अंतर्ग्रही प्रभावों के घेरे में मनुष्य एवं पर्यावरण

December 1987

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  ज्योतिर्विज्ञान के ज्ञाता यह भली भाँति जानते हैं कि पृथ्वी से करोड़ों मील दूर स्थित अंतरिक्षीय ग्रहों का प्रभाव धरतीवासियों पर किस तरह पड़ता है। वैज्ञानिकों द्वारा भी अब इसकी पुष्टि की जा चुकी है कि गुरु-शुक्र आदि सभी ग्रह अपने अच्छे-बुरे प्रभाव से मनुष्य सहित सभी प्राणियों में हलचल उत्पन्न करते हैं। सूर्य से निकलने वाली विभिन्न प्रकार की किरणों का अपना प्रभाव होता है तो चंद्रकलाओं का अपना। धूमकेतुओं के उदय से पृथ्वी के वातावरण में अनेकानेक परिवर्तन होते हैं, जिन्हें अनेक तरह की बीमारियाँ उत्पन्न करने वाला माना जाता है।

सौरपरिवार का सबसे बड़ा ग्रह बृहस्पति अर्थात् गुरु है। यूनान के साहित्य में इसे ‘आकाश का राजा’ कहा गया है। पृथ्वी से 5 करोड़ 40 लाख किलोमीटर दूरी; पर स्थित गुरु का भार पृथ्वी का 300 गुना, व्यास 11 गुना भारी है, तथा गुरुत्वाकर्षण ढाई गुना अधिक है। इस आकर्षणशक्ति के कारण यह पुच्छल तारा, धूमकेतु तथा उल्काओं (एस्टेराइडस) को अपनी ओर सतत् तीव्र वेग से खींचा करता है। प्रत्येक 13 माह के बाद बृहस्पति, पृथ्वी तथा सूर्य एक सीध में आ जाते हैं, तब इसके रजकण प्रचुर मात्रा में निकलकर पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश कर जाते हैं। गुरु और शनि जब एक सीध में आ जाते हैं तो दोनों का चुंबकत्व सौरमंडल के चुंबकत्व के आधे से अधिक हो जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार यदि सौरमंडल के सभी ग्रह एक पंक्ति में आ जाए तो उस समय चुंबकत्व की जो अभिवृद्धि होती है, प्राणिजगत पर उसका विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। पिछले दिनों इस प्रकार के सुपर कन्जक्शन— ‘बृहत्तम युति’ की स्थिति आ चुकी है।

खगोल विज्ञान तथा ज्योतिर्विज्ञान दोनों में गुरु प्रभाव— ‘जुपिटर इफेक्ट’ को बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। एक ओर सूर्य तथा दूसरी ओर अन्य सभी ग्रहों के एक लाइन में आ जाने पर यह स्थिति बनती है। इस समय सूर्य की क्रियाशीलता अधिकतम हो जाती है और उस पर बनने वाले धब्बों की संख्या में अभिवृद्धि होती है। कई खगोलीय घटनाओं के साथ पृथ्वी के वातावरण में भी परिवर्तन आ जाता है। जैसे— वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधानों में पाया है कि आकाश के कुछ चमकीले पल्सार्स, तारों से प्राप्त विकिरण के कारण पृथ्वी के वातावरण में विद्युत आवेश पैदा होता है जो अनेक विसंगतियों को जन्म देता है।

मूर्धन्य वैज्ञानिक द्वय डॉ0 जाँन रिबिन तथा डॉ0 स्ट्रीफेन ब्लेवमान ने 1981 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “जुपिटर इफेक्ट” में लिखा था कि “सूर्य कलंक बढ़ने के साथ ही जलवायु में विषमता आ जाएगी। शीत ऋतु या ठंडे प्रांत अधिक ठंडे एवं गरमी वाले स्थान अत्यधिक गरम हो जाएँगे।” ये परिवर्तन उनके अनुसार आने वाले दो दशकों तक मनुष्यों को प्राकृतिक संतुलन एवं वृक्ष वनस्पतियों की क्रियापद्धति को प्रभावित करेंगे। वे लिखते हैं कि “आँधी-तूफान एवं वर्षा की अधिकता से सारे विश्व को जान-माल की भारी क्षति उठानी पड़ सकती है। घनी आबादी वाले स्थानों में विनाशकारी भूकंप आ सकते हैं।” मेक्सिको व कोलंबिया के भूकंप व हेलेना के ज्वालामुखी विस्फोट की घटनाएँ, इस वर्ष का विश्वव्यापी सूखा व कहीं बाढ़ इसकी साक्षी देते हैं।

