एक योगी भिक्षा माँगने गाँव में गया। गृहस्वामिनी ने कहा— “मैं योग साध रही हूँ। कृपा करके आप बाहर बैठ जाएँ। निपटते ही मैं भिक्षा दूँगी।”
योगी को आश्चर्य हुआ कि यह कैसी योग-साधना, जिसमें यह घर में इधर-उधर घूम रही है और मुझे बहाना बताती है। कुछ देर प्रतीक्षा करने पर योगी को क्रोध आने लगा और वे शाप देने की धमकी देने लगे।
योगी की झोपड़ी उपवन में जिस पेड़ के नीचे थे, उस पर बैठी हुई एक चिड़िया ने एक दिन साधना के समय साधु पर बीट कर दी। साधु को क्रोध आया। उसने आँखें तरेर कर देखा तो चिड़िया जल गई और नीचे गिर पड़ी। इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी मात्र योगीराज ही थे।
यह घटना गृहस्वामिनी ने अपनी दिव्यदृष्टि से देख ली और साधु से कहा— “शाप की धमकी न दें। मैं चिड़िया नहीं हूँ जो जल जाऊँगी।”
साधु को उस एकांत प्रसंग की जानकारी प्राप्त किए जाने पर भारी आश्चर्य हुआ। कुछ ही देर बाद जब गृहस्वामिनी भिक्षा लेकर बाहर आई, तो साधु ने उस चिड़िया वाली घटना की जानकारी कैसे मिली? यह पूछा।
गृह स्वामिनी ने कहा— “मैंने आपको कहा था कि मैं योग साधना कर रही हूँ।” वस्तुतः वह अपने वृद्ध सास, ससुर की आवश्यक सेवाओं में समग्र श्रद्धा के साथ लगी थी। वही उसकी साधना थी। साधु ने इस संबंध में अनेक तर्क किए तो उस अनपढ़ महिला ने इतना ही कहा कि मेरे गुरु तुलाधार वैश्य अमुक गाँव में रहते हैं। उनसे तत्त्वज्ञान पूछें। मैं तो उनके बताये हुए मार्ग पर चली आ रही हूँ।”
संत बताए हुए पते पर तुलाधार से मिलने चले। वे दुकान चला रहे थे। योगी को देखते ही उसने उनका सारा विवरण बता दिया, “आप अमुक स्थान से आए हैं। आपने ही क्रोध से चिड़िया जलाई थी न?”
योगी को इस बार और आश्चर्य हुआ। बिना बताए सारी पूर्व घटनाएँ इसने कैसे जानी? दुकान चलती रही। साधु प्रतीक्षा करते रहे। अंत में बिना पूछे ही वैश्य ने कह दिया— “मैं पूर्ण ईमानदारी से दुकान चलाता हूँ। किसी को खराब माल नहीं देता और न अधिक मुनाफा लेता हूँ। योग का तत्त्वज्ञान मैं नहीं जानता। वह जानना हो तो मेरे गुरु श्वेनाक चांडाल से मिलें। वे काशी में रहते हैं, पहुँचे हुए तत्त्वज्ञानी हैं। वे आपको तर्क, तथ्य प्रकार समझा सकेंगे। मैं तो ईमानदारी से दुकान चलाना, इतना भर ही जानकारी रखता हूँ।”
योगी काशी पहुँचे। नगर से बाहर ही एक व्यक्ति खड़ा मिला। उसने योगी को साष्टांग प्रणाम किया और कहा— “मेरा ही नाम श्वेनाक है। मेरा पता लगाने और नियत स्थान न होने से आपको कठिनाई पड़ती। सो मैं स्वयं ही आपसे भेंट करने चला आया। आप वही हैं न जो तुलाधार से, गृहस्वामिनी से मिलते हुए आए हैं। आपने ही चिड़िया जलाई थी? मैं भी योग साधना करता हूँ। मेरे साथ चलें तो मैं अपनी क्रिया-प्रक्रिया दिखाकर आपका समाधान कर दूँगा।”
चांडाल अतिथि योगी को लेकर गंगातट पर गया, वहाँ एक छाया के स्थान में उनको बिठाया। स्वयं नालियाँ साफ करने आदि के कामों में लग गया। शाम को जब निवृत्त हुए, तो साधु को साथ लेकर अपनी झोपड़ी में गया। साधु खड़े सारे दृश्य देख रहे थे। उसने अपने अंधे माँ-बाप को स्नान कराया, भोजन कराया। हाथ पैर दाबे, कपड़े धोए और सुलाया।
अब उसने अचंभित योगी को कहा— “मुझे जो भूत-भविष्य ज्ञान की सिद्धियाँ मिली है, उसका निमित्त कारण यही योगाभ्यास है, जिसे मैं कर्त्तव्यपालन के रूप में करता आ रहा हूँ।”
योगी ने समझ लिया कि पूरी निष्ठा से कर्त्तव्य का पालना करना भी एक योगाभ्यास है।