मनुष्य सिद्धियों एवं चमत्कारों की ओर सहज ही आकर्षित होता देखा जाता है, लेकिन एक तथ्य जो सबसे महत्तवपूर्ण है और जिसे सदैव भुला दिया जाता है, वह यह कि चेतना के अंतराल को कुरेद कर प्रसुप्त शक्तियों को जागृत करके सिद्धिसंपन्न बनने की क्षमता प्रत्येक पात्रतासंपन्न व्यक्ति में अंतर्निहित हैं। मनुष्य योनि को सुर दुर्लभ इसीलिए कहा गया है कि इस काया में वह विकास करते हुए स्वयं को महामानव, देवमानस एवं ऋषिस्तर तक पहुँचाने की क्षमता रखता है। साधना के उच्च सोपानों पर चढ़ते हुए अवतार स्तर तक पहुँच सकता है।
वस्तुतः सिद्धिवान होना महामानव होने का प्रमाण नहीं है। सच्चे सिद्धपुरुष प्रदर्शन नहीं करते; वरन वे आवश्यकतानुसार सुपात्रों पर अपने अनुदान बरसाते हुए उनके माध्यम से सृष्टा का अभीष्ट प्रयोजन पूरा करते है। समष्टि की आराधना ही उनका लक्ष्य होता है एवं निरपेक्ष भाव से करते हुए वे कृतकृत्य होते हैं। उनके जीवन प्रसंग औरों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन जाते हैं। भारतवर्ष का सांस्कृतिक इतिहास ऋषिगणों, विभूतियों द्वारा आत्मसत्ता के प्रचंड पुरुषार्थ से अर्जित उपलब्धियों— कथा-प्रसंगों से भरा पड़ा हैं। ये पौराणिक मिथक किसी को चमत्कृत करने के लिए नहीं, वरन उन्हें अध्यात्मक्षेत्र की असीम संभावनाओं का परिचय देने के लिए वर्णित किए जाते रहे हैं। उनका बार-बार स्मरण इसीलिए कराया जाता है।
संपूर्ण आत्मिक विभूतियों, ऋद्धि-सिद्धियों का आधार आत्मशोधन की साधना एवं लोक-मंगल की कामना से जुड़ा प्रचंड तप पुरुषार्थ ही रहा हैं। शाप और वरदान देने की शक्ति इसी आधार पर मिलती है। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र ने नूतन सृष्टि की रचना इसी आधार पर की थी। मुनि भारद्वाज ने अपने अग्रज को मनाने, वापस जाते भरत का राजसी सत्कार अपने तपोबल के आधार पर किया था। महर्षि वशिष्ठ की कामधेनु किसी भी क्षण ऐश्वर्य-साम्राज्य खड़ा करने में सक्षम थी। यह उनकी तपोबल द्वारा अर्जित सिद्धि ही थी।
सिद्धियाँ दो तरह की होती हैं। प्रथम निम्न स्तर की अपरिष्कृत, अतिभौतिक एवं मानसिक शक्तियों की, दूसरी आध्यात्मिक शक्तियों के उच्चतम अभ्यास की। श्री मद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कहा कि— “जो साधक योग कर्म में लगे हैं तथा जिन्होंने अपनी इंद्रियों को दमित या शांत कर लिया है अथवा जो जितेंद्रिय हो गए हैं तथा जिन्होंने अपने मन को मुझ में एकाग्र कर लिया है, ऐसे योगियों की सेवा के लिए सभी सिद्धियाँ तैयार खड़ी रहती है। उनके प्रति सभी की कृपादृष्टि बनी रहती हैं। हिंसक जीव-जंतु, पशु-पक्षी भी उनके समीप आकर अपनी क्रूरता, हिंसाभाव भूल जाते हैं और अपने परिवार के सदस्यों जैसा व्यवहार करने लगते हैं।”
