स्वप्न की सत्ता का वैज्ञानिक विवेचन

December 1987

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मूर्धन्य मनोविज्ञानी सिग्मंड फ्रायड ने स्वप्नों को जीवन का व्यक्तिगत दस्तावेज बताते हुए अपनी प्रसिद्ध पुस्तक— “दि इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स” में कहा है कि व्यक्तिगत जीवन में जो इच्छाएँ पूरी नहीं हो पातीं, वह अचेतन मन में चली जाती है और सुषुप्तिकाल में वही स्वप्न बनकर प्रकट होती है। उनका कहना है कि पारिवारिक और सामाजिक मर्यादाओं से बंधे होने के कारण व्यक्ति की हरेक आकांक्षा उसके जीवन में पूरी नहीं हो पातीं। ऐसी लालसाएँ दमित होकर मन के गहन गर्त में समा जाती है और समय-समय पर चित्र-विचित्र दृश्यों के रूप में सामने आती है। मन इसी से संतोष कर लेता है। अपने जीवन में विभिन्न व्यक्तियों के 2900 सपनों के अध्ययन-विश्लेषणकर फ्रायड उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँचे थे।

जबकि जर्मनी के मनःशास्त्री जिम रिचर्ड ने “एक्स्ट्रा सेन्सरी परसेप्शन” के साथ स्वप्न को जोड़ा है। वे कहते हैं कि बाह्य परिस्थितियाँ मनुष्य को जिस रूप में प्रभावित करती है, उसी के अनुसार वह स्वप्न देखता है। इसमें उसकी स्वतः की भागीदारी मात्र इतनी होती है कि वह घटनाक्रम को किस नजरिये से देखता और अपनाता है। इसी का समर्थन करते हुए डॉ0 फिशर कहते हैं कि स्थानों के सूक्ष्मसंस्कार भी व्यक्ति को कोई कम प्रभावित नहीं करते। उनका कथन है कि विचारों और घटनाओं के सूक्ष्मपरमाणु चिरकाल तक अस्तित्व में बने रहते हैं। इस प्रकार यदि वातावरण के परमाणु मंदिरों जैसे सात्विकताप्रधान हों, तो ऐसी जगहों के सपने भी शुद्ध— सात्विक होते हैं, किंतु यदि उसमें मरघट की पैशाचिकता और भयंकरता घुली हो, तो सपने डरावने और भयंकर होते हैं। इसके विपरीत स्वप्नशास्त्री डॉ0 शेरनल का मत है कि शरीर और मन की पीड़ा ही स्वप्न के रूप में अभिव्यक्त होती है। वे कहते हैं कि यद्यपि वे लक्ष्य पर आधारित होते हैं, किंतु उनमें किसी प्रकार का सीमा-बंधन नहीं होता। काल्पनिक उड़ानें भी इसी कारण उनमें बहुत होती है।

वर्तमान समय के प्रख्यात अमेरिकी खगोल भौतिकविद् कार्ल सैगन ने स्वन को विकासवाद से जोड़ा है। उनने जब कॉलेज-छात्रों के स्वप्नों का सर्वेक्षण किया, तो उनमें तीन मुख्य प्रकार के सपने पाए गए - (1) गिरने का स्वप्न, (2) अनुसरण अथवा आक्रमण किए जाने का स्वप्न एवं (3) किसी काम में निरंतर असफलता संबंधी स्वप्न। इनकी व्याख्या करते हुए अपनी प्रसिद्ध पुस्तक—“दि ड्रेगन्स ऑफ ईडन” में वे लिखते हैं कि गिरने संबंधी स्वप्न मनुष्य के विकासक्रम की उस अवस्था का बोध कराता है, जब वह “प्राइमेट” के रूप में जंगलों में अपना जीवन बिता रहा था। उस समय संभवतः हिंस्र पशुओं से बचने के लिए उसने वृक्षीय आवास अपनाया होगा, पर साथ ही उसके मन-मस्तिष्क में सदा यह भय समाया रहता होगा कि येन-केन-प्रकारेण गिरकर व अपनी जान न गँवा बैठे। सोते वक्त इसका पूरा ध्यान रखने के कारण यह उसकी मूल प्रवृत्ति (इंस्टिंक्ट) बन गई। कालक्रम में जैसे-जैसे उसका विकास हुआ, वह मूल प्रवृत्ति भी साथ गयी और अब जबकि वह मनुष्य के रूप में विकसित हो चुका है, यहाँ भी वह प्रवृत्ति पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकी है और अचेतन मन में अब भी उसकी हल्की-सी छाया विद्यमान है। सपने में समय-समय पर इसी की झाँकी होती है। ज्ञात है कि ट्रेन की ऊपरी बर्थ में सफर करने वाले व्यक्तियों को अक्सर ऐसे सपने आते देखे जाते हैं।

मानवी विकास के उस आरंभिक दौर में उन्हें सबसे अधिक भय जिस बात का होगा, वह हिंस्र पशुओं से अपने अस्तित्व की रक्षा संबंधी रहा होगा। इसके लिए वे हर प्रकार के बचाव करते होंगे और हर स्थिति में इस खतरे के प्रति सावधान रहते होंगे। उस समय की अतिशय सावधानी ही अब अनुसरण एवं आक्रमण जैसे सपने के रूप में झलकती है।

फिर जब और विकासकर वृक्षीय निवास से धरती पर (बाईपेडल लोकोमोशन के रूप में) आए होंगे, तो मुख्य समस्या भोजन और शिकार संबंधी रही होगी। उस आदिम— अविकसित स्थिति में शस्त्रों के अभाव के कारण प्रायः उन्हें असफलता हाथ लगती होगी। यही असफलता अचेतन मन मे आज सपने के रूप में दिखाती है। इस प्रकार अपनी उक्त पुस्तक में लेखक ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि हमारे अधिकांश सपने मानवी विकासवादी अवस्थाओं के द्योतक हैं।