अन्य वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी देते हुए कहा है कि सूर्य कलंकों की अत्यधिक संख्या बढ़ने के कारण हृदयाघात तथा सड़क दुर्घटनाओं की अभिवृद्धि तो होगी ही, अनेकानेक नई महामारियाँ भी व्यापक रूप से फैल जाएगी। विगत इंटरनेशनल जियोफिजिकल वर्ष में सभी देशों के चिकित्सकों ने एक मत से यह स्वीकार किया था कि सूर्य के धब्बों की संख्या में वृद्धि के साथ अस्पतालों के कार्डियालाजी विभाग एवं पागलखानों में भर्ती होने वाले मरीजों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। इसी हेतु अनुसंधान की दो नई शाखाएँ (1) हेलियोबायलाॅजी तथा (2) कास्माॅस साइकोलॉजी विकसित की गई है।

स्वीडन के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक सैन्टी अरहेनिस ने विभिन्न अस्पतालों में उपलब्ध रिकार्डों का अध्ययन करने के पश्चात् अपने शोध-निष्कर्ष में बताया है कि अमावस्या को जब पृथ्वी तथा सूर्य के बीच अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण होता है, उस समय मिरगी, चर्मरोग, विक्षिप्त मनोदशा के रोगियों की संख्या बढ़ जाती है। जब सूर्य तथा चंद्रमा 150 अंश पर होते हैं, तब कई रोगों में अधिक उभार 24वें दिन आता है। वस्तुतः चंद्रकलाओं के घट-बढ़ के साथ पृथ्वी पर अनेक परिवर्तन होते हैं - समुद्र में ज्वार-भाटे आते हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्यों तथा इंतर प्राणियों पर भी इनका व्यापक प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि पृथ्वी पर जितना भी तरल द्रव्य है, वह चंद्रमा की वृद्धि और क्षय से संबंधित है। मनुष्य के शरीर में अधिकंश भाग द्रव का है। रक्त को ‘तरल संयोजी ऊतक’— लिक्विड कनेक्टिव टिशू कहा जाता है, जिसके अंतर्गत रक्त कणिकाएँ, तरल सीरम और प्लाज्मा आता है। काया की प्रत्येक कोशिका में आधे से अधिक भाग जल का होता है। इस तरलता के कारण ही समुद्र की तरह काया में भी चंद्र कलाओं के प्रभाव से तूफान उठता और शांत होता रहता है। इसका सबसे अधिक व्यापक प्रभाव रक्त पर पड़ता है। विभिन्न अध्ययनों में यह देखा गया है कि पूर्णिमा के दिन विश्व भर में जितने अपराध होते हैं, उतने शेष दिनों में नहीं होते। पूर्णिमा के चाँद का मनुष्य के शरीर ही नहीं, चरित्र पर भी विशेष प्रभाव पड़ता है। इसी तरह अमावस्या की काली छाया भी मन-मस्तिष्क को प्रभावित किए बिना नहीं रहती।

अनेक वैज्ञानिक प्रयोग-परीक्षणों से अब यह ज्ञात हो चुका है कि पूर्णिमा का चंद्रमा मनुष्य की बायोलॉजिकल एवं भावनात्मक प्रक्रिया में भारी हलचल उत्पन्न करता है। उस काल में एन्जाइम्स तथा हारमोन्स अपनी क्रियाशीलता बढ़ा देते हैं। चयापचय की क्रिया में तेजी आ जाती है। रक्तचाप एवं हृदय की धड़कन भी इस मध्य बढ़ जाती है।