संत एकनाथ शूलभंजन पर्वत पर तपस्या कर रहे थे। भगवान के ध्यान में इतना निमग्न थे कि उनके ऊपर एक विषधर नाग चढ़ गया, जिसका उन्हें पता ही नहीं चला। काया के स्पर्शमात्र से विषैले सर्प का भाव बदल गया। दंश मारने के स्थान पर वह सिर पर फन फैलाकर बैठ गया। एक ग्वाले ने उन्हें जब सावधान किया तो वे बोले— जब प्रभु कृपालु होते हैं तो, जड़-चेतन सभी उसके हितैषी और शुभचिंतक बन जाते हैं। इस सर्प की मेरे ऊपर विशेष कृपा है। इसी तरह महर्षि रमण के पास हिंसक जीव शांतभाव से बैठे रहते थे। आश्रम के बंदर, गिलहरी उनसे खेलते थे। दो सुंदर मोर, कुत्ता, ‘कुरुप्पन’ तथा ‘लक्ष्मी’ गौ उनके विशेष प्रेमियों में थे।
उच्चस्तरीय साधना शक्तिसंपन्न साधकों में अद्भुत क्षमताएँ आ जाती हैं। वे चाहें तो भौतिक सीमाओं, बंधनों, आघातों एवं दिक् काल की मर्यादाओं से मुक्त एवं अप्रभावित बने रह सकते है। ऐसे अनेकों संत एवं सिद्धपुरुष हुए हैं, जिन्हें अपने सुधारवादी दृष्टिकोण या आन्दोलन के कारण तत्कालीन शासकों एवं प्रशासकों के कोप का शिकार होना पड़ा; पर वे उनका कुछ भी न बिगाड़ सके।
बनारस के मुगल शासक के कट्टरपंथी मुल्लाओं ने संत कबीर की शिकायत कर दी। उससे कहा गया कि वे अल्लाह के नाम पर लोगों को बरगलाते हैं। शासक ने उन्हें हथकड़ी डालकर गंगा में फेंक देने का आदेश दिया। विज्ञ समुदाय ने जब ऐसा करने से उसे रोकना चाहा तो कहा गया कि यदि इसका भगवान या अल्लाह कोई सगा होगा तो नदी में डूबने से इसे बचा लेगा; अंततः उसके आदेशानुसार संत कबीर को नदी में फेंक दिया गया। थोड़ी ही देर में वे आराम से किनारे पर आकर बैठ गए। उन्हें देखकर अनाचारी नतमस्तक हो गए। इसी तरह प्रसिद्ध योगी तैलंग स्वामी को भी अपने अवधूतपन के कारण एक अंग्रेज अधिकारी का कोपभाजन बनाना पड़ा। उसने अपनी देख-रेख में उन्हें जेल की एक कोठरी में बंद करा दिया और चारों ओर पुलिस का पहरा बिठा दिया। कुछ देर पश्चात् देखा तो वे छत पर टहलते नजर आए। उन्हें पकड़कर जब दुबारा कालकोठरी में ठूँस दिया गया तो इस बार वे बाहर मैदान में टहलते पाए गए। पूछे जाने पर उन्होंने कहा— “ईश्वर की इच्छा को ताले की चाबी द्वारा नहीं रोका जा सकता। यदि ऐसा संभव होता तो मृत्यु के पूर्व प्रियजनों को ताले में बंद करके बचाया जा सकता था “ इस घटना से प्रभावित होकर वह अंग्रेज जिलाधीश उनका भक्त बन गया।
आचार्य शंकर को बलि चढ़ाने की इच्छा से एक तांत्रिक धोखे से उन्हें वध स्थल पर ले गया। आचार्य मुस्कराते हुए खड़े रहे और वह उनके शरीर पर अपना खड्ग चलाता रहा। प्रत्येक बार में खड्ग शरीर के आर-पार यों निकलता रहा, मानों हवा में घूम रहा हो। इस दृश्य को देखकर तांत्रिक घबरा गया और उनके चरणों में गिर पड़ा। शंकराचार्य परकाया प्रवेश जैसी अनेकानेक सिद्धियों के स्वामी थे। अपने दिग्विजय अभियान में उन्होंने मंडन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने के पश्चात उनकी पत्नी भारती देवी के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए आमरु नामक राजा के मृत शरीर में प्रवेश करके कामशास्त्र का अध्ययन किया था। इसके बाद पुनः अपने शरीर में वापस आ गए थे। एक अंग्रेज सैनिक अधिकारी एल॰ पी0 फैरेल ने भी हिमालय के एक योगी को अपनी वृद्ध जर्जर काया को त्यागते एवं नदी के प्रवाह में बहते एक युवा के मृत शरीर में प्रवेश करते देखा था। इस घटना का विशद वर्णन उनने अपनी पुस्तक में भी किया है। इटली के प्रसिद्ध संत पादरी पियो स्वेच्छानुसार अपने सूक्ष्मशरीर से यात्रा करने दूरस्थ लोगों तक पहुँचने तथा उन्हें सहायता पहुँचाने के लिए प्रख्यात रहे है।
