अदृश्य चेतना का दृश्य उभार

December 1987

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जिस क्षेत्र में जिस प्रकार की गतिविधियाँ लंबे समय तक चलती रहती हैं, वहाँ का वातावरण उस प्रक्रिया से प्रभावित होता है। वहाँ रहने वाले उस चिरविनिर्मित प्रभाव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। कोई विरल ही ऐसे होते हैं जो, उस दबाव या आकर्षण को अस्वीकार कर सकें,  इसलिए जिन्हें जिस स्तर का बनना होता है वे वहाँ खिंचते-घिसटते जा पहुँचते हैं। मन उधर ही चलता है। वातावरण भी अपने अनुरूप व्यक्तियों को अपनी ओर खींचता है। धातुओं की खदानें भी इसी प्रकार बनती हैं। जहाँ धातुखंड बड़ी मात्रा में जमा हो जाते हैं, वहाँ एक विशेष प्रकार का चुंबकत्व पैदा हो जाता है। उसकी आकर्षणशक्ति दूर-दूर तक बिखरे हुए उसी जाति के धातु-कणों को धीरे-धीरे अपनी ओर खींचती रहती है। फलतः वह संग्रह निरंतर बढ़ता रहता है और छोटी खदान कुछ ही समय में बड़ी बन जाती है। ऐसा ही आकर्षण व्यक्तियों में भी देखा गया है और क्षेत्रों में भी, वातावरण में भी।

शहरी सुविधाओं से अभावग्रस्त ग्रामीण अथवा आबू स्तर के मनचले लोग अनायास ही खिंचते चले आते हैं। स्वभाव के अनुरूप उन्हें अदृश्य निमंत्रण मिलता है और ऐसा संयोग बन जाता है, जिससे वे मनचाहे स्थान तक जा पहुँचने के लिए कोई संयोग प्राप्त कर सके। जुआघर, शराबखाने, व्यभिचार के अड्डे भी अपने-अपने ढंग के लोगों को अदृश्य आमंत्रण देकर बुलाते रहते हैं; फलतः एक ही प्रकृति के लोगों के गिरोह उन केंद्रों से संबद्ध हो जाते हैं। यही बात सत्संगों के संबंध में भी है। उत्कृष्ट स्तर के लोग भी परस्पर संबंध बनाते और एक श्रृंखला में बंधते देखते गए हैं। चोर-उचक्कों से लेकर तस्करों, हत्यारों तक के गिरोह इसी प्रकार बनते हैं। संत-सज्जनों की जमातें भी इसी आधार पर बनती देखी गई हैं। संभवतः देवलोक और नरक भी इसी सिद्धांत के अनुरूप बने हैं। शोध-संस्थानों से लेकर पुस्तकालयों तक में एक ही प्रकृति के लोग जमे पाए जाते हैं। इससे प्रकट है कि वातावरण और स्वभाव का आपस में सहज तारतम्य बैठ जाता है। हिमालय के सिद्धपुरुषों के संबंध में भी यही बात है ओर देवात्मा-क्षेत्र के संबंध में भी। वहाँ का परिकर बढ़ता भी जाता है और समर्थ बलिष्ठ होते जाने की स्थिति में भी होता जाता है। लंका के छोटे से क्षेत्र में रावण का सुविस्तृत परिकर जमा हो गया था। नैमिषारण्य में सूत और शौनक समुदाय का कथा-सत्संग जमा ही रहता है। इसी प्रकार हिमालय में देवात्मा क्षेत्र भी क्रमशः अधिक विस्तृत और परिपुष्ट होता चला गया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

