पिण्ड में निहित शक्ति का-भण्डार

August 1988

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

हमारा शरीर शक्ति का भण्डागार है। अपनी इसी काया में समस्त तीर्थों, समस्त ऋषियों, देवताओं एवं समस्त शक्तियों का निवास है। विराट् में सन्निहित सब कुछ इस छोटे से काय कलेवर में सार रूप में विद्यमान है। आत्मसत्ता में सन्निहित विश्व की समस्त विभूतियों को यदि खोजा और जगाया जा सके तो जीवात्मा का देवात्मा एवं परमात्मा बनने का अवसर मिल सकता है। इस अन्वेषण प्रयास को ब्रह्म-बल उच्चकोटि का लाळा उळाने की प्रक्रिया चक्रबेधन रूप में जानी जाती है।

पृथ्वी पर छः कवच चढ़े हुए है। इन्हीं के कारण वह उल्कापातों, धूमकेतु और तड़ित वर्षायों से आत्मरक्षा कर पाती और निरन्तर विकसित होती है। यह कवच है (1) आयनोस्फियर (2) स्ट्रेटोस्फीयर (3) ट्रोपोस्फीयर (4) मीजास्फीयर (5) थर्मोस्फीयर ओर (6) एक्जोस्फीयर। यह सैकड़ों मील ऊपर तक के घेर को संभाले रहते है इसी प्रकार छः चक्रों का शक्तिशाली आवरण आत्मा के उपर सुदृढ़ आच्छादन की तरह फैला हुआ है और उसकी दैत्य-दुर्गमों से रक्षा करता है इतना ही नहीं यह चक्र विद्युत उत्पादन पावर स्टेशन की तरह चैतन्य ऊर्जा उत्पन्न करत है, जिनके सहारे मनुष्य महत्वपूर्ण काम कर सकने में समर्थ होता है।

योग शास्त्रों के अनुसार नीचे से ऊपर की ओर काया में स्थित अन षट्चक्रों के नाम क्रमशः (1) मूलाधार (2) स्वाधिष्ठान (3) मणिपुर (4) अनाहत (5) विशुद्ध और (6) आज्ञाचक्र है। सातवाँ “सहस्रार” इनका अधिपति सूत्र संचालक हैं। इन सभी चक्र प्रवाहों को झरने के उद्गम की उपमा दी जा सकती हैं जहाँ पानी बहता है। इन्हें ज्वालामुखी भी कहा जा सकता है, जहाँ से कि प्रचण्ड आग, धुआं और लावा निकलता है। इन्हें चक्रवात एवं भंवर के रूप में भी माना जा सकता है जिनमें असीम शक्ति होती है। यह स्थान छोटे रूप में हैं, पर उनका उद्गम जहाँ तहाँ से फूटता है और प्रवाह को मूल धारा से सहस्रार तक नियमित रूप से जारी रखे रहता है। यदि इन चक्र संस्थानों को योगाभ्यास द्वारा जाग्रत कर लिया जाए तो अपने भीतर ही वह सबकुछ मिल सकता हैं जिसकी तलाश हम बाहर करते और भटकते है।

यों दैव मन्दिरों में तथा लोक लोकान्तरों में देवशक्तियाँ संव्याप्त है, पर जिनकी समीप और जितनी संजीव अपने अंतरंग में हैं- उतनी अन्यत्र नहीं। जितनी सुविधापूर्वक उन्हें अपने भीतर पाया जा सकता है, उतनी सरलता और सफलता अन्यत्र नहीं मिल सकती। अन्तरंग में कहा क्या है, इसका वर्णन करते हुए संहिता (2/1/2) में कहा है - “ यह शरीर ब्रह्माण्ड संज्ञक है। जो ब्रह्माण्ड में है वहीं इस शरीर में भी मौजूद है। इसी शरीर में सुमेरु सप्तदीप तथा समस्त सरिताऐं, सागर, पर्वत, क्षेत्रपाल ऋषि, मुनि, नक्षत्र ग्रह, तीर्थ, पीठ देवता निवास करते है।” महायोग विज्ञान एवं जाबाल दर्शनों में भी इसी तरह की विशद व्याख्या की गई है। योग चूड़ामणि उपनिषद् में कहा गया है।

“षट्चक्र, षोडश आधार और पंच आकाशों को जो अपनी देह के भीतर नहीं देखता, उसका सिद्धि कहा मिल सकती है?

