इस बार देवताओं की प्रार्थना स्वीकार हो गई। लक्ष्मीजी असुरों का वासस्थान सदैव के लिए परित्यागकर देवताओं के आश्रम पहुँच गई। देवराज इंद्र ने सविस्मय पूछा— “असुरों के पास से आपके चले आने का कारण जानने की प्रबल उत्कण्ठा है।” आगे बढ़कर स्वागत करते हुए इंद्र ने और भी कहा— "अंबे पहले आपने हमारी विनती नहीं सुनी, इसका भी कारण बताइए?”
इंद्रदेव के आमंत्रण से महालक्ष्मी गदगद हो गई और अपना वरदहस्त उठाकर बोली— "देवराज ! जब किसी राष्ट्र में प्रजा सदाचार खो देती है, तो वहाँ की भूमि, जल, अग्नि कोई भी मुझे स्थिर नहीं रख सकते। मैं लोक श्री हूँ, मुझे लोक सिंहासन चाहिए। मुझे आलस्य, अकर्मण्य, फूट, कलह, कटुता पसंद नहीं। व्यक्ति के सदाचारी मानस में ही मैं अचल निवास करती हूँ। जहाँ लोग रीतिपूर्वक रहते हैं और परिश्रमपूर्वक अपना उद्योग करते रहते हैं, उस स्थान को मैं कभी नहीं छोड़ती, पर जहाँ अकारण बैरभाव, हिंसा, क्रोध, प्रमाद, अत्याचार आदि बढ़ जाते हैं, उस स्थान को छोड़कर मैं तत्काल अन्यत्र चली जाती हूँ। मैं शुभ कार्यों से उत्पन्न होती हूँ, उद्योग से बढ़ती हूँ और संयम से स्थिर रहती हूँ। जहाँ इन गुणों का अभाव होता है उस स्थान को छोड़ जाती हूँ। बस इतने से ही मेरे असुरों का निवास छोड़ने और देवताओं की प्रार्थना स्वीकार कर लेने का रहस्य जाना लेना।”