कैसे बदलेगा मानव जाति का भविष्य

August 1988

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प्रकृति की अपनी सुनियोजित विधि-व्यवस्था है। उसका घटक सुव्यवस्था से संचालित इतना क्रमबद्ध, नियमानुकूल होता है जिसे देखकर मानवी बुद्धि आश्चर्यचकित ही नहीं, हतप्रभ भी रहना पड़ जाता है। इस समूचे तंत्र को विज्ञानविदों ने अपनी भाषा में परिस्थिति की तंत्र अथवा “इकोसिस्टम “ कहकर निघ्यपित किया हैं इस तंत्र में कहीं भी होने वाली अराजकता सूची व्यवस्था को गड़बड़ा देती है। इस गड़बड़ाने को प्राकृतिक असंतुलन को ही दैवी प्रकोप, विभीषिकाएँ जैसे नाम दिण् जात रहे है।

मानव भी इसी सुच्चय, का परस्पर अन्योन्याश्रित तंत्र का एक घटक है। गत कुछ शताब्दियों से उसने संकीर्ण स्वार्थपरता के जाल में उलझकर इस तंत्र में मनमानी उलटफेर करना शुरू कर दिया हैं। इस अव्यवस्था अनुशासनहीनता ने समूची परिस्थिति को ही गड़बड़ाया हैं। इसी कारण जो प्रकृति अभी तक सीधी सादी गौमाता की भाँति तरह-तरह की सम्पदा का दुग्ध पिला कर मानव अभिवर्धन-पोषण करती आयी थी, वहीं अब क्रुद्ध सिंहनी की तरह सूखा-अतिवृष्टि, भूकंप-ज्वालामुखी-विस्फोट अप्लवार्षाष् महामारी आदि प्रकोपों के रूप में उसकी जान लेने को उतारू है।

प्रकृति का सरलता से आवश्यकता की सीमा के भीतर उपयोग करने की जगह पेट फाड़कर सारा दुग्ध निकाल लेने की प्रक्रिया यूरोपीय देशों ने ही आरंभ की। इसी कारण चिन्तक ओसवाल्ड स्पेन्गरनर ने अपनी एक कृति “हुमनरेस एण्ड इट्स प्रोगेस” में आधुनिकता की दौड़ में भागने वाले यूरोप एवं अमेरिका जैसे राष्ट्रों का पतन (“डिक्लाइन ऑफ नार्थ ब्लॉक”) नाम दिया।

“प्राब्लम्स ऑफ द कन्टेम्पररी वर्ल्ड” नामक पुस्तक में कई विद्वान लेखकों के निबन्ध है॥ इनमें डॉ. ईगार मैक्सीमाँर एवं यूरी प्लेन्टीकोव ने “द इकॉलाजिकल सिचुएशन टुडे एण्ड फ्यूचर ऑफ मैनकाइण्ड” नामक लेख में लिखा है कि प्रकृति के रोष से उत्पन्न प्रकोपों को देखते हुए फैक्ट्री में कार्यरत मजदूरों से लेकर, दफ्तरों के क्लर्क, उच्च श्रेणी वर्ग के अधिकारी तथा इंजीनियर, डाक्टर, प्रशासन वर्ग सभी अपने अस्तित्व के बारे में अनिश्चितता महसूस करने लगे हैं एवं यह बढ़ते हुए तनाव का इन दिनों सबसे प्रमुख्चा कारण है