महाभारत के लिए कृष्ण को उपयुक्त भूमि तलाश करनी थी। जहाँ भाई-भाई की लड़ाई में मोह आड़े न आने पाए। दूतों को भेजा और वहाँ के क्षेत्रों के प्रचलन को तलाश कराया तो मालूम पड़ा कि कुरुक्षेत्र के इर्द-गिर्द भाई-भाई के साथ निर्ममतापूर्वक मार-काट करते रहने की घटनाएँ अधिक होती हैं। भूमि संस्कारों के प्रभाव को समझते हुए उसी क्षेत्र में महाभारत रचाऐ जाने का निश्चय हुआ। इसी प्रकार की एक पौराणिक घटना श्रवण कुमार की भी है। उनके कंधे पर रखी काँवर में बैठे बंधे माता-पिता को नीचे उतार दिया था और कहा था आप लोग पैदल चलें। मैं रस्सी के सहारे आपको रास्ता बता सकता हूँ। पैर ठीक होते हुए भी आप कंधे पर क्यों सवार होते हैं? माता-पिता पुत्र के यश को व्यापक बनाना चाहते थे। उसमें इस प्रकार का व्यवहार आया देखकर उनने जान लिया कि यह कुसंस्कारी भूमि का प्रभाव है। उनने पुत्र को इस बात के लिए सहमत कर लिया कि रात्रि को वहाँ विश्राम न किया जाए। जल्दी ही यह क्षेत्र पार लिया जाए। जैसे ही वह परिधि पार हुई, श्रवण कुमार के विचार बदले। उसने माता-पिता से क्षमा याचना की और फिर कंधे पर काँवर में बिठाकर पहले की ही भाँति आगे की यात्रा प्रारंभ की। यह संस्कारित भूमि का प्रभाव है, जो मनुष्य में उत्कृष्टता एवं निष्कृष्टता के उतार-चढ़ाव उत्पन्न करता रहता है। हिमालय के देवात्मा क्षेत्र के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। उसमें सूक्ष्मशरीरधारी सिद्धपुरुषों का तो निवास रहता है, साथ ही उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप अन्यान्य साधन भी उत्पन्न एवं विकसित हुए हैं। वहाँ पाई जाने वाली वस्तुओं में अपनी विशेषता है। वहाँ रहने वाले मनुष्यों और प्राणियों में विशेष प्रकार का स्वभाव भी पाया जाता है।

जौनसार बावर (चकराता-त्यूंणी) इलाके में अभी भी बहुपति प्रथा का प्रचलन है। बहुपत्नि प्रथा का रिवाज जो पुराने जमाने की तरह अभी भी जहाँ-तहाँ दिख पड़ता है; किंतु बहुपति प्रथा का खुला प्रचलन कहीं नहीं है। वेश्यावृत्ति अवश्य होती है, पर वहाँ तो मात्र देह व्यापार भर है। गृहस्थ बनाकर बहुपतियों के समान रूप से सहयोगपूर्वक रहना इसलिए संभव नहीं होता कि पुरुषों में स्त्रियों से भी अधिक इस संबंध में ईर्ष्या पाई जाती है। वे अपनी पत्नि का अन्य पुरुषों से संबंध सहन नहीं कर पाते और पता चलते ही भयंकर विग्रह पर उतर आते हैं; किंतु पृथ्वी पर जौनार बावर ही एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ बड़े भाई का विवाह होता है। शेष सभी छोटे भाई अपनी बड़ी भावज के साथ पत्नीवत संबंध बनाए रहते हैं। यह गुप-चुप नहीं होता। सबकी जानकारी में होता है। संतानें भी बड़े पिताजी, मझले पिताजी, छोटे पिताजी आदि संबोधन करती हैं। ईर्ष्या और कलह जैसा कुछ रंचमात्र भी नहीं दिख पड़ता है। इतिहास पुराणों में एक द्रौपदी की ही ऐसी कथा है, किंतु आज के ईर्ष्या-द्वेष से ऊंचे उठकर दांपत्य जीवन में भी सहयोग मात्र जौनसार बावर क्षेत्र में ही दिख पड़ता है। यही मानवी ईर्ष्या पर सद्भाव की विजय है। यह क्षेत्र भी देवात्मा हिमालय की परिधि में ही आता है।