किंतु मनोविज्ञानवेत्ता कार्लजुँग का विचार है कि सपनों में भूत के स्फुरण के साथ-साथ भविष्य का भी ज्ञान छिपा होता है। उनका कहना है कि जब हम सो रहे होते हैं, तो हमारा अचेतन मन सक्रिय रहता है एवं अनंत ब्रह्मांड से सूचनाएँ एकत्रकर व्यक्तिसत्ता को देता है। उनका विश्वास है कि यदि सपनों द्वारा प्राप्त संकेतों तथा संदेशों का भली-भाँति विश्लेषण किया जा सके, तो जीवन की कितनी ही गुत्थियाँ सुलझाई जा सकती हैं। इटली के मनःशास्त्री उगदियानी का भी ऐसा ही मत है। वे कहते हैं कि यदि स्वप्न-संकेतों को समझा जा सके, तो दूरदर्शन, अविज्ञात का ज्ञान एवं भविष्य की महत्त्वपूर्ण घटनाओं का पूर्वाभास समय रहते प्राप्त किया जा सकता है। जबकि मनःशास्त्र के विशेषज्ञ हैफनर माॅरेस का मानना है कि मनःचेतना को परिष्कृत-प्रशिक्षित कर सार्थक स्वप्न प्राप्त किए जा सकते हैं। तिब्बत के “बाँन-जादूगर” प्रायः इसी कार्य में निष्णात् पाए जाते हैं। “मि-लाम” नामक एक विशेष कर्मकांड द्वारा वे ऐसी स्थिति पैदा कर लेते हैं, जिसमें उनके सपने नियंत्रित हो जाते हैं, फिर चाहे कभी भी वे इच्छानुसार अपनी स्वप्नावस्था में जा सकते हैं। इतना ही नहीं, दूसरों की स्वप्नावस्था में भी प्रवेश करने की वे अद्भुत सामर्थ्य रखते हैं। इस दौरान वे पूरी तरह चेत्यावस्था में रहकर सपने की सभी बात याद रखते हैं।

सापेक्षवाद के जनक आइंस्टीन ने अपने प्रसिद्ध सिद्धांत के आधार पर यह सिद्ध कर दिया कि अतीत की जो घटनाएँ हमारे लिए घटित एवं समाप्त हो चुकी है, उनकी सूक्ष्मतरंगें विश्व-ब्रह्मांड में अब भी मौजूद है। उनका कहना था कि यदि पृथ्वी के अतिरिक्त किसी अन्य ग्रह पिंड में इस प्रकार की कोई विकसित सभ्यता हो और उनके पास उपयुक्त साधन हो, तो हो सकता है कि वे उन घटनाओं को ऐसे देख रहे हों, जैसे कि वे इसी समय उनके सामने घट रही हों। इसी सिद्धांत के आधार पर “आर्कियोविडियोफोन” जैसे यंत्र की रचना की कल्पना आज विज्ञान जगत में की जा रही है। इस आधार पर वैज्ञानिक यह विश्वास कर रहे हैं कि निकट भविष्य में ही वे चिर अतीत के दृश्यों को इच्छानुसार प्रत्यक्ष देख सकेंगे। इतना ही नहीं, आइन्स्टीन का यह भी कहना था कि जिस प्रकार भूतकालीन घटनाओं को देख सकना संभव है, उसी प्रकार भविष्य की घटनाओं की जानकारी भी अचेतन मन के माध्यम से विराट् ब्रह्मांड के साथ संपर्ककर प्राप्त की जा सकती है। इसी आधार पर पिछले दिनों कैलीफोर्निया में मूर्धन्य वैज्ञानिक एरिक ग्रीनफील के तत्त्वावधान में अनागत की घटनाओं को वर्तमान में रिकार्ड करने की एक स्वप्न-प्रयोगशाला स्थापित की गई है। डॉ0 एरिक का विश्वास है कि इस प्रयोगशाला के माध्यम से वे स्वप्न संबंधी एक ऐसी विधा का विकास कर सकेंगे, जो दैनिक जीवन में मनुष्य के लिए अनंत उपयोगी सिद्ध होगी।

यह सत्य है कि चेतना जब गई-गुजरी स्थिति में होती है, तो वह उथली स्तर की ही जानकारी देती है, पर यदि उसे साध लिया जाए तो उसकी क्षमता अनेक गुनी अधिक हो जाती है। स्वामी विवेकानंद ने अपनी “राजयोग” पुस्तक में कहा है कि संसार में जितने प्रकार की शक्तियाँ काम कर रही हैं, उन सबका मूल रूप प्राण है। यदि मन की इस प्राण-चेतना को तनिक उच्चस्तरीय बना लिया जाए, उस पर नियंत्रण स्थापित कर लिया जाए तो फिर उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं रह जाता। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि फ्रायड ने जो स्वप्न-सिद्धांत प्रस्तुत किया, वह एकांगी है। मनःचेतना जब सामान्य स्तर की होती है, तो इससे अधिक और कुछ कर भी नहीं सकती; किंतु उसे ही जब परिष्कृत कर लिया जाता है तो इस अगम्य— अज्ञात विश्व-ब्रह्मांड की संपूर्ण जानकारियाँ हस्तगत की जा सकती है। फिर सोते-जागते आगत-अनागत की महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देकर वह अपने असामान्य स्तर का परिचय देने लगती है।


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