इटली के अर्थशास्त्री तथा क्लब ऑफ रो के संस्थापक श्री आँरिलियों पैक्की अपने शोध प्रबन्ध “ द प्रिडिकामेण्ट ऑफ मनकरइएड” में लिखते है कि “प्रकृति उत्तेजना से हुई गड़बड़ियों तथा उत्पन्न या संपन्न या आसन्न विभीषिकाओं से विश्व का हर सत्य सोचने वाला नागरिक चिन्तित है। किन्तु हर स्थान के वैज्ञानिक, मनीषी समस्या निवारण संबंधी जो उपाय खोज रहे हैं, उनसे ऐसी समस्याएँ कम होने के स्थान पर बढ़ रही है।” उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करत हुए अपनी इस कृति को समझा जा रहा है जब कि वास्तविकता यह है कि विभीषिकाओं की जड़ प्रकृति न होकर मानव स्वयं हैं, उसकी अपनी दुर्बुद्धि है।” अ अपनी इस कृति में वे आगे कहते हैं कि समष्टिगत इन समस्याओं को किसी राष्ट्र अथवा क्षेत्र विशेष की समस्या न मानकर विश्व भूमण्डल की ‘ग्लोग’ की समस्या माना जाना चाहिए। श्री पैक्की ने इन्हें वृहत वैश्व समस्याएँ (वर्ल्ड मेक्रोप्राब्लम्स) नाम दिया है तथा इन समस्याओं को मुख्यतः पाँच भागों में विभाजित करते हुए स्पष्ट किया हैं। इनमें से प्रथम है-जनसंख्या की अमर्यादित अभिवृद्धि तथा पृथ्वी द्वारा इस भार को सह पाने की अक्षमता। द्वितीय है प्राणदायक स्रोतों का अभाव। तृतीय है वातावरण में मिली विषाक्तता। चतुर्थ है मनुष्य के चिंतन के स्तर में रुकावट एवं गिरावट तथा पांचवीं समस्या जिसे वह कहते है कि उसके समाधान में ही सभी का समाधान है। वह है-वर्तमान समय के अनुरूप एक ऐसे सजि और ग्रारह दर्शन की आवश्यकता, जो मनुष्य की बुद्धि एवं चिन्तन को उलटकर उसे संहारक की जगह सृजनात्मक बना दे। मूलतः तथ्य वहीं है अध्यात्म के स्तर तक पहुँचकर वान द्वारा अपनी दिशा अधो से ऊर्ध्वगामी बनाना।

उपरोक्त विचारो का समर्थन “द लिमिट्स टु ग्रौथ” नामक पुस्तक में ‘म्साचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी “ के डी. एच. मीडीज, डी.एल.मीडीज, जे. रेण्डस्र आदि अध्येताओं ने किया है। पर्यावरण का “डीप एकालोजी” के स्तर पर अध्ययन का समर्थन का समर्थन करने वाले इन वैज्ञानिकों का मत है कि पृथ्वी के अंतराल में छिपे भण्डागार की एक सीमा है। यदि मनुष्य अपनी जनसंख्या को स्थिर नहीं कर लेता तथा अपने जीवनक्रम से विलासिता को हटाकर व्यवहार में सादगी एवं साधकों के सदुपयोग की नीति का समावेश नहीं कर लेता तथा मनुष्य जाति अगली शताब्दी का मध्याह्न शायद ही देख पाए। इन्हीं विचारों को सू.एस.ए.केत्रजेत्र फाँस्टरर ने “अबन्नडायनेमिक्स” नामक ग्रंथ में स्वीकार किया हैं। उन्होंने अपनी कृति में शहरीकरण की वृति को लताड़ते हुए भारत के प्राचीन जीवन दर्शन एवं समस्वरता-सादगी से भरे जीवनक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उसे अनुकरणीय बताया है, साथ ही यह भी लिखा है कि विडम्बना यही है कि भारतवासी दूसरों द्वारा अनुकरणीय कहे जाने वाले चिन्तन को स्वयं भुलाते एवं छलावे भरे पाश्चात्य जीवन को अपनाते चले जा रहे हैं।

ऐसे भी चिन्तक हैं जो जे. फारेस्टर, मीडोज व रेर्ण्डस की मान्यताओं की हँसी उड़ाते हुए उन्हें आदिम−युग की ओर लौटने की प्रेरणा देने वाली विचारधारा मरनते है। संसेक्स विश्वविद्यालय के ये अध्येता कहते हैं कि शहरों से गाँवों की और लौटकर स्वच्छ हवा एवं शुद्ध जल का उपयोग करने तथा स्वस्थ जीवन जीने की बात पिछड़ेपन की निशानी है। वे कहते हैं कि पूर्वात दर्शन की प्रशंसा करने वाले संभवतः अगले दिनों यह कहने लगेंगे कि जंगल में जाकर पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनो, बन्दरों की तरह उछलो, कूदो, नाचो एवं फल खाते हुए प्रगति युग से दूर निर्जन में जीवन खपा दो। ऐसे व्यक्तियों में कैनेथ डेहल बर्ग, डीमोल एवं गिबी को प्रमुख है। इन आलोचकों का अभिमत है कि “विकेन्द्रीकरण की पद्धति को माना जाय तो मनुष्य को जंगल में बन्दर की तरह पुनः रहना होगा। बाज की आधुनिकता के जीवन की बहुमूल्य उपलब्धियां से स्वयं को वंचित कर डार्विन की उक्त “मनुष्य का पुरखा बन्दरि” इसे प्रमाणित करना कहाँ की बुद्धिमानी हैं?”

