कण कण में निहित है अनुशासन एवं एकत्व

August 1988

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इस विश्व उद्यान को स्थूल दृष्टि से देखने पर इसके नाना घटक अलग-अलग दिखाई देते हैं। पर इसका यह विभेद ऊपरी ही है। सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि ये सभी घटक परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। एकत्व के सूत्र में माला के दाने की तरह पिरोए हुए हैं।

लगभग खरबों कोश मिलकर मानव शरीर का निर्माण करते हैं। पारस्परिक एकता और सद्भाव के द्वारा ही ये अपने को विभिन्न ऊतक समूहों में वर्गीकृत कर लेते हैं और ऊतक मिलकर अवयव बनाते हैं और कई अवयव मिलकर एक संस्थान या तंत्र बनाते हैं। विभिन्न तन्त्रों का समूह ही यह मानवी काया है।

यदि पारस्परिक एकता और सहयोग के इस गुण को हटा दिया जाय तो हम देखते हैं कि शरीर के लगभग सभी कोश स्वतंत्र जीवन जी सकने में सक्षम हैं। शरीर का एक कोश भी जीवित अवस्था में उपयुक्त सेल कल्चर के रूप में रखा जाता है तो वह स्वाभाविक जीवन अवधि पूर्ण करता रह सकता है। वह सभी क्रिया-कलाप पूरे कर सकता है जो कि वह पूर्ण शरीर में करता था। अब प्रश्न वह है कि जब हर कोश स्वयं में पूर्ण है तो यह अपनी स्वतंत्रता क्यों त्यागता है? क्यों नहीं अमीबा पैरामीशियम जैसे एक कोशीय जीवों की तरह एकाकी रहता।

वस्तुतः एक दूसरे के सहयोग सहकार ने ही ज्यादा समर्थ सशक्त रहने की स्थिति उत्पन्न की है। पारस्परिक सहकार का भाव ही ऐसी स्थितियाँ उत्पन्न करता है, जिसमें उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतम उपयोग हो सकें।

एकता के सूत्र में गुँथे हुए शरीर के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों में सहयोग का भाव समाया हुआ है। अनेकों एन्जाइम्स मिलकर भोजन पचाते हैं। प्रोटीन रूप में विद्यमान इन एन्जाइमों का बनाना स्वयं सैकड़ों सहयोगी एन्जाइमों पर निर्भर है। इस प्रकार मात्र भोजन की पाचन प्रक्रिया में ही कई सौ एन्जाइम अपनी भूमिका निभाते हैं। यदि इनमें से एक भी संकीर्ण स्वार्थपरता अपना ले तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है।

पारस्परिक एकता एवं सद्भाव का अनूठा उदाहरण अपनी इस काया में मिलता है। जो बाँटता है उसे स्वयं भी मिलना चाहिए। हृदय का काम है सारी काया में रक्त पम्पकर 99 प्रतिशत वितरित कर देना, परिशोधित रक्त को स्वस्थ ऊतकों तक पहुँचाना। बदले में उसे भी एक प्रतिशत एक पोषण के लिए कोरीनरी धमनियों के माध्यम से मिल जाता है। इस वितरण एवं सहयोग के भाव को हृदय गर्भस्थ अवस्था के तीसवें दिन से अपनाता है और “अहर्निशि सेवामहे” का व्रत ले आजीवन करता रहता है। कभी भी उसमें असहयोग की भावना घर नहीं करती।

इसी तरह हड्डियों का अपना भार तो मात्र 12 प्रतिशत ही है। इतने पर भी बिना न-नुच किए 88 प्रतिशत भार दूसरे अवयवों का ढोती रहती है। जिन पर कम भार पड़ता है वे पतली रहती है। अपना आकार-प्रकार वे वहीं बढ़ाती हैं, जहाँ किसी स्थान पर उन्हें विशेष भार वहन करना पड़ता है। रीढ़ की हड्डियों को देखा जाय तो वे कितनी पतली तथा पोली होते हुए भी सारे शरीर का वजन, सन्तुलन सँभालती हैं। यही बात पैरों के “आर्चेज” पर लागू होती है। वे धनुष की कमान की तरह होते व कमानी की तरह सारी काया का वजन सँभाल लेते हैं। ऐड़ी की मोटी और गले की पतली हड्डियाँ वजन ढोने के अनुपात से ही हैं। उन्हें क्यों पतला रहना पड़ रहा है, दूसरी क्यों बड़ी तथा भारी है। अधिक उत्तरदायित्व उठाने वालों को यदि अधिक सुविधा मिल जाय तो इसमें बराबरी की ईर्ष्या करने की शिकायत कोई क्यों करे? जोड़ों पर संरचना देखते ही बनती है। परस्पर के सहयोग से ही वे कई दिशाओं में मुड़ने में सफल हो जाती हैं।

