भस्मासुर और शतायुध दो भाई थे। दोनों ने वयस्क होने पर निश्चय किया कि तप करके शिवजी को प्रसन्न करना चाहिए और उनसे ऐसा वरदान प्राप्त करना चाहिए, जिससे संसार भर में अपनी महिमा गाई जाए। वरिष्ठ और समर्थ समझा जाए।
दोनों तप में जुट गए। लंबे समय तक कठोर साधना चली। शंकर जी का ध्यान खिंचा और वे उन्हें दर्शन देने जा पहुँचे और वर माँगने के लिए कहा।
दोनों ने आशुतोष को नमन किया और अपनी-अपनी मनोकामना कह सुनाई। भस्मासुर ने वर माँगा कि वह जिसके भी सिर हाथ रखे, वह जलकर भस्म हो जाए।
शतायुध ने माँगा कि वह जिसके शिर पर हाथ रखे वही रोगमुक्त हो जाए। दोनों को इच्छित वर देकर शंकर जी विदा हो गए।
भस्मासुर ने अपने शत्रुओं की गणना की और उनको किसी बहाने बुलाकर सभी के शिर पर हाथ रखा और जलाकर नष्ट कर दिया। सभी लोग भयभीत हो गए। उससे शत्रुता करने का किसी का साहस नहीं होता था। वह निर्द्वंद्व स्वच्छंद विचरने लगा; पर उसके पास डर के मारे कोई फटकता तक न था। विवाह की इच्छा थी पर कोई स्त्री उससे विवाह के लिए तैयार न होती। सोचती यदि प्यार में भी शिर पर हाथ रख दिया तो जीवन से हाथ धोना पड़ेगा।
एक दिन उसने पार्वती जी को पत्नी बनाने को विचार किया व असाधारण सुंदरी जो थीं। उसका प्रस्ताव जब पार्वती के पास पहुँचा तो वे सन्न रह गई। शिवजी भी सोचने लगे कि कुपात्र की सहायता करना भी पाप है। मुझसे यह भूल हो गई। अब कोई उपाय करके अपना और पार्वती का प्राण बचाना चाहिए।
पार्वती जी ने माया से एक रूपसी की रचना कर डाली। माँ पार्वती सदृश सुंदर दिखाई देने वाली उस रूपसी ने भस्मासुर से कहा— “शिवजी नृत्य बहुत सुंदर करते हैं। इसलिए मुझे वे परमप्रिय है। तुम भी वैसा कर दिखाओ तो ही मैं तुम्हारा स्वीकार करूँगी।"
मदाध भस्मासुर को रँगीले सपने छाए हुए थे। वह तत्काल नाचने लगा। उसमें इतना भावविभोर हो गया कि अपने ही सिर पर हाथ पड़ गया। उसी प्रमाद से जलकर भस्म हो गया।
इसका भाई शतायुध जिस दिन से आया, उसी दिन से पीड़ितों के सिर पर हाथ रखने और उन्हें अच्छा करने का उपक्रम आरंभ कर दिया। अच्छे होने वालों ने अपने कष्ट हरण की कथा अनेकों से की। सुनकर दूर-दूर से पीड़ित उसके पास आने और अच्छे होकर लौटने लगे।
दिन-दिन सहायता चाहने वालों की भीड़ बढ़ती गई। लाभ उठाने वालो की श्रद्धा-सद्भावना उसे मिलती गई और उसका तप और शिवजी का वरदान सार्थक हुआ। सद्बुद्धि की ही यह करामात थी कि शतायुद्ध अक्षय कीर्ति अर्जित करने वाला और सच्चे अर्थों में समर्थ समझा गया।
दुर्बुद्धि ने भस्मासुर का तप— शिवजी का वरदान निरर्थक किया। स्वयं नष्ट हुआ और दुरात्माओं की श्रेणी में गिना गया।
तप और वरदान की उपयोगिता तभी है, जब सद्बुद्धि का साथ में समावेश हो। आत्मपरिष्कार एवं पात्रता के अभाव में सदा मस्तिष्क पर दुर्बुद्धि छाई रहती है एवं अनायास ही कोई सुयोग आ टपके तो वही माँग बैठती है, जो अंततः आत्मघाती सिद्ध होती है।