शिकागो के इलिनाॅइस विश्वविद्यालय में अनुसंधानरत मूर्धन्य वैज्ञानिक डॉ0 राल्फ डब्ल्यू. मोरिस के शोध का प्रमुख विषय है— “पूर्णिमा के चंद्रमा का मनुष्य पर प्रभाव।” इसके लिए उन्होंने अनेक अस्पतालों के रोगियों का अध्ययन किया है। उनका कहना है कि पूर्ण चाँद मनुष्य के दुख-दर्द को बढ़ाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करता। इस काल में रक्तस्राव करने वाले अल्सर अन्य अवसरों की तुलना में अपनी क्रियाशीलता बढ़ाते हुए देखे गए हैं। हैमरेज, अपस्मार, मधुमेह जैसे रोग इन दिनों गंभीर रूप धारण कर लेते हैं। हृदय रोगी इस दौरान एन्जाइना पेक्टोरिस के प्रति अधिक संवेदनशील बन जाते हैं। इस विशेष काल में दवाइयों के प्रति रोगियों के व्यवहार में भी विशिष्ट परिवर्तन देखे गए हैं। मोरिस का कहना है कि यदि इस संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके तो चिकित्सा क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण अध्याय जुड़ सकता है।

वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में रखे गए चूहे जैसे प्राणियों पर चंद्रकलाओं के प्रभाव का अध्ययन किया है। देखा गया है कि चंद्र कलाओं की अभिवृद्धि के साथ ही उनकी भी सक्रियता बढ़ जाती है। फ्लोरिडा के सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ0 एडीसन एन्डूस के अनुसार यदि कोई ऑपरेशन पूर्णिमा के दिन होता है तो उस दिन रक्तस्राव ज्यादा होता है। कई बार तो कुशल चिकित्सक भी इस प्रकार के रक्तबहाव को नहीं रोक पाते। तेनहा से मेमोरियल हॉस्पिटल की एक नर्स ने अत्यधिक रक्तस्राव वाले रोगियों के भर्ती होने की तिथि अंकित की है। उसके अनुसार इस तरह के सभी रोग प्रायः पूर्णिमा को ही आते थे।

मनःचिकित्सकों का कहना है कि पूर्णिमा का चंद्रमा तनाव और चिंता को बढ़ा देता है। उस दिन व्यक्ति की हठधर्मिता एवं आक्रामकता अन्य दिनों की अपेक्षा बढ़ी-चढ़ी देखी जाती है। यही कारण है कि पूर्णिमा एवं अमावस्या को पागलखानों में कर्मचारियों को विशेष जागरुक एवं सन्नद्ध रखा जाता है। न्यूयार्क के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार इस काल में अपराधों एवं आगजनी की घटनाओं में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है। “सन ऑफ सैम” नामक बहुचर्चित हत्याकांड का अभियुक्त डेविड बरकोविज डाक तार विभाग का एक कर्मचारी था। उसने अनेक जघन्य हत्याएँ की थीं, जिनमें से अधिकांश पूर्णिमा की रात को की गई थीं।

डॉ0 मोरिस के अनुसार मनुष्य के व्यवहार एवं चिंतन में उन्माद भरने वाले इन चंद्रप्रभावों की व्याख्या करना अत्यंत जटिल है, क्योंकि पूर्णिमाकाल में पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा तीनों एक सीध में आ जाते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी और चंद्रमा के बीच विद्युत चुंबकीय एवं गुरुत्वाकर्षण संबंध के ही यह परिणाम हैं, वस्तुतः लंबे समय से चिकित्सा जगत में इस संबंध में अनुसंधान चल रहा है कि चंद्रकला के साथ शारीरिक एवं मानसिकता रुग्णता का क्या संबंध हो सकता है। अब यह बात क्रमशः समझ में आने लगी है।

अन्यान्य ग्रह-नक्षत्रों की तरह धूमकेतु भी धरतीवासियों पर अपना विघातक प्रभाव डालते हैं। सुप्रसिद्ध खगोलविद फ्रेड ह्वाइल के अनुसार जब धूमकेतु पृथ्वी के निकट से गुजरते हैं तो यहाँ के वातावरण में पर्याप्त परिवर्तन हुआ करते हैं। उन्होंने अपने शोध-निष्कर्ष में बताया है कि जब पृथ्वी धूमकेतु के धूम्र-प्रसार को पार करती है तब अनेक महामारियाँ फैलती है।