इस तरह यह दृष्टिगोचर होता है कि अंगों की रचना उनकी कार्य पद्धति में भिन्नता विविधता होते हुए उनमें सहयोग का भाव एक सा है, तथा उन सभी के लक्ष्य की एकता भी सुस्पष्ट है- वह है शरीर को स्वस्थ एवं सन्तुलित बनाए रखना। यह शरीर के समग्र विकास के लिए आवश्यक और अनिवार्य भी है। सहयोग सहकार का सिद्धान्त ही शरीर की तरह ही पूरी सृष्टि को संतुलित बनाए हुए है। प्रकृति के विभिन्न अंगों में अन्तर उनकी रचना आकार और क्रिया पद्धति का हो सकता है, पर लक्ष्य का नहीं। सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, विभिन्न ग्रह नक्षत्र, नदी, पहाड़, झरने, समुद्र सभी आपस में भाईचारा निभाकर विश्व ब्रह्मांड को सन्तुलित और उसके प्रवाह को सुव्यवस्थित बनाए हुए हैं। बाह्य दृष्टि से न तो उनकी रचना में एकरूपता है न क्रिया-कलापों में। किन्तु इस भिन्नता के अन्तराल में एक ही भाव गूँज रहा है, वह है सम्पूर्ण सृष्टि को सन्तुलित सुव्यवस्थित रखना। प्रकृति द्वारा सौंपे गए इस महत्वपूर्ण दायित्व को सभी अंग अवयव अपनी-अपनी तरफ से पूरी तरह से निर्वाह करने हेतु प्रयत्नशील हैं।

विराट् ब्रह्मांड का सन्तुलित प्रवाह सहयोग के सिद्धान्त पर ही आधारित है। जड़ प्रकृति की नहीं चेतन कहे जाने वाले प्राणी भी पारस्परिक एकता के सूत्र में आबद्ध हैं। सम्पूर्ण विश्व के प्राणियों की आश्रय एवं प्रकाशक वैश्व चेतना ही है। इसी का प्रवाह ही जड़ पदार्थों में भी सौंदर्य उत्पन्न करता और सक्षमता प्रदान करता है। प्राणि जगत भी उसी से प्रभावित है। मानव मात्र में उसी की सत्ता है। शरीर का कलेवर कितना ही भिन्न क्यों न दिखे पर सबमें मूल सत्ता की एकता ही है। मानवों में उनके स्वभाव-क्रिया–कलापों की विभिन्नता मात्र बहिरंग की ही है।

व्यक्तिगत एवं समष्टिगत विकास अभिवर्धन की दृष्टि से यह विविधता ठीक ही है। पर जब इस भिन्नता को सत्य मानकर मनुष्य चेतन सत्ता के तथ्य को भुला बैठता है, संकीर्ण स्वार्थपरता उत्पन्न होती है। इससे अपने पराए की भेद-दृष्टि का बीजारोपण होता है। फलस्वरूप इस भेद दृष्टि के मोतियाबिन्द से एकत्व का स्वरूप धुँधला दृष्टिगोचर होने लगता है। मनुष्य-मनुष्य, वर्ग-वर्ग के बीच दिखाई पड़ने वाली भिन्नता ठीक भी है और आवश्यक भी। समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों के कार्य एक समान कैसे हो सकते हैं? जुलाहा कपड़ा बुनता है किसान अन्न उपजाता है तेली तेल का काम करता है तो मोची मरे हुए जानवरों के चमड़े का सदुपयोग। इसी तरह अध्यापक बच्चों को शिक्षित सुसंस्कृत बनाने की जिम्मेदारी वहन करता है। व्यक्तिगत कार्यों में दिखाई देने वाली भिन्नता समाज के विकास में सहायक ही है। पर यह सब है एकता के सूत्र आबद्ध रखने के कारण। इसी दृष्टि से विभिन्नता आवश्यक भी है। माला में विभिन्न मणि–माणिक रत्न पिरोये रहने से सौंदर्य की अभिवृद्धि ही होती है। इसी तरह भिन्नता के अन्तराल में एकता सहयोग के प्रवाहित रहने से समाज का सौंदर्य बढ़ता है। यही उसके विकास में सहायक और आवश्यक भी है। भला हर व्यक्ति अपना-अपना काम छोड़कर यदि एक मात्र अन्य उपजाने का कार्य करने लगे तो अन्यान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कैसे हो? व्यवस्था अव्यवस्था के रूप में बदल जाएगी। सामाजिक विकास भी रुक जाएगा।

एकत्व के सूत्र में सभी घटक आबद्ध है। इसी तथ्य को हृदयंगम करते हुए प्रत्येक मनुष्य को सहकारिता-आदान प्रदान का भाव अपनाना चाहिए। बाह्य विभिन्नता होते हुए भी एकता की अनुभूति पा सकना तथा उससे मिल सकने वाले रसामृत की आनन्दानुभूति मिल जाना तभी सम्भव है। व्यष्टि एवं समष्टिगत जो भी क्रिया−कलाप हमें दृष्टिगोचर होते हैं, वे इसी सूत्र को अपनाने का संकेत दिशा निर्देश देते हैं। सच्चे अध्यात्मवादी सृष्टि के कण-कण से प्रेरणा लेते, जीवन में उतारते एवं सिद्धियाँ पाकर निहाल होते देखे जा सकते हैं। अध्यात्म अनुशासनों को अपनाने के लिए क्या इतनी साक्षियाँ भी पर्याप्त नहीं हैं?


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