आत्मसत्ता की प्रचंड क्षमता से स्थूलजगत में पदार्थगत एवं सूक्ष्मचेतन-जगत में अद्भुत परिवर्तन किये जा सकते हैं। किसी को भी मोड़ा-मरोड़ा और अपने अनुकूल बनाया जा सकता है। ऐसे कई संत, महात्मा एवं योगी हुए हैं, जिन्होंने अपनी आत्मशक्ति का— उपलब्ध सिद्धियों का सदुपयोग मात्र जनकल्याण में, लोगों को सही दिशा की ओर प्रेरित करने में किया है।
संत ज्ञानेश्वर जन्मजात सिद्धपुरुष थे। प्रकृति पर उनका पूर्ण नियंत्रण था। वे आत्मा की सर्वव्यापकता एवं एकरूपता पर विश्वास करते थे और वहीं— लोगों को उपदेश भी दिया करते थे। एक बार उन्होंने पंडितो के बीच कहा— “आत्मा सभी प्राणियों में समान रूप से व्याप्त है” इस पर एक पंडित ने व्यंग्य किया और सामने कुछ दूर खड़े एक भैंसे की ओर संकेत करते हुए कहा - “इसका भी नाम ज्ञान है। तुम दोनों एक हो।” ज्ञानेश्वर ने कहा - "हाँ, दोनों की आत्मा एक है।" तभी किसी ने भैंसे की पीठ पर लाठी से जोरदार प्रहार किया और उसके निशान ज्ञानेश्वर की पीठ पर उभर आए। इस पर दूसरे पंडित ने कहा —"फिर तो भैंसा भी वेदपाठी हो सकता है?" संत ने उसकी पीठ पर हाथ रखा और उसके मुख से सस्वर वेदपाठ निकलने लगा। पंडितो को उनकी महत्ता स्वीकारनी पड़ी।
सिद्धियाँ वस्तुतः अंतःकरण की पवित्रता एवं तपश्चर्या की प्रखरता के आधार पर ही अर्जित की जाती है। ऐसे महापुरुषों के अंतःकरण से निकले शब्द कभी निष्फल नहीं जाते। तपश्चर्या द्वारा उपार्जित प्राणशक्ति का एक अंश देकर वे अनेकों को आगे बढ़ाते, ऊँचे उठाते देखे गए हैं। समर्थ गुरु ने शिवाजी को, प्राणनाथ ने छत्रसाल को, रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद को, विरजानंद ने दयानंद को इसी तरह सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप दिशा दी और अपनी सिद्धियाँ हस्तांतरित कर उन्हें राष्ट्र, समाज एवं संस्कृति की महान सेवा करने के लिए प्रेरित किया। समर्थ ने शिवाजी की परीक्षा ली और उत्तीर्ण होने पर उन्हें भवानी से प्राप्त एक अजेय तलवार दी। आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा — “इस तलवार को लेकर तू कभी पराजित नहीं हो सकता।” वैसा ही हुआ भी। अर्जुन को तपस्या एवं चरित्रनिष्ठा में खरा सिद्ध होने पर ही शिवजी से पाशुपत अस्त्र, इंद्र से गाण्डीव तथा अग्नि से अक्षय तरकश प्राप्त हुआ था। बुंदेलखंड के छत्रसाल पर संत प्राणनाथ जी प्रसन्न हो गए थे। उन्होंने एक दिन प्रातःकाल उनसे कहा कि आप जितने क्षेत्र की परिक्रमा घोड़े पर चढ़कर लगा लोगे, उस भूमि में रत्नों की उपलब्धि होने लगेगी। मध्य प्रदेश का पन्ना क्षेत्र अभी भी हीरों का उत्पादक क्षेत्र बना हुआ हैं। वहाँ के निवासी इसे अपने राजा के गुरु की शक्ति का प्रताप ही मानते है।