धूमकेतु के बारे में कहा जाता है कि वह सौरमंडल बनते समय का ही अवशेष पदार्थ है जो किसी ग्रह पिंड का रूप धारण नहीं कर सका और ऐसे ही अनगढ़ स्वरूप में रह गया। उसमें प्रायः वे ही पदार्थ पाए जाते हैं, जिनसे अपनी पृथ्वी का गठन हुआ है। उस धूलि में बैक्टीरिया और वायरस— जीवकोश तथा विषाणु दोनों ही बड़ी मात्रा में पाए गए हैं। इससे पता चलता है कि विकासवाद के कथनानुसार पृथ्वी पर जीवन बाद में उत्पन्न हुआ कहना गलत है। जीवन अनादिकाल से पदार्थ की ही भांति विद्यमान है।

धूमकेतु जब धूलि भरे अन्धड़ की तरह पृथ्वी के निकट आते हैं तो बारीक धूलि कणों की आँधी अपने साथ लाते हैं और छोटी-बड़ी उल्काएँ भी बरसती है। इतना ही नहीं, जीवाणुओं-विषाणुओं की ऐसी बौछार भी करते हैं, जो धरती के प्राणियों के लिए उपयोगी कम और हानिकारक अधिक होते हैं।

पृथ्वी बनते समय की विनिर्मित चट्टानों में जीवन पाया गया है। निश्चय ही यह उसका अपना उत्पादन नहीं, वरन अंतरिक्षीय अनुदान है। इतना ही नहीं, धूमकेतु के मध्यवर्ती नाभिक में वह क्षमता भी विद्यमान है जो भयंकर विकिरण उत्पन्न करती है और उसके प्रभाव क्षेत्र की लंबी परिधि होती है।

प्रथम बार जिस खगोलवेत्ता ‘हेली’ ने इसका एक प्रामाणिक भित्ति-चित्र तैयार किया था, उसी के नाम पर इसका नामकरण किया गया है। गत वर्ष उसके समीप पहुँचकर प्रथम बार उसे सही चित्र खींचने तथा उसका कुछ पदार्थ बटोरकर धरती पर लाने का प्रयास किया गया। इससे उसकी संरचना तथा प्रभाव-प्रक्रिया के संबंध में प्रामाणिक रूप से अधिक कुछ जानने का प्रयास किया गया है।

कभी-कभी पृथ्वी पर उल्काओं की जलती हुई फुलझड़ी जैसा आभा बरसती दृष्टिगोचर होती है। उस अद्भुत दृश्य को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। ऐसी अग्नि वर्षा का दृश्य पिछले दिनों सन् 1972. में देखा गया था। इसके पूर्व भी इन दृश्यों की पुनरावृत्ति होती रही है। कारण यह होता है कि पृथ्वी अपने कक्ष में परिभ्रमण करती हुई ऐसे स्थान पर जा पहुँचती है, जहाँ किसी धूमकेतु के छोड़े हुए अवशेष बिखरे होते हैं। वे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से खींचकर जब वायुमंडल में प्रवेश करते हैं और जलकर भस्म हो जाते हैं। यही होता है इन आकाशीय ज्योतियों के दृष्टिगोचर होने का कारण।

रूस के साइबेरिया प्रांत के अंतर्गत तुम्मुस्का नामक एक स्थान में सन् 1908 में एक भयंकर विस्फोट हुआ था, जिसमें पृथ्वी की टक्कर एक विशाल उल्का से हो गई थी। ऐसे अनेक छोटे धूमकेतु हैं जो सूर्य से 25 करोड़ मील दूर रह जाने पर वापस लौट पड़ते हैं और आगे का रास्ता अपनाते हैं। हमारी पृथ्वी भी सूर्य से प्रायः 25 करोड़ मील पर ही परिक्रमा करती है। ऐसी दशा में यह संभावना बनी ही रहती है कि उनका आवागमन पृथ्वी के साथ मुठभेड़ करे या अपना कोई अतिरिक्त अनुपयुक्त प्रभाव छोड़े। कुछ भी हो, यह तो सत्य है कि अंतर्ग्रही धाराएँ अपना प्रभाव जीव जगत एवं पर्यावरण-संतुलन ही नहीं, सूक्ष्म वातावरण पर भी छोड़ती है। इनसे बचने व अनुकूलन का मध्य का मार्ग निकालने की विधा ज्योतिर्विज्ञान के अंतर्गत आर्षग्रंथों में काफी समय से समझाई जाती रही है। साधना-उपचारों की नियमितता निश्चित ही प्रतिकूल प्रभावों से रक्षा करती है।


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