विनाश की संभावना भूलें नहीं

December 1987

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अटलांटिक महासागर के मध्य में एक द्वीप था— “अटलांटिक द्वीप”, मुद्दतों पुरानी बात है। उस देश के निवासी बड़े सशक्त और संपन्न बनकर रह रहे थे। उनके पास बड़ा-सा जहाजी बेड़ा भी था, जिससे वे समुद्र के तटवर्ती क्षेत्रों पर दूर-दूर तक धावा बोलते। निवासियों की संपदा लूटकर लाते और तरुण नर-नारियों को कैद करके उन्हें अपना गुलाम बनाते। मनचाहा श्रम उनसे लेते। मन चाहा व्यवहार करते।

वह द्वीप तो अकेला था, पर उनके निकटवर्ती क्षेत्र में सुविस्तृत समतल भूमि भी थी। उस पर उन्हीं का अधिकार था। प्रकृति संपदा पर्याप्त मात्रा में थी, जो उन्हें समृद्ध बनाने में सहायता करती थीं। साथ ही वे दूर-दूर तक डाका मारने के लिए छापे डालते। इस प्रकार संपदा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती थी। सोने-चाँदी की भव्य कला-कृतियाँ जहाँ-तहाँ बनी थी। असीम संपदा का उपयोग दुर्व्यसनों में ही हो सकता है। सो वहाँ भी होने लगा। जो बुद्धिमान थे, उनने उस सुविधा का उपयोग भौतिक ज्ञान के अभिवर्धन में लगाया। उनने अणुबम बनाने के स्तर की क्षमता प्राप्त कर ली थी। वे अपने क्षेत्र को स्वर्ग कहने लगे थे। पेड़ों पर बिजली की बत्तियाँ जलती थीं और झरनों के किनारे ऐसी अतिथिशालाएँ थीं, जिससे दूध और शहद स्वल्प मूल्य में हर किसी को उपलब्ध होता था। दूर-दूर तक यह चर्चा थी कि द्वीप कुछ समय मे अति प्राचीनकाल की लंका को भी पीछे छोड़ देगा।

प्रकृति का नियम है कि वह संतुलन बनाए रहती है। छोटों को उठाती है और बड़ों को घटने के लिए मजबूर करती है। यह नियम अनादिकाल से हर क्षेत्र पर लागू होता रहा है। एक ओर लोग लुटते और गुलाम बनते रहे। दूसरी ओर विलास-वैभव के अंबार लगते रहे। यह उस नियति को सहन नहीं हुआ। उसकी अदृश्य अदालत में उन गर्वीलों को धूलि चटाने का निर्धारण हुआ।

अटलांटिक द्वीप पर एक ऊँचा पहाड़ था। उस पर कभी-कभी छोटे-मोटे ज्वालामुखी भी फूटते रहते थे, पर उस बार तो गजब ही हो गया। ज्वालामुखी ने अपनी सभी सीमा— मर्यादाएँ तोड़ दीं। जमीन थरथराकर लोगों को आतंकित करने लगी। समुद्री पानी का रंग बदल गया। लोग हक्के-बक्के रह गए। अन्यत्र भाग चलने के लिए न कोई उपाय सूझा और न अवसर मिला। ज्वालामुखी ने आग उगलना शुरू किया। पहले अग्नि जैसे तपते टुकड़े और लावा आसमान में उड़ा। इसके बाद विशालकाय चट्टानें उचट-उचटकर उसी समूचे द्वीप पर छाने लगीं। वे इतनी ऊँचाई तक उठ गईं, जिसमें नगर और गाँव सभी उस मलबे के गर्त में समा गए। यह क्रम थोड़े ही दिनों चला; पर इतने में ही काली धूलि आसमान में छा गई, हफ्तों दिन नहीं दिखा। घनघोर अंधेरा सर्वत्र छाया रहा। समीपवर्ती द्वीपों और देशों में काली जहरीली धूलि ने उड़-उड़कर अपनी परत जमा ली। वह आतंक समूचे क्षेत्र में दूर-दूर तक फैल गया। दूरवासी दर्शक तक आतंकित हो रहे थे कि वह महाप्रलय बढ़ती हुई उनके यहाँ तक न आ पहुँचे।

ज्वालामुखी पर्वत इतना मलबा ऊपर फेंक चुका था कि उसकी भीतरी परतें खोखली हो गई और वह समूचा टापू समुद्र के अथाह गर्त में समा गया। उस खाली जगह को भरने के लिए आस-पास से समुद्र की लहरें दौड़ी और वहाँ एक भयावह गह्वर बन गया। उस भंवर ने समुद्र की लंबी परिधि को प्रभावित किया; फलतः उस महासागर के अनेकों द्वीप प्रभावित हुए। लोगों ने महाप्रलय की मान्यता को आँखों के आगे सक्रिय होते हुए देखा। वैसी भयंकर घटना का कोई विवरण किसी ने पूर्वजों तक से नहीं सुना था।

ज्वालामुखी विस्फोट की शक्ति प्रायः एक हजार छोटे अणुबम एक साथ फटने जैसी थी। उसके कारण टूट-फूट तो हुई ही, इसके अतिरिक्त मौसम भी प्रभावित हुआ। विकिरण की विषाक्तता ने सुदूर क्षेत्रों पर अपने प्रभाव का परिचय दिया।

