यह ब्रह्मांड न तो अनगढ़ है, न बेतुका

December 1987

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भौतिकीविद श्री फ्रांसिस थामसन ने सृष्टि की संरचना पर अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि “संसार की समस्त वस्तुएँ एक अखंड सत्ता से जुड़ी हैं, चाहे वे बड़ी हों या छोटी, उनका परस्पर संबंध इतना सुसंबद्ध है कि सभी को आश्चर्य होता है। उसी अखंड सत्ता के इशारे पर सृष्टि के सारे क्रियाकलाप संचालित होते हैं। उसकी इच्छा के बिना तो मनुष्य एक पत्ता भी नहीं हिला सकता।” यह कहकर श्री फ्रांसिस ने उस आप्तवचन का ही समर्थन किया है, जिसमें कहा गया है - “ईशावास्यमिदं सर्वं।"

सचमुच यह सारा ब्रह्मांड, उसके सारे घटक इतने सुनियोजित ढंग से अपना कार्य संपन्न कर रहे हैं, जिसे देखकर किसी न किसी नियामकसत्ता की कल्पना करनी ही पड़ती है। इसके बिना ब्रह्मांड की व्याख्या और उसकी निरंतरता की विवेचना अधूरी रह जाएगी। यदि ब्रह्मांड के इन सुव्यवस्थित क्रियाकलापों को कुछ क्षण के लिए संयोग मान भी लिया जाए तो भी यह सिद्धांत ब्रह्मांड की क्रमबद्धता की भली-भाँति व्याख्या नहीं कर पाएगा, क्योंकि तब प्रश्न उठेगा कि आखिर यह संयोग कब तक और किस-किस के साथ? ठीक भी है कि संयोग किसी एक ग्रहपिंड की कुछ घटनाओं को कुछ क्षण के लिए तो माना जा सकता है, पर सभी खगोलीय पिंडों के पूरे जीवनकाल में संयोग ही घटित होता रहता है, ऐसा मानना अविवेकपूर्ण होगा। इन्हीं सब बातों को देखते हुए विद्वान लेखक वैज्ञानिक डॉ0 कार्ल जुस्टांग ने एक स्थान पर लिखा है कि “संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम-व्यवस्थानुसार कार्य करता है। यदि इसमें तनिक भी व्यतिक्रम और अनुशासनहीनता दृष्टिगोचर होने लगे, तो विराट ब्रह्मांड एक क्षण भी अपने वर्तमान अस्तित्व को नहीं रख पाता तथा क्षण मात्र में विस्फोट से अनंत प्रकृति में आग लग जाती और यह संसार अग्नि की लपटों में घिरा एक तप्त पिंड भर होता; परंतु देखने में ऐसा नहीं आता, अतः यह किसी चेतन समष्टि का अस्तित्व में होना प्रमाणित करता है।”

एक पर्यवेक्षक की तरह यदि पूरे ब्रह्मांड के ग्रहपिंडों की अपनी गतियों, उनके सतह की परिस्थितियों और उनके पारस्परिक संबंधों का सूक्ष्मता से अध्ययन करें, तो हमें ज्ञात होगा कि इनकी व्यक्तिगत विशिष्टताएँ सोद्देश्य हैं। उदाहरण के लिए सूर्य को लिया जा सकता है। यह हमारी पृथ्वी से 10 करोड़ 60 लाख मील दूर है और आठ मिनट में अपनी संतुलित प्रकाश किरणें पृथ्वी तक पहुँचाता है, जिससे पृथ्वी के सभी जीवधारी अपना जीवनक्रम चलाते रह पाते हैं। इस सुनिश्चित दूरी पर अवस्थित सूर्य की सतह पर जो तापमान है, उसका 220 करोड़वाँ भाग मात्र पृथ्वी की सतह पर जीवधारियों तक पहुँचता है। यही जीवों में प्राण-स्पंदन बनाए रखने, वनस्पतियों को हरा-भरा रहने के लिए उत्तरदायी है। यदि इस दूरी में तनिक भी न्यूनाधिकता होती, तो यहाँ जीवधारणयोग्य वातावरण नहीं रह पाता। निकटता से गरमी बढ़ती और दूरी से शीतलता आती। दोनों ही स्थितियों में जीवन असंभव होता। इस बात को अब वैज्ञानिक भी स्वीकारने लगे हैं कि पृथ्वी इस मामले में अन्य ग्रह-नक्षत्रों से कहीं अधिक सौभाग्यशाली है। उनका कहना है कि सूर्य से इसकी दूरी तथा कक्षा में स्थिति इतनी उपयुक्त है कि उससे प्राणियों का जन्म, ऋतु, अनुकूलता एवं शोभा-सुषमा का सृजन संभव हो सका। यह स्थिति अन्य ग्रहों की नहीं है। उनका तापमान या तो इतना अधिक है या इतना कम है कि उनमें जीवन-विकास हो ही नहीं सका। संभवतः यही कारण है कि अभी तक पृथ्वी पर ही जीवन है, अन्य ग्रहों पर नहीं, यह कहा जाता है।