हिमालय की ऊँचाई पर स्त्रियों का सौंदर्य बढ़ता जाता है, वहाँ पर व्यभिचार जैसी घटनाएँ कभी ही सुनने में आती है। तलाक और पुनर्विवाह तो होते हैं, पर वह सारी व्यवस्था पंचों की आज्ञा व अनुमति से सभी की जानकारी में होती है। घरों में उधर ताले अभी भी कम लगते हैं। दरवाजों में कुंजी चढ़ाकर या रस्सी बाँधकर घर वाले काम पर चले जाते हैं। रोक-थाम मात्र जानवरों की होती है। कोई किसी की चोरी नहीं करता। पहाड़ी कुलियों की ईमानदारी प्रसिद्ध है। वे बोझा लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान को चलते हैं, जिसमें बहुमूल्य वस्तुएँ तथा नकदी भी होती है। कुली आगे पीछे निकल जाते हैं, पर कभी ऐसा नहीं सुनने में आया कि कोई कुली सामान लेकर गायब हुआ हो या उसमें से अवसर पाकर कुछ चुराया हो। यह सहज सज्जनता वहाँ के सामान्य निवासियों में पाई जाती है, फिर जो विचारशील है, उनकी भलमनसाहत का तो कहना ही क्या?

प्रकृति का चेतन से संबंध है और चेतना का प्रकृति से। दोनों की उत्कृष्टता-निकृष्टता का परस्पर संबंध बनता है। बसन्त जब महकता है, तो उसका प्रभाव कोकिल, भ्रमर आदि से लेकर अन्यान्य जीवधारियों में मस्ती बनकर झूमता है। मादाएँ, प्रायः उन्हें दिनों गर्भ धारण करती हैं। बसंत समूची धरती पर एक ही समय नहीं आता, विभिन्न भूखंडों पर उसके ऋतु, मास अलग-अलग होते हैं। जिस क्षेत्र में बसंत उमगता है, उसी में उसका मादक प्रभाव भी परिलक्षित होता है। देवात्मा हिमालय में वृक्षों का बसंत ग्रीष्म में और वनस्पतियों का श्रावण, भाद्रपद में आता है; पर आध्यात्मिक उमंग उस क्षेत्र पर सर्वदा छाई रहती है। इसमें वनस्पति, हिम, नदी, निर्झर आदि सभी की पुलकन समाहित है। यह प्रकृति के दबाव से होता है या चेतना के उल्लास से, इसका रहस्य गहराई में उतरकर देखा जाए तो प्रतीत होता है कि देवात्मा क्षेत्र में संव्याप्त चेतना-तरंगें ही वातावरण को प्रभावित करती हैं। जो भी उधर जाता है, रहता है, स्थिर है, वह सात्विकता से ओत-प्रोत होते देखा जाता है। उसमें सामान्य की तुलना में अनेकों प्रकार की विशेषताएँ पाई जाती हैं।