उपरोक्त आधुनिक विचारकों के उपभोगवादी चिन्तन का प्रत्युत्तर “इकालाँजिस्ट” पत्रिका में डॉ. पेस्टल एवं मजाँकोविक ने “ए स्टे्रटजी ऑफ सरवाइवल” नामक निबन्ध में दिया है। अपने विद्वतापूर्ण निबन्ध में पर्यावरण की महत्ता को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि “ससैक्स विश्वविद्यालय के उपरोक्त विद्वानों के कथन को किसी भी स्थिति में वाक्चातुर्य से अधिक नहीं माना जाना चाहिए। आज की परिस्थितियाँ व तद्जन्य परिणतियाँ किसी से छिपी नहीं हैं। यदि मनुष्य ने अपनी जीवनशैली में अछपी परिवर्तन नहीं किया तो संभवतः वह जंगलों में रहने के लिए भी अपना अस्तित्व न बचा पाए, यहाँ तक कि आश्रय लेने को जंगल भी शेष न बचे।”

डॉ. आरेलियो पेकी अपने एक ग्रन्थ “जीरोग्रोथरेट” में जनसंख्या की स्थितरता की बात बताते हुए इस तथ्य पर विशेष बल देते हैं कि प्रकृति के साथ समस्वरता स्थापित की जाय। वे कहते है कि मनुष्य मात्र इसी को लक्ष्य बना ले तो अधिकाँश समस्याओं से मुक्ति पा जाएगा। इ.के. जयोदोरोवच अपनी कृति “इन्टरएक्शन ऑफ सोसाइटी एण्ड नेचर” में उपरोक्त कथन पर अपनी सहमति व्यक्त करते हुए कहते है कि प्रकृति पर पूर्णतया नियंत्रण स्थापित करने में जो बुद्धिमत्ता समझी जा रही है तथा उसके घटकों काँ जिस तरह नष्ट कर उसे दुहा जा रहा है, वह प्रस्तुत बुद्धिमत्ता न होकर बुद्धिहीनता ही है।

क्लब ऑफ रोम नामक संस्था के विचारकों ने “ग्लोगल इक्वीलिब्रिसम” या वैश्व सामंजस्य की बात कहत हुए मनुष्य एवं प्रकृति के विभिन्न घटकों के साथ सामंजस्य स्थापित किये जाने की बात पर बल देते हुए पूर्व में की गई भूलों के परिमार्जन की बात कही है। राजनैतिक स्तर पर श्री विली ग्राँट (भूतपूर्व चाँसलर पत्र जर्मनी) ने अपनी पुस्तक “नार्थ-साउथ ए प्रोग्राम फॉर सरवाइवल” (कैंब्रिज, ण्म.आय.टी. प्रेस) में एवं अभी-अभी पिछले दिनों सोवियत रिपब्लिक के कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव मिखइल गोर्वेचाव ने सोवियत काँग्रेस के समक्ष विश्व की समस्याओं पर अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि “हम सभी को प्रकृति के हितों का संरक्षण करना चाहिए तभी वह हमारा संरक्षण कर सकेगी। पर्यावरण को ग्लोबल स्तर पर ही देखा जाने पर विश्व कर समस्याएं सुलझ सकेंगी।

ब्ी.आ. वेनेंदस्की ने अपनी कृति “बायोजियों केमीकल ऐसेज” ने मानव के तीन स्तरों तथा अद्यतन परिस्थितियों का सुसंबद्ध विवेचन प्रस्तुत किया है। उन्होंने ये तीन स्तर नूध्स्फियर अर्थात् मानवी चिन्तन, बायोस्फियर अर्थात् जैविक स्तर एवं टेक्नोस्फियर अर्थात् तकनीकी उपलब्धियों का स्तर बतायें है। वे अपनी इस कृति में लिखते है कि मनुष्य की मानसिक गड़बड़ी के कारण ही उसके चिन्तन ने दिशा विहीन होकर असम्बद्ध एवं अमर्यादित टेक्नोस्फियर का निर्माण किया है, जिसने सभी वर्जनाओं को लांघना आरंभ कर दिया है। यही आज की व्यक्तित्व समष्टिगत विभीषिकाओं का मूलभूत कारण है।

