व्यामोह का मायाजाल

December 1987

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देवर्षि नारद को अपने वैराग्य और भजन का अहंकार हो गया था। अहंकार उठते ही मनुष्य आत्मप्रदर्शन के लिए लालायित हो उठता है। महत्वाकांक्षाएँ बढ़ा लेता है और इनकी पूर्ति के लिए अनेकों प्रपंच रचने लगता हैं। यही नारद के संबंध में भी घटित हुई।

किसी राजकुमारी का स्वयंवर था। पिता की इकलौती बेटी थी। राजा ने घोषणा कर रखी थी कि राजकुमारी के विवाह के समय आधा राज्य वर को दहेज में दिया जाएगा और शेष आधा राजा के उपरांत मिल जाएगा। नारद की भक्ति झीनी पड़ रही थी और अहंता प्रेरित महत्वाकांक्षा बढ़ रही थी। जब स्वयंवर का समाचार सुना, राजकुमारी का रूप देखा, विशाल राज्य वैभव के लिए मन ललचाया तो नारद सोचने लगे ब्रह्मचारी रहकर भक्ति का प्रचार करने में इतना समय लगा दिया अब संसार का भी कुछ आनंद देखना चाहिए। स्वयंवर जीतना चाहिए। मन पक्का हो गया। जरूरत ऐसे रूप की पड़ी तो राजकुमारी को पसंद आ सके। ऐसा रूप कहाँ से आए? वे स्वंय तो कुरूप थे। सोचा विष्णु भगवान के पास चलना चाहिए। उनसे मित्रता भी है। सदा उनका ही काम करते रहे हैं। अब की बार अपने निजी काम के लिए कहेंगे, तो मना कैसे करेंगे?

नारद विष्णुलोक पहुँचें। अपनी मनोकामना बताई। भगवान सन्न रह गए। भक्ति और कामना दोनों का एक साथ निर्वाह कहाँ? एक रहेगी तो दूसरी चली जाएगी। नारद का हित इसी में था कि वे भक्तिमार्ग न छोड़े, प्रपंच में न पड़े। सो भगवान मौन हो गए।

नारद ने मौन का अर्थ आधी स्वीकृति के रूप में लिया। चलते समय इतना और कह गए कि यह काम तो किसी भी प्रकार करना ही पड़ेगा। भक्त की मनोकामना पूरी न करें तो भगवान कैसे? विष्णु उपेक्षापूर्वक मुस्कराते भर रहे। नारद अनुमान लगाते रहे कि काम बन गया। वे सीधे स्वयंवर में जा पहुँचे।

रूप में कोई परिवर्तन न हुआ। राजकुमारी नारद की प्रणाम करती हुई वरमाला हाथ में लिए आगे बढ़ती गई और एक सुंदर राजकुमार के गले में माला डालकर उसकी पत्नी बन गई।

नारद की निराशा और खीज का ठिकाना न था। जहाँ वे पहले सदा प्रमुदित रहा करते थे, आज कामना ने उनका रौद्र रूप बनवा दिया। क्रोध में भरे हुए विष्णुलोक पहुँचे और भगवान पर अपशब्दों की झड़ी लगा दी। बहुत देर यही क्रम चलता रहा।

जब थककर शांत हुए तो भगवान ने कहा। मैं तो अपने भक्त का अहंकार मिटाता हूँ। कामनाओं के जंजाल से छुड़ाता हूँ। भला तुम्हें मैं अनर्थ में कैसे डुबो सकता था। संचित सद्भावना की पूँजी व्यामोह में कैसे लुट जाने देता। इस असफलता को मेरी अनुकंपा ही समझो।

जब कामना भरी महत्वाकांक्षा का नशा उतरा तो नारद ने अपने व्यामोह के साथ जुड़े हुए विनाश को समझा। अपनी भूल मानी और प्रायश्चित किया। इसके बाद वे कहीं भी भक्ति प्रचार करने जाते तो हर साधनामार्ग के पथिक को एक ही बात कहते कि भजन भले ही कम करना पर लोभ, मोह भरी अहंकार के मायाजाल से बचकर रहने का प्रयत्न करना।



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