तद्विज्ञानेन परिपश्यन्ति धीराः

December 1987

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ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करने वाले नास्तिकों का मत है कि ईश्वर नामक अज्ञात सत्ता में विश्वास रखने से क्या लाभ है? यह मात्र एक अंधविश्वास है। जब विज्ञान के उपादान ईश्वरीय सत्ता को प्रमाणित न कर पाए तो हम इसे क्यों मानें? इस प्रकार की बातें नास्तिकों की चर्चा से जुड़ी कही जाती हैं। किंतु यह एक चिंतनीय बात है। क्या हम अपने जीवन में उन्हीं बातों को मानते— स्थान देते हैं, जिनका अस्तित्व विज्ञान द्वारा प्रमाणित हो? इस प्रश्न का एकमेव जवाब है— नहीं। जीवन से ऐसे कितने ही तथ्य एवं मूल्य जुड़े हैं, जिनके स्वरूप के संबंध में पुष्टि हेतु विज्ञान मौन है। उदाहरण के लिए नीतिशास्त्र को ही लें। विज्ञान की दृष्टि से यह निरर्थक ही है। वस्तुतः जिसे हम विज्ञान मानते हैं,वह मात्र पदार्थ विज्ञान है। इससे ईश्वरीय चेतना के सूक्ष्म रहस्यों की, जीवन मूल्यों की, गवेषणा भी कैसे की जा सकती है?

अनेकों बातें ऐसी है, जो नास्तिकों की दृष्टि में अर्थहीन हैं। उदाहरणार्थ इनका मत है कि “अंगनालिंगनाज्जन्यं सुखमेवपुमर्थता” अर्थात् “स्त्री का आलिंगन ही परम पुरुषार्थ है।” पदार्थ वैज्ञानिकों की दृष्टि में भी नर और मादा का यौन संबंध सहज और स्वाभाविक है। यही नहीं, वही मनुष्य का एकमेव लक्ष्य होना चाहिए, यह उनकी भोगवादी नीति कहती है। पशु-पक्षी भी ऐसा करते हैं। उसमें माता-पिता, भाई-बहिन जैसे संबंध कहाँ? परंतु मानव समाज में माता, बहिन या पुत्री के साथ यौनाचार की कल्पना भी हेय है। यदि वैज्ञानिक कसौटी मानकर सदाचार की मर्यादा का उल्लंघन किया जाएगा तो समाज में विकृति ही आएगी। विवेकीजन इसे न मानना ही उचित समझते हैं।

विज्ञान के मतानुसार जीव,जीव का भोजन है। प्रत्येक प्राणी के लिए स्वार्थपरता-उदरपूर्ति और प्रजननप्रधान जीवन जीना ही एकमात्र लक्ष्य होता है। स्वार्थपरता प्रधान चार्वाक सदृश लोगों के मतों “यावत्जीवेत् सुखंजीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत”, विलासिताप्रधान वचनों का विरोध विज्ञान के आधार पर कैसे किया जाए? पर यदि दया, सेवा, स्नेह, करुणा, सहिष्णुता, त्याग, सहयोग-सहकार जैसे सद्गुणों को मानव जीवन से निकाल दिया जाए तो सामाजिक सुख, शांति स्वप्नमात्र रह जाएगी।

डार्विन जैसे विकासवादी भय को प्रत्येक प्राणी का स्वाभाविक धर्म मानते हैं तथा जानस्टुअर्ट मिल तथा उनके सहयोगी यूटीलिटेरियन भौतिक सुखों को ही जीवन में प्रधानता मानते हैं। इसकी प्राप्ति हेतु सभी प्रकार के कर्मों को उचित ठहराते हैं। यदि इन दोनों को बात का मान लिया जाए भय को सर्वथा त्यागकर सुखों की किंचित मात्र भी इच्छा न रखकर, जो वीर मातृभूमि के लिए बलिदान हो जाते हैं अथवा देश समाज लोकहित के लिए अपना समस्त जीवन कठोर तितिक्षापूर्वक बिता देते हैं, ऐसे लोग इनकी दृष्टि में मूर्ख ही कहे जाएँगे। वे जानबूझकर कठोरता क्यों अपनाते हैं, इसका कोई उत्तर इनके पास नहीं हैं। इस प्रकार यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि विज्ञान अभी ईश्वरीय सिद्धि-असिद्धि विषय में नितांत बौना है।

नास्तिकवाद के मतावलंबियो का मानना है कि प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर जिसकी सत्ता सिद्ध हो उसे ही माना जाए, परंतु यह तर्क भी उचित नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण को आधार मानकर हर चीज का सिद्ध कर सकना असंभव है। उसके द्वारा तो यह भी सिद्ध किया जा सकना असंभव है कि हमारा पिता कौन है? पर माता की साक्षी को इसके लिए पर्याप्त प्रमाण मान लिया जाता है।

ईश्वर स्थूलनेत्रों से नहीं दिखाई देता, अतएव उसे न माना जाए। नास्तिकों का यह तर्क भी निरर्थक और सारहीन है। अनेकों वस्तुएँ अपने जीवन में ऐसी हैं जो दिखलाई तो नहीं पड़ती, पर अनुभवगम्य हैं। उदाहरणार्थ सरोवर में बादल से गिरे जल बिंदुओं को कोई देख पाता है? यद्यपि तारागण दिन में भी विद्यमान रहते हैं, पर सूर्य के प्रकाश के कारण क्या उन्हें दिन में देख पाना संभव है? अत्यंत सूक्ष्मवस्तुएँ भी हमें दिखाई नहीं देती। दूध में मक्खन की सत्ता होती है पर दिखलाई नहीं पड़ता। इसी तरह फलों की मिठास और जल में घुला नमक, दिखाई नहीं पड़ता; पर इनमें उपरोक्त गुण नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। न्यूटन ने पृथ्वी की आकर्षणशक्ति को कहाँ प्रत्यक्ष देखा था? उनके साथ तो केवल सेब के गिरने की घटना ही प्रत्यक्ष हुई। आकर्षणशक्ति तो अदृश्य ही रही। अतएव प्रत्यक्ष नहीं है, इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उसका सर्वथा अभाव है।

