एक लोभी भक्त किन्हीं सिद्धपुरुष के पास जाया करता था। इच्छा उनके आशीर्वाद से बहुत धन प्राप्त करने की थी।
भक्त को बहुत दिन आते और सेवा करते बीत गए, तो उसने अधिक समय गँवाने की अपेक्षा अपने मन की बात कह देना ही उचित समझा। सो नम्रतापूर्वक संत से कहा— "मुझे कुछ ऐसा अनुदान दीजिए कि रोज-रोज दरिद्रता का कष्ट न भोगना पड़े।"
भक्त आलसी भी था और उतावला भी। वह तुर्त-फुर्त कोई विपुल संपदा चाहता था, जिसके सहारे बैठे-ठाले समस्त सुविधाएँ मिलती रहें और ठाठ की जिंदगी कटती रहे।
भक्त गिड़गिड़ाता ही रहा। उसने कहा— पुरुषार्थ कहाँ बन पड़ता है? भाग्य साथ कहाँ देता है। यदि दोनों की अनुकूलता बन जाती, तो दारिद्रय क्यों भोगता और आपसे इतनी विनती क्यों करता?
संत वास्तविकता को समझ गए। उनने ऐसा उपाय सोचा, जिससे भक्त का मन भी रह जाए और मुफ्तखोरी को भी प्रोत्साहन न मिले।
संत भक्त को एकांत में ले गए। उसके हाथ में एक पारसमणि थमाई और कहा इसे मात्र एक सप्ताह के लिए दिया जा रहा है। इसके बाद इसकी शक्ति समाप्त हो जाएगी। तब तुम इसे यहीं लौटा जाना। भक्त ने संत का बहुत अनुग्रह माना और पारस को लेकर घर चला गया।
वह रात भर विचार करता रहा कि अधिक मात्रा में लोहा सस्ते भाव में कैसे मिले? जिससे अधिक सोना सरलतापूर्वक एकत्रित किया जा सके।
सबेरे उठकर वह लोहा मंडी में गया। दुकानदारों से लोहे के भाव पूछे। उसे लगा कि यह लोहा मँहगा बेच रहे हैं। वहाँ चलना चाहिए जहाँ सस्ता मिलता हो। उसने जानकारों से पूछताछ की और पता लगाया कि अधिक मात्रा में अधिक सस्ता लोहा कहाँ से मिल सकता है। जो पता मालूम किया था, वहाँ पहुँचा। दाम पहले स्थान की तुलना में तो कम थे, पर उतने भर से संतोष नहीं हुआ। सोचने लगा जब थोक माल बड़ी मात्रा में ही खरीदना है, तो वहाँ क्यों न चला जाए, जहाँ लोहा बनाने का कारखाना है। उसने वहीं की राह पकड़ी। स्थान दूर था, सो पहुँचने में समय तो लगना ही था। नियत स्थान पर पहुँचकर उसने लोहे के भाव तय किए। अनुकूल भाव पर सौदा पक्का हो गया।
लदान कराने से पूर्व कारखाने वालों ने मूल्य जमा करने को कहा। सो वह भी तैयार हो गया। सोचा अभी थोड़ा लोहा लेकर सोना बनाए देते हैं और खरीद का मूल्य चुकाए देते हैं।
इस भाग-दौड़ में पूछताछ में समय बहुत निकल गया। एक सप्ताह के लिए यह अनुदान मिला है, इसका स्मरण ही नहीं रहा। अवधि निकल जाने पर पारस का प्रभाव समाप्त होना ही था, सो हो गया। उसने बार-बार लोहे और पारस का संयोग कराया, पर उसका कोई प्रतिफल न निकला। पैसा न चुका पाने पर कारखाने वाले ने उसे कोई सनकी समझा और अपमानपूर्वक बाहर निकलवा दिया।
लालची लौटकर फिर गुरु के पास वापस पहुँचा और अपनी असफलता की सारी कथा कह सुनाई। संत दूसरी बार वैसा योग देने के लिए तैयार न हुए।
सत्संग चल रहा था। संत ने वह पारस वाली कथा प्रसंग सुनने वालों को कह सुनाई और कहा— “जीवन पारस से भी अधिक बहुमूल्य है। सभी को गिनी-चुनी अवधि में, सात दिनों के भीतर ही अपनी जीवन लीला समाप्त करनी है, इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि इसका अधिकतम उपयोग करने में आवश्यक विलंब न किया जाए, अन्यथा इस पारसमणि से लाभ न उठा पाने वाले की तरह आप सभी को पछताना पड़ेगा।”