परम योगी गोरखनाथ जी की सिद्धि-कथाएँ अभी भी लोक-मानस में छाई हुई हैं। उन्होंने अपने योग एवं तपशक्ति का उपयोग सदैव लोक-मंगल के लिए समर्पित प्रतिभाओं को खोजने और उन्हें दिशा देने के लिए किया है। कहा जाता है कि सियालकोट के राजा पूरण को उनकी विमाता ने हाथ-पैर कटवाकर कुँए में फिंकवा दिया था। गोरखनाथ ने उनका उद्धार किया और दीक्षा दी। कालांतर में चौरंगीनाथ के नाम से वे विख्यात संत हुए। मेवाड़ राज्य के संस्थापक बप्पा रावल को प्रसन्न होकर उन्होंने एक सिद्ध तलवार दी थी। जिसके बल पर बप्पा रावल ने चित्तौड़ राज्य की स्थापना की। वह तलवार पीढ़ियों तक राज्य चिह्न के रूप में चलती रही। राजा भर्तृहरि भी उन्हीं के शिष्य थे।
सिद्ध मुस्लिम संतों में दिल्ली के निजामुद्दीन औलिया और शेख सलीम चिश्ती अधिक प्रसिद्ध हैं। उन दिनों संत निजामुद्दीन की सिद्धि-गाथाएँ दूर-दूर तक फैली हुई थी, जिससे कुपित होकर एक बार तत्कालीन शासक ने उन्हें फरेबी समझकर उनके यहाँ भेजे जाने वाले तेल पर रोक लगा दी। इस तेल से दीपक जलाए जाते थे। जब इस स्थिति की जानकारी संत को हुई तो उन्होंने शिष्यों से कुएँ का पानी भरकर दीपकों में डालने को कहा। उनके आदेश का पालन हुआ और पानी तेल की तरह दीपकों में जलने लगा। दिल्ली का वही क्षेत्र आज “चिराग दिल्ली” के नाम से विख्यात है। इसी तरह बादशाह गयासुद्दीन एक बार उन्हें दंडित करने की घोषणा करके चला था। बल्लभगढ़ के पास शाही लश्कर पहुँच चुका था। लोगों ने संत को इसकी सूचना दी तो वे बोले अभी दिल्ली दूर है।” और दिल्ली पहुँचने के पहले ही गयासुद्दीन चल बसा।
तप-साधन से प्रसुप्त अंतःशक्तियों का जागरण होता है; किंतु प्रभावशाली वे तभी होती है जब उच्च उद्देश्यों से जागृत शक्तियाँ-सिद्धियाँ अंततः दुर्बल सिद्ध होती हैं और साधक के पतन तथा विनाश का कारण बनती हैं। दुर्वासा ने अहंकार से प्रेरित होकर तपशक्ति से कृत्या पैदा की और बदले की भावना से राजा अंबरीष पर छोड़ी। इस पर उन्होंने सदाशयता से भगवान का स्मरण किया तो चक्रसुदर्शन प्रकट हुआ। कृत्या पराजित हुई तथा दुर्वासा को अंबरीष से क्षमा माँगनी पड़ी। इसी तरह कणाद ऋषि को नीचा दिखाने की इच्छा से वे एक बार उनके यहाँ भोजन करने जा पहुँचे और असाधारण क्षुधा बढ़ा ली। कणाद ने सहज आतिथ्य भाव से कण-कण एकत्र किए गए अन्न को अक्षय बना दिया। दुर्वासा का पेट भर गया पर अन्न समाप्त नहीं हुआ।
राक्षस वस्तुतः भटके हुए साधक थे। उन्होंने उपलब्ध क्षमताओं का अहंकारवश दुरुपयोग करना चाहा और किया भी; इसीलिए सबके सब विनष्ट हुए, अन्यथा उन्हें असाधारण सामर्थ्य प्राप्त थी। हिरण्यकश्यप की बहन होलिका को अग्नि में जलने की सिद्धि प्राप्त थी। प्रहलाद को लेकर लकड़ियों के ढेर पर बैठ गई। प्रज्वलित अग्नि में वह भस्म हो गई, पर प्रहलाद बच गए। सिद्धियाँ एक ओर रखी रह गई।