ऐसी विपत्ति उसी क्षेत्र क्यों आई, इसका निरूपण करते हुए दूर के महाद्वीपों के बचे-खुचे लोगों के मुँह पर एक ही बात थी कि विलास, वैभव और आतंक को चरम सीमा तक बटोरने का लालच और अन्य किसी को चैन से न बैठने देने का दर्द, ईश्वर को सहन नहीं। वह ऐसी उद्दंडता को देर-सवेर में ठिकाने लगाकर ही रहता है। सृष्टा के न्याय में देर है, अंधेर नहीं।

उस द्वीप का सफाया हो गया। समीपवर्ती जल डमरुमध्य में जमीन फटी और उन दरारों में पानी भरने से पृथ्वी का पुराना नक्शा ही बदल गया। जल की जगह थल उभर आए और जल पानी के गर्त में समा गए। उस क्षेत्र के भूगोल में इतना अंतर आया कि नए-पुराने की तुलना करना कठिन हो गया। लगा, मानों नए सिरे से सृष्टि का सृजन हुआ है। समुद्र में से कमल पुष्प जैसे द्वीप समूह निकले हों। उन पर मनुष्यों के पहुँचने और बस्तियाँ बसाने, निर्वाह के साधन जुटाने में भी शताब्दियाँ लग गईं।

घटना बहुत पुरानी हो गईं। तो भी विश्व इतिहास उसे भूला नहीं है। प्लेटो, अरस्तू आदि के उल्लेख उस घटना की साक्षी में अपनी मान्यताओं का सुविस्तृत उल्लेख छोड़ गये है। इसलिए उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता।

आधुनिक पुरातत्ववेत्ता इतिहास और भूगोल की टूटी कड़ियों को जोड़ने के लिए और समुद्र विज्ञानी गर्त में छिपी प्रचुर संपदा को हस्तगत करने के लिए उस क्षेत्र पर पैनी नजर रखे हुए हैं और गहराई में उतरकर ऐसे प्रमाण एकत्रित कर रहे है, ताकि उस द्वीप के डूबने वाले स्थान तथा गहराई का पता लगा सके। अब तक की ढूंढ़-खोज में उस क्षेत्र के समुद्रतल में लंबी पहाड़ियाँ ही वे पा सके हैं। उन पहाड़ी पर खोदने पर ऐसे प्रमाण भर मिले है, जिसके आधार पर यह जाना जा सके कि यहाँ पर कभी मनुष्यों का अस्तित्व भी रहा है। उसके काम आने वाले उपकरणों का मिलना यह साक्षी देता है कि वह पहाड़ियाँ समुद्रतल की ऊबड़-खाबड़ संरचना नहीं है, वरन यह धरातल की ऊपरी परत से गहराई में धँसी हैं।

इस संदर्भ में संसार के अनेक लेखकों ने अपने-अपने उपलब्ध साक्षी प्रमाणों का हवाला देते हुए कोई दो हजार पुस्तकें लिखी हैं। तथ्य यह पता लगाने के लिए उपलब्ध सामग्री तथा मान्यता को एक सूत्र में बाँधकर किसी सही निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए इस निमित्त विज्ञान की एक स्वतंत्र शाखा ही बन गई है, जिसे “अटलांटोलाॅजी” नाम दिया गया हैं। उसमें हस्तगत प्रमाणों के आधार पर पृथ्वी के अंतराल की संरचना, उस पर अनेक कारणों से पड़ने वाले प्रभाव, भूकंप, ज्वालामुखी विस्फोट आदि से संबंधित कुछ तथ्यों की नई जानकारी प्रस्तुत की है, जिससे पता चलाता हैं कि हम सब बारूद के ढेर पर बैठे है। पृथ्वी का अंतराल इतना उष्ण और अस्थिर है कि उसे अपने ढंग से शांत होते रहने देना ही उचित है। उस आग्नेय परत तक कभी समुद्र की नमी या मनुष्यों की न्यूक्लियर बमों के विस्फोट के माध्यम से छेड़-छाड़ जा पहुँचती है, तो वह धरातल पर ऐसे कारण उत्पन्न करती है, जिसे प्रकृति प्रकोप कहा जा सकता है।

अध्यात्मवादी उपरोक्त घटना तथा उससे मिलते-जुलते अन्य अप्रत्याशित हादसों के बारे में यह सोचते हैं कि मनुष्य जब तक ईश्वर का आदेश और प्रकृति का अनुशासन मानता है, तब तक उसके लिए सुख-चैन की परिस्थितियाँ बनी रहती हैं। पर जब वह उद्दंडता करने लगता है तो तात्कालिक प्रतिफल रोग-शोक के रूप में उसे मिलते ही रहते हैं, इसके अतिरिक्त ऐसे प्रकृति-प्रकोप भी टूट पड़ते है, जिनसे उद्दंडता तो नियंत्रित होती है, इसके अतिरिक्त देखने, सुनने और विचारने वाले व्यक्ति भी यह अनुमान लगा सकें कि मर्यादापालन ही विपत्तियों से बचे रहने का उपयुक्त उपाय है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles