गिलहरी का आदर्शवादी पुरुषार्थ

December 1987

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रावण का आतंक दक्षिण भारत में सर्वत्र व्याप्त था। उसने वनवासी दशरथ नंदन श्री राम की पत्नी का भी छलपूर्वक अपहरण कर लिया।

सीता की वापसी के जब संधि-प्रयत्न सफल न हुए तो युद्ध ही एकमात्र विकल्प रह गया। राम-रावण के युद्ध की भूमिका बन गई। रावण का तो अपना परिवार ही लाखों राक्षसों का था, पर रावण का आतंक इतना था कि राम का साथ देने के लिए तत्कालीन अनेक राजाओं में से भी कोई न आया। न्याय के पक्ष में अपना प्राण हथेली पर रखकर रीछ-वानरों का समुदाय ही जूझने को तैयार हुआ। इनमें भी हनुमान, जामवंत, अंगद, सुग्रीव जैसे कई प्रतापी योद्धा थे; पर जो साधारण थे, वे भी लकड़ी-पत्थर लेकर लड़ाई में उतरे और बढ़-चढ़कर पराक्रम दिखाने लगे।

युद्ध का सारा दृश्य एक पेड़ पर बैठी हुई गिलहरी देख रही थी। रावण की अनीति और सीताहरण की गाथा भी उसने सुन रखी थी। इस धर्मयुद्ध में वह राम की विजय के लिए भगवान से प्रार्थना कर रही थी।

सद्भाव और प्रार्थना ही तो सब कुछ नहीं है। पुरुषार्थ भी तो सत्प्रयोजन में जुड़ता चाहिए। रीछ-वानर तक जब अपनी जान की बाजी लगा रहे थे, तो गिलहरी ही मूकदर्शक बनकर क्यों बैठी रहे? उसे भी तो अपनी सामर्थ्य के अनुरूप कुछ करना चाहिए। यही चिंतन उसके मन में चल रहा था।

कुछ समय पूर्व सीता को रावण के हाथ से छुड़ाने के लिए बूढ़ा गिद्ध जटायु अपने प्राण दे चुका था। अनीतिकर्त्ता आततायियों से जीता नहीं जा सकता, तो उनके विरुद्ध अपनी नीतिनिष्ठा का परिचय देने के लिए बढ़-चढ़कर बलिदान तो किया जा सकता है। जटायु अपनी और रावण की शक्ति के अंतर को जानता था तो भी वह लड़ा, उसने कायरता नहीं दिखाई। अन्याय देखते रहने की अपेक्षा अनीति से जूझने में उसने आदर्श का परिपालन समझा और रावण से लड़ते हुए ही अंततः जटायु ने अपने प्राण दिए।

गिलहरी को यह आदर्श निर्वाह बहुत भाया। सोचने लगी, वह भी इस धर्मयुद्ध में सहयोग देने के लिए पीछे न रहेगी, भले ही वह योगदान स्वल्प ही क्यों न हो?

गिलहरी को एक सूझ सूझी। वह रीछ-बानरों के लिए लंका पहुँचने तक का रास्ता बनाने के लिए समुद्र को उथला बनाने की बात सोचने लगी। उसके हाथ बहुत छोटे थे और कोई साधन था नहीं। बालों में बालू भरती और उसे समुद्र में झाड़ देती। लगातार वह इसी काम में लगी रहती। सबेरे से लेकर शाम तक इसी कृत्य में जुटी रहती। शरीर छोटा था। साधन स्वल्प थे; पर उसकी हिम्मत अटूट थी, जो बन पड़े सो नीति के समर्थन में करना ही चाहिए। यह लगन उसे पूरी तरह लगी हुई थी।

सब अपने-अपने हिस्से के काम में जुट हुए थे। गिलहरी का पुरुषार्थ तो और भी अधिक आश्चर्यजनक था। राम की दृष्टि उस पर पड़ी। साधन स्वल्प, पर पुरुषार्थ महान। यह दृश्य देखकर राम पुलकित हो उठे।

उसने गिलहरी के समीप जाकर उसके साहस को देखा और भावपूर्वक उसे हाथ में उठा लिया। हथेली पर बिठाया और दूसरे हाथ की उंगलियाँ अत्यंत स्नेहपूर्वक उसकी पीठ पर सहलाने लगे। गिलहरी ने भी अपने को धन्य माना। वह छोटी है तो क्या पर, उसकी हिम्मत और भावना तो ऊंची मानी गई। सराही गई।

कहते हैं कि राम सांवले थे। उनकी उंगलियाँ भी वैसी ही थी। पीठ पर हाथ फेरते रहने से गिलहरी की पीठ पर काली धारियाँ बन गई। इसके बाद उसके वंशजों की पीठ पर वह काली धारियाँ बनती चली आई। पहले उस वंश के प्राणी सफेद ही होते थे। राम के प्रति कृतज्ञता का चिह्न उस वर्ग के प्राणियों की पीठ पर अभी भी अंकित पाया जाता है।


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