प्रत्यक्ष प्रमाण आज के अर्धविकसित विज्ञान से नहीं मिल पाते, केवल इसी कारण यह मान लिया जाए कि ईश्वर का अभाव है, यह युक्ति संगत नहीं हैं। मानव जीवन की अनेकानेक समस्याओं की उलझी गुत्थियाँ अध्यात्म विज्ञान से सुलझती हैं, जिसे पदार्थवादी अपनी अंधी दौड़ से भूलते जा रहे हैं। ईश्वर का अस्तित्व भी अध्यात्म विज्ञान से सिद्ध होता है। तपश्चर्या में रत मनीषी, ऋषिगण अपनी दिव्यदृष्टि से उस परम तत्त्व की अनुभूति भी करते हैं।

इस नाना-विध सुरम्य सृष्टि को बनाने वाला परम-पिता परमेश्वर है। कर्त्ता के बिना कोई क्रिया नहीं हो सकती। पेंट, ब्रश, बोर्ड आदि सभी सामान यदि इकट्ठे कर दिए जाएँ तो भी बिना चित्रकार के कोई चित्र बन सके, यह असंभव है। समग्र दृष्टि का संचालन करने वाला, कोटि-कोटि जीवों में चेतना का संचार करने वाला, सर्वशक्तिमान, नियंता एक ही कारीगर है। प्रकृति का अणु-अणु उससे ओत-प्रोत है। विश्व की सुंदरता— सुरम्यता में उसी की अभिव्यक्ति है। जिस प्रकार सागर और उसकी एक बूँद में तत्त्व दृष्टि में कोई भेद नहीं, वह उसी का अंश है। उसी तरह आत्मा और परमात्मा में भी कोई विभेद नहीं। परमात्मा का शाश्वत-चिरंतन अंश ही परमात्मा है। परंतु जिस तरह बादलों के कारण सूर्य स्पष्ट दृष्टिगोचर नहीं होता है, उसी तरह अज्ञान से भावित होने के कारण हम आत्मतत्त्व से विमुख रहते हैं और यथार्थता से विमुख होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं।

इस विश्व में हम देखते हैं कि कोई प्राणी सुखी जीवन व्यतीत करता है, परंतु कोई पीड़ा-कष्ट से दुःखी रहता है। जबकि सुख की प्राप्ति सभी की इच्छा है फिर यह विवशता क्यों? कोई गधा, बैल, चूहा बनता है, कोई सुसंपन्न परिवार में जन्म लेता है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई ऐसी नियामक सत्ता है, जो हमारे कर्म के अनुरूप व्यवस्था देती है। समाज की आँखों, पुलिस की दृष्टि में धूल झोंकना संभव है; पर घट-घटवासी परमेश्वर की दृष्टि से धूल झोंकना संभव नहीं। यही कारण है कि आस्तिकता को मानने वाले, सच्चे अर्थों में परमेश्वरपरायण व्यक्ति प्यार, स्नेह, उदारता जैसे सद्गुणों को धारण करते और अनीति, अत्याचार, दुष्टता से सर्वथा दूर रहते हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि जो “पश्यत्य” चक्षुश्यश्रण्येत्यकर्ण” बिना आँखों से देखता और बिना कानों से सुनता, ऐसी सर्वव्याप्त नियामक सत्ता हमारी अनुशासनकर्त्ता है। जबकि कामू, सिजविक जैसे नास्तिक स्वतंत्र आचारवादियों ने इसको कोई महत्वपूर्ण नहीं जाना है।

दूरदर्शी तत्त्ववेत्ता ऋषियों ने मानव जीवन में आस्तिकता को जो महत्वपूर्ण स्थान दिया है वह उन्हीं के सूक्ष्मदृष्टि का परिचायक है। उन्होंने अपनी परिष्कृत सूक्ष्मबुद्धि से यह जान लिया था जो स्वभावतः बहिर्मुखी मनुष्य अपनी बुद्धि और प्रकृति का दुरुपयोगकर पथ भ्रष्ट हो सकता है तथा शांति-सुव्यवस्था में बाधक सिद्ध हो सकता है। उसे कुमार्ग पर जाने से बचाने तथा उसके जीवन के समग्र विकास के लिए उन्होंने आस्तिकता को जीवन के सर्वांगपूर्ण विकास की आधारशिला बनाया। परमेश्वर सर्वत्र व्याप्त है। वह सबका नियामक, नियंता और समदर्शी है, इन तथ्यों को हृदयंगम कर एक आस्तिक व्यक्ति अनीति से दूर रह स्वयं से सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन करता है। आस्तिकवाद ही समाज की प्रगति का मूलभूत आधार है, इसे सुनिश्चित माना जाना चाहिए। आज की सारी समस्याएँ जो मानवी दुर्बुद्धिजन्य है एवं दैवी प्रकोप की परिणति मानी जाती हैं, देखते-देखते मिट सकती हैं, यदि आस्तिकता के दर्शन से जन-जन को अनुप्राणित कर दिया जाए।


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