे हो सकता है। दूरस्थ या दिवंगत महामानवों का सत्संग तो सहज संभव नहीं पर उस अभाव की पूर्ति उनके लिए साहित्य से हो सकती है। एकान्त के खाली मस्तिष्क में सत्साहित्य का महामानवों के जीवन रहस्य का अवगाहन किया जा सकता है। अनुभव किया जा सकता है कि उनकी प्रेरणा को अपने अंतराल में उतारा जा सकता है। उस खाली समय में अपने आदर्शवादी जीवन क्रम की संभावनाओं को भी केंद्रित किया जा सकता है। बार-बार जल्दी-जल्दी ऐसे वर्तमान परिस्थितियों में भी निकाले जा सकते हैं और उस स्वनिर्मित दिव्य कल्पना लोक में अवस्थित रहा जा सकता है।
प्राचीनकाल में साधना के लिए उपयुक्त कितने स्थान थे। उन्हें तीर्थ कहते थे। तीर्थ हर क्षेत्र में थे। ताकि समीपवर्ती लोग सरलतापूर्वक पहुँच सके और वातावरण का मार्ग दर्शन का समस्याओं के समाधान करके परामर्श का समुचित लाभ उठा सकें। तीर्थों में बच्चों के लिए गुरुकुल, गृहस्थों के लिए आश्रम,प्रौढ़ों के लिए वानप्रस्थ आरण्यकों की व्यवस्था रहती थी।हर व्यक्ति वहाँ निवास में पड़ने वाला भोजन व्यय आदी स्वयं उठाने की स्थिती में नहीं होता था। अमीरों के साथ गरीब भी आते थे। सभी को समान सुविधा मिले गरीब अमीर का अंतर न दिख पड़े। किसी पर दीनता और किसी पर अहंता छाई ना रहे इसलिए समता की व्यवस्था बनाए रखने के लिए उपरोक्त सभी आश्रमों में सदावर्त भण्डार चलते थे। सभी आगन्तुकों को समान सम्मान एवं सुविधाओं का सहयोग मिलता था। स्वर्गोपम भाव संवेदनाओं का रसास्वादन करते थे। उन दिनों सभी के लिए आत्मिक प्रगति के लिए उपयुक्त स्थान एवं अवसर प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध था। इस निमित्त बने तीर्थों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती थी कि उनके संचालक तत्व दर्शन, साधन प्रयोजन एवं जीवनोत्कर्ष की विद्या में हर दृष्टि में प्रवीण पारंगत होते थे। यह कार्य गृहस्थ पुरोहित करते थे। परिव्राजक बनकर सदा सर्वदा भ्रमण करते रहते थे। समय समय पर उपयुक्त केन्द्रों पर थोड़े थोड़े विचारशीलों को एकत्रित कर उनके प्रशिक्षण सदा चलते रहते थे।एक एक करके बात करना भी उचित था।पर उस प्रक्रिया में यह दोष है कि कोई प्रतिभाशाली अपना समूचा समय लगाकर भी थोड़े लोगों से संपर्क साध पाता है और एक से दूसरे तक पहुँचने में उसकी सुविधा वाले समय की प्रतीक्षा दूसरे तक पहुंचने में उसकी सुविधा वाले समय की प्रतीक्षा करने में ढेरों समय लग जाता है। उसे व्यक्तिगत समस्याओं के अनुरूप पृथक्−पृथक् परामर्श देना भी संभव हो जाता है। यह प्रयोजन बड़े सभा सत्संगों आयोजनों में नहीं हो पाता। बहुत बड़ी संख्या में जनता के एकत्रित होने पर सामयिक उत्साह तो उभरता है वक्ता के लिए यह सरल पड़ता है कि बहुजन समुदाय तक अपने विचार एक ही समय में पहुँचा देने पर उसे कमी यही रहती है कि व्यक्तिगत समस्याओं के संबंध में प्रथक प्रथक प्रकार के समाधान दे सकना संभव नहीं हो पाता। यों एकान्त विचार विनिमय, विचारगोष्ठी आयोजन और सभा सम्मेलनों का अपना महत्व है।
अब न तीर्थ पुरोहित अपना कर्तव्य पालन करते हैं न आश्रम स्तर की प्रशिक्षण व्यवस्था चलाते हैं और न साधु विरक्तों को ही लोक शिक्षण में निरत देखा जाता है। इन दानों को ही जीवन परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन को लक्ष्य रखकर संपर्क साधना और शिक्षण चलाना चाहिए। पर वैसा कुछ नहीं होता। देव दर्शन और पूजापरक कर्मकाण्डों के सहारे दक्षिणा बटोरने की धुन भर लगी रहती है। देवताओं के एजेन्ट स्वरूप में अपने को प्रस्तुत करके भावुकजनों का सहज lEeku Hkh izkIr djrs gSA bu mHk; i{kh; ykHkksa dks NksM+ dj yksd eaxy dh lsok lk/kuk esa u iqjksfgr oxZ yx jgk gS vkSj u lk/kq leqqnk; dk gh mruk /;ku gS ftruk gksu pkfg,A /kkfeZdtuksa dh nso iwtk ds ihNs euksdkeuk iwfrZ dh bPNk dks?kVk;k gVk;k tkuk pkfg, vkSj /keZ /kkj.kk ls uhfr fu/kkZj.k,oa lekt lsok dks izfrf"Br fd;k tkuk pkfg,A
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