इसी तथ्य को यदि और सरल ढंग से लिखा जाय तो सह कहा जा सकता है कि मनुष्य के दिमागी स्तर की गड़बड़ से उत्पन्न विकृत चिन्तन ने ही कल-कारखाने, सुविधा के साधन, परमाणु हथियारों से पृथ्वी को पाट देने की होड़ शुरू की है। इससे उत्पन्न प्रदूषण से जैविक स्तर का अस्तित्व खतरे में पड़ गया दीखता है। इसी कारण डॉ. वेर्नेद्स्की सारी गड़बड़ियों का मूल कारण नूस्फियर अर्थात् मानवी चिन्तन को मानते हैं।

एम.एम. कैम्शिलोव “मैन एण्ड लिविंग नेचर” में उपरोक्त कथन में विश्वास व्यक्त करते हुए तकनीकी स्तर क्रम को मर्यादित करने तथा मशीनों से किये जाते है उनमें से अधिकाँश मनुष्य स्वयं अथवा अपने कनिष्ठ गंधु यथा पशुओं के माध्यम से कर सकता है। इस प्रकार इस कथन से वे स्वयं के गाँधीवादी होने की झलक देते व ग्राम स्वराज्य की नीति को प्रधानता देते देखे जाते है। वे कहते है कि ग्रामीण जीवन का अवलम्बन नहीं देते लिया गया, तो हो सकता है मनुष्य अपना अस्तित्व ही खो बैठे एवं डाँयपासोयर्स, पेरोपेट्स आदि की तरह उसकी गिनती एक्सटिंक्ट एनिमल्स में होने के लगे। हैनरी बर्ग साँ के अनुयायी इ.ले. राँय ने अपनी फ्रेंच कृति “ल एक्सीजेन्स आयडिएकलस्अ एट ले. फेंट डे ल इवाँल्यूशन “ में तथा पियरे टेलहार्टद चार्डिन ने भी “नू स्फियर के परिवर्तन, परिवर्तन तथा विकास की आवश्यकता पर बल दिया है। उनके अनुसार इस स्तर को उलट कर सीधा किये बिना परिथति की तन्त्र का सुचारु रूप से चलाने की बात उसी तरह होगी, जिस तरह पेड़ बढ़ाने के लिए उसकी जड़ें काटकर पत्ती को सींचा जाए।

“इ कालाँजिकल सियुएशन टुडै एण्ड द फ्यूचर टुडं एण्ड ऑफ मैनकाइण्ड “ नामक ग्रंथ में डॉ. इगार मैक्सीभोव स्वीकार करते हैं कि वर्तमान में मनुष्य के मानसिक चिन्तन की विकृति को सुधारने की तथा सर्वग्राही तर्क-समस्त दर्शन तथा जीवन शैली को अपनाने की आवश्यकता है। ऐसा होने पर ही संभावना है कि संभावना है कि स्थिति में विधेयात्मक परिवर्तन हो सके।

वस्तुतः चिन्तन ही वह आयाम है जहाँ से स्थूल कार्यों की अभिव्यक्ति की दिशा नहीं बदली तो भविष्य में प्रकृति का कोई एक परमाणु अथवा परमाणु समुच्चय मात्र नहीं प्रभावित होगा बल्कि समूचा वातावरण एक ऐसा जंजाल बनकर रह जाएगा। यह कहा जा सकता है कि भविष्य वाणियाँ हमेशा सत्य नहीं होतीं किंतु वे असत्य तभी होती है जब वर्तमान का ढर्रा बदला जाय, स्थिति में परिवर्तन आए। आने वाले दिनों में मानव जाति का भविष्य उसकी मनःस्थिति पर निर्भर है यदि उसमें क्रान्ति लायी जा सकी, उसके वर्तमान निषेधात्मक संकल्प बदले जा सके तो निश्चित ही भविष्य उज्ज्वल होगा।


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