भस्मासुर, शुंभ-निशुंभ, मधुकैटभ, नरकासुर, वृत्रासुर जैसे अनेकों राक्षसों ने तप से ही सिद्धियाँ अर्जित की थीं। उनका लक्ष्य सदैव एक ही रहता था। देवतत्त्व को किस प्रकार हानि पहुँचाई जाए, उन्हें कैसे नष्ट किया जाए? पौराणिक मिथकों में देवासुर संग्राम की चर्चा प्रायः हर कल्पयुग के साथ जुड़ी पाई जाती है। संभवतः ऋषि-मनीषियों का इन कथानकों-मिथकों से यह तात्पर्य रहा हो कि मात्र तप-तितीक्षा ही सब कुछ नहीं। संयम से उपलब्ध क्षमताओं का क्षरण रोकना एवं पात्रता का उपार्जनकर इन सिद्धियों का सत्प्रयोजनों में प्रयोग हो रहा है अथवा नहीं, यही अनुशासित व्यवस्था परम सत्ता की ही है। देवपक्ष जहाँ असंयम से, विलासिता से समय-समय पर अपनी क्षमताएँ नष्ट करता रहा है, वहाँ असुरपक्ष ने सिद्धियों का दुरुपयोग मात्र किया है। दोनों को ही ऐसी दशा में पतन-पराभव का मुख देखना पड़ा हैं। संयम की प्रेरणा देकर अवतारसत्ता ने स्वयं अवतरित हो देवों का मनोबल बढ़ाया एवं उन्हें विजय के लक्ष्य तक पहुँचाया है। साथ ही जिन असुरों ने विद्वता में, शक्तिसंचय में, सिद्धि-सामर्थ्य में महारत हासिल की, किंतु दुर्मतिवश पथभ्रष्ट हो गए, उन्हें नष्ट करने का प्रयोजन भी उसी परम सत्ता ने पूरा किया है, जिसने वरदान दिया थ; किंतु जब उसने अनाचार की अति कर दी, अपनी सामर्थ्य से ऋषियों-तपस्वियों का जीना दूभर कर दिया, तो ऋषिरक्त को संचितकर स्वयं शक्ति ने सीता के रूप में अवतरित होने का निश्चय किया। इन्हीं सीता का रावण ने दुर्बुद्धिवश अपहरण किया एवं राम के रूप में बारह कलाओं से संपन्न स्वयं भगवत सत्ता ने उस रावण के सारे वंश को समूल नष्ट कर दिया। अनीति देर तक टिक नहीं पाती। सिद्धियाँ चाहे वे भौतिक हों अथवा आध्यात्मिक हर दृष्टि से सुनियोजित दिशा की अपेक्षा रखती हैं। नहीं तो, उनके लुप्त होने में तनिक भी विलंब नहीं लगता। हर साधक को यह तथ्य सदैव ध्यान में रखना चाहिए।
योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पातंजलि ने मानव द्वारा अर्जित की जा सकने वाली सिद्धियों का विभाजन योग्यता तथा शक्ति के आधार पर आठ वर्गों में किया हैं। ये हैं— अणिमा (परमाणु की तरह सूक्ष्म हो जाना), महिमा (अति विशाल हो जाना), लघिमा (अत्यंत हल्का हो जाना), गरिमा (सघन हो जाना), प्राप्ति (कहीं भी जा पहुँचने की शक्ति), प्रकाम्य (इच्छाओं तथा कामनाओं को जानने की सामर्थ्य), इश्वतत्त्व (नियंत्रण तथा निर्माण की शक्ति), वशितत्त्व (सभी पदार्थों पर शासन करने की सामर्थ्य)। ये सभी मूलतः भौतिक क्षेत्र से संबंधित शक्तियाँ हैं। इनसे आध्यात्मिक प्रगति, सद्गुण-संवर्द्धन, ईश्वरीयसत्ता से साक्षात्कार की, जीवनमुक्ति की आशा नहीं की जा सकती। यही कारण है कि उच्चस्तरीय साधक इन सिद्धियों की कभी कामना नहीं करते। वे निष्काम योग-साधना में, समष्टि की आराधना में विश्वास रखते है। इसके बदले दैवी अनुग्रह एवं असीम जनसमुदाय का सहयोग-सम्मान पाते हैं, आत्मसंतोषरूपी अनुदान पाते हैं।