सत लोक आकाश में एढना व्यर्थ है। वे किसी ग्रह नक्षत्र के रूप में नहीं है, वरन् आत्म सत्ता में सप्तचक्रों के रूप में ही उसका अस्तित्व है। महायोग विज्ञान में कहा गया है कि भूःलोक मूलाधार में भुवःलोक स्वाधिष्ठान में, स्वःलोक नाभि स्थान में, महःलोक हृदय में, जनःलोक कंठ में तपःलोक ललाट में एवं सत्य लोक ब्रह्मरंध्र में विद्यमान है। जहाँ स्थान मात्र गिना दिये गये है वहाँ उन स्थानों में अवस्थित चक्रों का ही संकेत समझा जाना चाहिए। प्राणायाम मन्त्र में गायत्री के सात सात व्याहृतियों का प्रयाग होता है। भूः भवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्। यह सात व्याहृतियां है। इन्हें सप्त ऋषि व सप्त लोक भी कहा गया है। अग्नि पुराण के अनुसार वे सातों ऋषि है- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज। इन सातों की सतता सप्त चक्रों में विद्यमान है। “प्राणः वाऋषयः” अर्थात् सात प्राण ही सात ऋषि है। चक्रों में अवस्थित प्राण चेतना के अधिपति यही हैं। यजुर्वेद में भी कहा जाता है”शरीर में सात ऋषि निवास करते है। वे सतर्कता पूर्व निरन्तर उसकी रक्षा करते है। इनका अनुग्रह सात लोकों, सात द्वीपों, सप्त सरोवर, सात समुद्रों, सात पर्वतों, सात नदियों का स्वामित्व उपलब्ध होने के रूप में मिलता है” तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्माण्ड सत्ता की प्रतीक आत्म सत्त पर अपना अधिकार आधिपत्य स्थापित होता है। अपनी क्षमताओं को समझने, उन्हें उभारने और उपभोग करने का कौशल प्राप्त होता है। जिसे यह सफलता मिल सकी समझना चाहिए, उसे ब्रह्माण्ड का साम्राज्य मिल गया।

आत्म सूर्य के सप्त अश्व प्रमुख चेतना केंद्रों के रूप में माने गये है-प्राण, चक्षु, जिह्वा, त्वचा, कान, मन और बुद्धि इन सातों को अश्व की संज्ञा दी गई है। दिव्य जीवन सता में इन्हीं सातों का वर्णन इस प्रकार मिलता है-देव, ऋषि, गंधर्व, पन्नग, अप्सरा, यक्ष और राक्षस। वैदिक देवताओं में इन्हीं का दूसरे रूप में वर्णन है प्रजापति, अर्यमा पूषा, त्वष्टा, जिन सात छन्दों में किया गया है वे है गायत्री, उष्णिक, अनुष्टप, बृहती, पक्ति, त्रित्रट एवं जगती।

स्वर मंजूषों में सप्त चक्रों का सप्त स्वरों की संज्ञा दी है और कहा है कि इस सितार की कोई साधना ठीक प्रकार कर सके तो उससे जैसी भी, जिस प्रकार की भी राग-रागिनी को बनाने, सुनने-सुनाने की आवश्यकता हो उसकी पूर्ति इसी माध्यम से पूरी की जा सकती है।

वस्तुतः षट्चक्र नाम ही भ्रामक है। एक तरह से उन्हें सप्त चक्र ही कहना चाहिए। सहस्रार को इस चक्र श्रृंखला से अलग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक चक्र भी सात आधारों से बना होता है। उनके स्वरूप निर्धारण की जो व्याख्या विवेचना योगशास्त्रों साधना शास्त्रों में की गई उसमें प्रत्येक के सात-सात विवरण दिये गये है (1) तत्व बीज (2) वाहन (3) अधिदेवता (4) दल (5) यन्त्र (6) शब्द (7) रंग। इन्हीं विशेषताओं की भिन्नता से उनके अलग विभेद किये गये है। अन्यथा बाहर से तो उनकी आकृति एक जैसी ही है। उनकी क्षमताओं, विशेषताओं प्रतिक्रियाओं का विवरण इन्हीं सात संकेतों के रूप में समझा जा सकता है।