देवात्मा क्षेत्र हरिद्वार से आरंभ होकर यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ, बद्रीनाथ, सत्तोपंथ, गोमुख, तपोवन, नंदनवन, शिवलिंग वाले उत्तराखण्ड से आरंभ होकर कैलाश मानसरोवर तक चला गया है। कैलाश क्षेत्र को देवभूमि माना जाता है। शिव को कैलाश और पार्वती को मानसरोवर कहा जाता है। इस क्षेत्र के प्रत्येक शिखर को एक मूर्तिमान देव माना गया है। नदियाँ, सरोवर, झरने देवियाँ हैं। गुफाओं को देवालय कहा जा सकता है। इसी प्रकार यदि किसी को दिव्यदृष्टि प्राप्त हो तो वह सारा क्षेत्र प्रकटतः प्राकृतिक पदार्थों से बना है, किंतु तत्त्वतः देव चेतना से ओत-प्रोत दिखाई पड़ेगा। इस क्षेत्र में यदा-कदा तीर्थयात्री जो वहाँ जा पहुँचते हैं, वे प्रकृति की शांतिदायक शीतलता और साथ ही दिव्य चेतना की अभिनव प्रेरणा प्राप्त करते हैं। शर्त एक ही है कि पहुँचने वाला दिव्य भावना लेकर दिव्य प्रयोजन के लिए वहाँ पहुँचता हो। जहाँ शांति मिले, वहाँ कुछ समय शांत मन से ठहर सकने जितना अवकाश लेकर गया हो। जो भगदड़ की तरह धक्के देते और धक्के खाते भटकते-भटकते पहुँचते हैं, उन्हें मात्र कौतुक-कौतूहल ही दिख पड़ता है। ऐसे दिग्भ्रांत मुख को हर जगह पाए जाने वाले धूर्त आसानी से पहचान लेते हैं और उलटे उस्तरे से हजामत बनाते हैं। इस वरदान क्षेत्र में अभिशाप भी उसी प्रकार पाए जाते हैं, जैसे घर बिस्तर में चूहे, छिपकली, मकड़ी, खटमल, पिस्सू, जुएँ आदि का अड्डा जमा रहता है। मलीनता ही उनकी खुराक है। जो भाव-श्रद्धा लेकर नहीं, कामनाओं की पूर्ति और चित्र-विचित्र दृश्य देखने जाते हैं, वे खोज और थकान ही साथ लेकर वापस लौटते हैं।

चर्मचक्षुओं को दृश्य पदार्थ ही दिख पड़ते हैं। उन्हें देखकर ही उन्हें मन को संतोष देना पड़ता है। बालबोध की प्राथमिक पुस्तकों में प्रत्येक अक्षर के साथ एक तस्वीर जुड़ी रहती है। स्मरण रखने की दृष्टि से इस प्रकार की संगति बिठाने की उपयोगिता भी है। चित्रकला, मूर्तिकला का आधार यही है— प्रत्यक्ष को देखकर उसके साथ जुड़े हुए भावनात्मक संबंध सूत्र को, प्रतिपादित भाव-चेतना को, जागृत करना। प्रसन्नता की बात है कि यह आवश्यकता भी उदारचेतासंपन्न जनों ने अनुभव की है और ऐसे देवालय स्मारक इस क्षेत्र में विनिर्मित किए हैं, जिनके दर्शन, पूजन-वंदन के सहारे प्रसुप्त श्रद्धा को किसी सीमा तक लगाया जा सकता है। इस जागरण को यदि बिजली की कौंध जैसा क्षणिक न रहने दिया जाए, उस आलोक को अंतरात्मा में बसा कर मार्ग दर्शन के लिए आधार बनाया जाय तो यह सब प्रकार उपयुक्त ही होगा। ऐसी तीर्थयात्रा से भी आत्मिक उत्कर्ष का प्रयोजन पूरा करने में सहायता मिलती है। फिर भी इतना तो स्मरण रखा ही जाना चाहिए कि पदार्थों से बने और आँखों से देखे गए दृश्य नेत्रों के माध्यम से आँखों को ही प्रभावित कर पाते हैं। दृश्य बदलने पर दृष्टि बदल जाती है और उसके माध्यम से मस्तिष्क पर पड़ी छाप भी तिरोहित हो जाती है।

विद्याध्ययन वर्णमाला याद करने से आरंभ होता है। दिव्य चेतना के साथ अंतराल के जोड़ने की प्रक्रिया विशुद्ध भावनात्मक है, अदृश्य भी। फिर भी उसके लिए आवरण की सहायता लेनी पड़ती है। देवात्मा हिमालय में दिख पड़ने वाले दृश्य एवं देवालय इसी आवश्यकता की पूर्ति करते हैं।


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