इतना ही नहीं, सूर्य की ताप-ऊर्जा का जो अनुदान पृथ्वी को मिलता है, उसमें भी एक प्रकार का नियंत्रण दिखाई पड़ता है। सूर्य आग का जलता हुआ एक गोला है। उसका बाह्य तापमान करीब 6000 डिग्री से.ग्रे. तथा भीतरी लगभग 15 करोड़ डिग्री से.ग्रे. है। इस प्रचंड ताप से वह 4 मील मोटाई वाले 9 करोड़ 30 लाख मील लंबे हिमखंड को क्षण मात्र से पिघला सकता है। सूर्य के एक वर्ग इंच क्षेत्र में जिस ऊर्जा की कल्पना की गई है, वह करीब 60 अश्वशक्ति के बराबर होती है। यदि उसके संपूर्ण 3393*12 वर्ग मील क्षेत्र में शक्ति का अनुमान करना हो, तो इस गुणनखंड को हल करना चाहिए - 3393*10 3393*10 1760* 3*12 इतने हार्स पावर की शक्ति उत्सर्जित होती है। यह सारी शक्ति एक साथ पृथ्वी पर फेंक दी जाती है, तो यह भी एक धधकता सूर्यपिंड बन जाती; पर देखा ऐसा नहीं जाता। सूर्यऊर्जा का सुनिश्चित 220 करोड़वाँ हिस्सा ही पृथ्वी को मिल पाता है। इसी से 5 अरब मनुष्य, 100 अरब पक्षी, 1000 अरब अन्य जीव-जंतु एवं विशाल वनस्पति जगत की संपूर्ण आवश्यकताएँ तथा ऋतु-संचालन की सारी क्रियाएँ संपन्न होती रहती है।

इसकी ऊर्जा वितरण-प्रणाली भी बुद्धिमत्तापूर्ण है। प्रतिदिन सूर्य की रोशनी द्वारा डेढ़ वर्गमील क्षेत्र के भूभाग पर लगभग उतनी ही ऊर्जा उत्पन्न होती है, जितनी सन् 1945 में हिरोशिमा पर गिराये गए परमाणु बम द्वारा उत्पन्न हुई थी। दोनों प्रकार की ऊर्जाओं में अंतर मात्र इतना है कि सूर्य रोशनी के द्वारा बहुत बड़े क्षेत्र में तथा लगभग बारह घंटे की लंबी अवधि में उतनी ऊर्जा उत्पन्न होती है, जितनी परमाणु बम द्वारा बहुत छोटे क्षेत्र में तथा एक सेकेंड से भी कम समय में उत्पन्न हो गई। यही कारण है कि परमाणु बम लोगों को मृत्यु का ग्रास बना देने वाली भयंकर ताप-तरंगें उत्पन्न करता है, जबकि सूर्य प्रकाश द्वारा उत्सर्जित ताप बहुत हल्का एवं सुखद होता है। इतना विस्तरित व विरल भी कि नन्हें पौधे भी बिना किसी हानि के उसे स्वयं में अवशोषित कर लेते हैं।

इसी प्रकार पृथ्वी का स्वयं का वातावरण और परिस्थितियाँ भी विवेकपूर्ण ढंग से विनिर्मित है। इसके चारों ओर गैसों के अनेक ऐसे कवच बने हुए हैं, जो अनावश्यक और हानिकारक ब्रह्मांडीय विकिरणों को पृथ्वी के साथ छेड़खानी करने से रोकते हैं। इनकी सघनता-विरलता में कमी-बेशी तो होती रहती है, पर ऐसा अब तक कभी नहीं हुआ कि ये सुरक्षाकवच ही विनष्ट हो गए हों। यदि ऐसा हुआ होता, तो धरती के जीवधारी शायद अब तक सुरक्षित नहीं रह पाते। इसकी दैनिक और वार्षिक गतियाँ भी इस तरह निर्धारित है कि जीवन-धारण के लिए वे तनिक भी अन्यथा नहीं पड़ती। ऐसे ही अन्य सभी ग्रह-नक्षत्र अपनी अपनी कक्षा में निर्बाध रूप से गतिमान है। उनमें अब तक किसी तरह का व्यतिरेक नहीं आया।

इस प्रकार इन सभी तथ्यों पर गंभीरतापूर्वक विचार करें, तो इन्हें महज संयोग कहकर नहीं टाला जा सकता। इनके पीछे सुव्यवस्था-सुसंतुलन, सुनियोजन-सुनियंत्रण का जो अद्भुत सामंजस्य दिखाई पड़ता है, वह निश्चय ही किसी अदृश्य नियंता के बिना शक्य नहीं। संभव है ब्रह्मांड की इन्हीं सब विशिष्टताओं को देखते हुए सर जेम्स जीन्स के यह उद्गार निकल पड़े हों, कि “यह विश्व-ब्रह्मांड किसी तीर-तुक्के की परिणति नहीं है, वरन सुनियोजित ढंग से विनिर्मित किसी बुद्धिमानसत्ता की सुंदरतम अभिव्यक्ति है।” दार्शनिक स्पिनोजा भी मिलते-जुलते मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि “यह ब्रह्मांड ईश्वर के ही विचारों का मूर्तरूप है।” मूर्धन्य वैज्ञानिक पास्कल का कहना था कि “दृश्य पदार्थों में अदृश्य रूप से काम करने वाली एक ही सत्ता है। वही इस विराट् विश्व का संचालन करती है।” प्रख्यात खगोलविद् कॉपरनिकस इस रहस्यमय संरचना से इतने अधिक प्रभावित हुए थे कि वे अपने वेधशाला में अंतरिक्ष का टेलिस्कोप से विश्लेषण करते हुए गदगद होकर कह उठे थे — “हे ईश्वर! यह संसार तेरी कितनी सुंदर संरचना है! धन्य है, तेरी यह सृष्टि!।”

इस प्रकार उपरोक्त पंक्तियों में विद्वान, वैज्ञानिक, मनीषियों ने प्रकारांतर से इसी बात को स्वीकारा है कि यह विश्व-ब्रह्मांड किसी आकस्मिक महाविस्फोट की परिणति नहीं, वरन योजनाबद्ध ढंग से परम सत्ता द्वारा विनिर्मित एक कृति है। यह न तो अनगढ़ है और न बेतुकी।


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