महर्षि अरविन्द ने सहस्रार सहित षट्चक्रों की अतिमानसिक चेतना की सात परतों अतिमानस के सात सूर्यों के रूप में वर्णन किया है। इनके अनुसार सहस्र दल ज्ञानशक्ति का - सत्य का केन्द्र है, जो विकसित होने पर अतिमानसिक सृष्टि को जन्म देता है। आज्ञाचक्र अतिमानसिक ज्योति-संकल्प शक्ति का केन्द्र है जो अपने भीतर से ज्ञानशक्ति को विकीर्ण करता है। विशुद्ध चक्र शब्द ब्रह्म का एवं अनाहत चक्र-प्रेम, सौंदर्य और आनन्द का केन्द्र है। नाभिचक्र अतिमानसिक जीवनी शक्ति का स्त्रोत है। स्वाधिष्ठान-शक्ति किरणों का सूर्य हैं जो क्रिया शक्ति को वितरित करता और उसे ठोस आकारों में ढाल देता है। मूलाधार चक्र पदार्थ शक्ति और आकार शक्ति का सूर्य है जो अतिमानसिक जीवन को साकार रूप सृष्टि को स्थायित्व प्रदान करने की शक्ति से युक्त है। सप्त चक्रों का जागरण मनुष्य को अतिमानव देवमानव तक ऊँचा उठा देता है।

शारदा तिलक तंत्र में चक्रों के जागरण होने पर अनेक प्रकार के दोष दुर्गुणों का शमन और अभावों की पूर्ति होने की चर्चा की गई है जो बुद्धि संगत भी मालूम पड़ती है और अनुभूति परक भी। इसमें ग्रन्थकार ने लिखा है कि मूलाधार से विनोदीवृत्ति जाग्रत होती है। यह काम क्रीड़ा, उत्साह और रसास्वादन का उद्गम है। स्वाधिष्ठान के जानने पर क्रूरता, संदेह-आशंका जैसे दुर्गुणों का नाश होता है। मणिपूर चक्र के जागरण से तृष्णा, ईर्ष्या, भय, निराशा, हीनता, मोह, अरुचि, घृणा-भावनाओं का समापन होता है। अनाहत चक्र के न जागने पर लिप्सा, छद्म, कुतर्क, चिन्ता, दंभ, अविवेक, दर्प आदि छाये रहते है। इनके मिटते ही दूरदर्शी विवेकशीलता जाग्रत होती एवं वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना विकसित होती है। विशुद्ध चक्र के जागरण से कला-कौशल की विभूतियाँ और विशेषताओं का जागरण हाता हैं आज्ञा चक्र में दूर दृष्टि, दिव्य दृष्टि, सूक्ष्म दृष्टि और अष्ट सिद्धियों का निवास है। सहस्रार ब्रह्मसत्ता का निवास स्थान है।

ग्रन्थकार ने मूलाधार का स्थान मल-मूल छिद्रों के मध्य, स्वाधिष्ठान का उससे कुछ ऊपर, मणिपूर का नाभि की सीध, अनाहत को अदय की सीध, कंठदेश में विशुद्धि का और भू मध्य भाग में आज्ञाचक्र बताया है। अनुमान परक उल्लेख मात्र है। वस्तुतः यह सब होते मेरुदण्ड की मध्यवर्ती सुषुम्ना नाड़ी में ही है।

इन सप्त चक्रों का जागरण गायत्री की उच्च स्तरीय साधना से संभव होता है। तन्त्र कौमुदी में कहा भी गया है कि “मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र तक विस्तृत षट्चक्र जिसके अवगाहन से जागरण होता है उसे गायत्री कहते है। “इसकी उपासना से सहस्रार सहित सभी चक्रों और पंकरघ्शों की साधना एक साथ सम्पन्न होती है। इसी में देव साधना, ऋषि उपासना, समग्र उत्कर्ष, जीवन लक्ष्य, सर्वतो मुखी प्रगति विकास उल्लास की समस्त तत्वों का समावेश हैं।

उपरोक्त प्रतिपादनों यह स्पष्ट संकेत है कि हर स्तर की क्षमता बीज रूप से अपन भीतर विद्यमान है। समस्त दैव शक्तियाँ, ऋषि तत्व हमारी जीवन सत्ता में सप्त चक्र बनकर विद्यमान है। जो इन शक्तियों, ऋषियों के सान्निध्य में रहने की उनका अनुग्रह प्राप्त करने की साधना करता हैं वह उन आकाश स्थित सात तारागणों की श्रृंखला के रूप में चमकने वाले अमर सप्तऋषियों की तरह ब्रह्मवर्चस सम्पन्न बनता हैं श्रद्धा−विश्वास पूर्वक की गई गायत्री की उच्चस्तरीय साधना इस संदर्भ में सुखदायी सत्परिणाम प्रस्तुत करती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles