शक्ति संस्थानों में विचार के उपरांत वाणी का स्थान है। विचार सूक्ष्म हैं, वाणी स्थूल। विचारों की परिधि को बेधकर किसी का अंतरंग पढ़ना कठिन है, किंतु वाणी के द्वारा उच्चारित शब्द दूसरों की विचारणा को ही नहीं, व्यक्तित्व को भी प्रभावित करते हैं। वाणी से मनुष्य के ज्ञान, स्वभाव एवं स्तर का पता चलता है। वह अपनी मिठास, तर्क क्षमता एवं भाव-संवेदना से दूसरों को प्रभावित ही नहीं, करती वरन् प्रतिकूल से अनुकूल भी बना लेती है। कुशल वक्ता जनमानस को बदलते और उसे अपनी विचारणा की दिशाधारा में बहा ले जाते हैं। लोकव्यवहार में सफलता-असफलता का बहुत कुछ आधार उसके भाषण-संभाषण स्तर के साथ जुड़ा रहता है, इसलिए जिव्हा को इंद्रियों की गणना में एक नहीं दो माना गया है। वही वाक्शक्ति भी है और वही स्वादेंद्रिय रसना भी। इसका शासन समूचे व्यक्तित्व एवं संपर्क-परिकर पर छाया रहता है।
जिव्हा को सुसंस्कृत बनाना बड़ा काम है। यदि वह बन पड़े तो जननेतृत्व से लेकर शासनसत्ता पर अधिकार करने, परायों को अपना बना लेने में सफलता मिलती है। यह कार्य कठिन भी है और सरल भी। कठिन इसलिए कि आदत और अभ्यास कई बार इसे अनगढ़ बना देते हैं, तब उसे काबू में लाना कठिन पड़ता है। चटोरापन सवार हो तो समझना चाहिए कि स्वास्थ्य चौपट हुआ। कटु वचन बोलने, निंदा, चुगली करने, बहकाने, डींग हाँकने, जैसे दुष्प्रवृत्तियाँ आदि जिव्हा में रम चले तो समझना चाहिए कि मित्र परिकर समाप्त हुआ।
जिव्हा का कार्यक्षेत्र लौकिक भी है और परलौकिक भी। लोकव्यवहार में यह सबसे बड़ी क्षमता है। अध्यात्म में सत्संग, विचार-विनिमय जिव्हा से ही संपन्न होते हैं। इन्हें मनन-चिंतन का प्रतीक मानना चाहिए। ईश्वर प्रार्थना, भजन, कीर्तन, प्रवचन, मंत्र-जप आदि जीभ से ही होते हैं। यदि जिव्हा का परिशोधन हो चुका है तो उपरोक्त सभी कार्य ठीक प्रकार बन पड़ेंगे और अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करेंगे। यदि जिव्हा कुधान्य खाने और कुसंस्कारिता के दुर्गुणों की अभ्यस्त, है तो फिर समझना चाहिए कि साधना-प्रयोजन के लिए जिव्हा माध्यम से जो कुछ किया गया है, वह सभी निरर्थक चला जाएगा।
आध्यात्म क्षेत्र में वाक्सिद्धि का प्रयोजन मौन व्रत का अभ्यास करने से बन पड़ता है। निरंतर बोलते रहने से वाणी का प्रभावक्षमता क्षीण होती है, इसलिए विज्ञजन कतरनी जैसी जीभ नहीं चलाते हैं। सोच-समझकर सीमित और अर्थपूर्ण शब्द कहते हैं। उनका थोड़ा-सा कथन भी घंटों बकवास करने की तुलना में कहीं अधिक कारगर होता है।
मौन के विश्रामकाल में इतना अवसर मिल जाता है कि पिछले अनगढ़ आदतों को विचारा, सुधारा जा सके और भावीकाल में उसे योजनाबद्ध बनाने के लिए प्रबंध अनुबंध किया जा सके। मौनकाल में विचारों की शक्ति सीमाबद्ध होती है। इसे इधर-उधर बिखेरने की अपेक्षा यदि वाक्शक्ति पर धार धरने में लगाया जा सके तो वह तीखी तलवार से भी अधिक सशक्त बनती है।
मौन की पृष्ठभूमि में जप-साधन ठीक प्रकार से बन पड़ता है। ध्यान के लिए मौन अनिवार्य है। किसी दिशा विशेष में प्राणशक्ति को नियोजित करने का अभ्यास करना हो तो उसका प्रथम चरण मौन व्रत ही हो सकता है। बाँध खोलने पर जल का प्रचंड प्रवाह उछलता है। यदि उसे सामान्य गति से बहने दिया जाए तो जलधारा सामान्य स्तर की ही बनकर रह जाती है। यही बात जिव्हा के संबंध में भी है। मौन व्रत से उपासना की शक्ति भी अनेक गुनी बढ़ती है और उस आधार पर निग्रहित की गई जिव्हा जो कहती है, वह भी सत्य होकर रहता है।
वाणी की सिद्धि प्राप्त करने के लिए मौन का ही अवलंबन लेना पड़ता है। यदि किसी लंबी अवधि तक मौन व्रत न बन पड़े तो सप्ताह में दो घंटे का मौन तो अपनाना ही चाहिए।