आत्मबोध से लक्ष्यप्राप्ति

December 1987

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छोटा बच्चा जिसे अपना नाम, पता कुछ भी मालूम नहीं हैं, यदि भयंकर भीड़ वाले मेले में खो जाए तो उसका अपने अभिभावकों से मिल सकना कठिन है। ढूँढ़, खोज होते रहने पर भी कुछ पता न चलेगा। बच्चा किसी अजनबी के हाथ पड़ेगा और अभिभावक जन्म भर रोते-कलपते रहेंगे। जीवित रहते हुए वह अपने घर-परिवार के लिए मृतकतुल्य बन जाएगा। बच्चा भी उपेक्षित स्तर का जीवन जिएगा।

आत्मबोध न होने की स्थिति में वयस्कों की भी यही दुर्दशा होती है। वे अपना स्वपूर्व, आश्रय, कर्त्तव्य, भविष्य आदि के संबंध में समुचित जानकारी न रहने पर व्यामोहग्रस्तों जैसी स्थिति बना लेते है। वह भटकावों में भटकता रहता है। ऐसे मार्ग पर चल पड़ता है, जिसमें कटीले झाड़-झंखाड़ों के अतिरिक्त और कुछ नहीं। उसी जंजाल में कपड़े फटते, अंग छिलते और पैरों में छाले पड़ते रहते हैं।

इस विडंबना से बचने के लिए एक ही उपाय है कि अपने संबंध में जानकारी प्राप्त की जाए। उस सुसंपन्न अभिभावक का अता-पता मालूम किया जाए, जिसका उत्तराधिकार मिलने भर से निहाल बना जा सकता है। दिशाज्ञान हो तो धीमी चाल से चलते हुए भी उस लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है और प्रसन्नता और सुसंपन्नता की कमी नहीं रहती। लक्ष्य भूल जाने पर सही राह कैसे मिलेगी? गन्तव्य का बोध ही न रहने पर वहाँ तक पहुँच सकना बन ही न पड़ेगा।

भटकाव के मार्ग में कटीली झाड़ियों के साथ उलझते-सुलझते रहना स्वाभाविक है। पैरों में ठोकरें लग सकती हैं। भूख-प्यास की शीत-ताप की व्यथाएँ भी सहनी पड़ सकती हैं। इन विग्रहों से बचने के लिए उपयुक्त यही है कि जैसे भी बने अपना अता-पता मालूम किया जाए, अभिभावकों के साथ संबंध जोड़ा जाए और इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाए कि क्या रीति-नीति अपनाई जाए? क्या किया जाए और कहाँ पहुँचा जाए?

सामान्यता मनुष्य इसी विभ्रम में भटकता रहता है। वह अपने को शरीर के लबादे में लिपटा देखता है। विवेकदृष्टि न होने पर यही मान बैठता है कि वह वही है जो अपने को सबकी आँखों से दिख पड़ता है। दिखने वाला आवरण भर है; अस्तित्व नहीं। आवरण फटते-बदलते रहते हैं, पर अस्तित्व की सत्ता यथावत् बनी रहती है। भला-बुरा जो होना होता है, उसी का होता है। यह अंतर समझा जा सकता था,पर इस विडंबना ही कहना चाहिए कि न वास्तविकता सहज में समझ आती है और न समझने की चेष्टा की जाती है; फलतः भ्रम-जंजालों में भटकते ही समूची आयुष्य बीत जाती है। कोल्हू के बैल की तरह निरंतर जूते रहने पर भी मजूरी के नाम पर सूखा भूसा ही हाथ लगता है, असंतोषजनक अपर्याप्त, विवशता में भारभूत जीवन ही वहन करना पड़ता है।

किसी सेठ ने मरते समय अपने इकलौते छोटे बच्चे के गले में बहुमूल्य मोतियों का कंठा बाँध दिया था। बच्चा छोटा था। बड़ा हुआ तो घर में संपत्ति के नाम पर कुछ भी न पाया। भिक्षा से, पेट भरने लगा। समझदार होने पर उसने दर्पण में मुँह देखा, कंठा पाया। उसने एक, एक करके मोती जौहरियों के यहाँ बेचे। व्यापार किया और पिता जैसा सुसंपन्न बन गया।

यह उदाहरण हर व्यक्ति पर लागू होता है। व्यक्ति वस्तुतः अजर-अमर आत्मा है। परमात्मा का ज्येष्ठ पुत्र— युवराज। उसके अंतराल में बीजरूप से इतना कुछ भरा पड़ा है, जिसे यदि उगाया, उभारा जा सके तो जीवन-उद्यान नंदनवन की तरह महक सकता हैं, अपने आपको को सुव्यवस्थित कर लेने पर गौरव-गरिमा से भरे पूरे राजमार्ग पर चला और वहाँ पहुँचा जा सकता है, जिस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए देवता तक तरसते हैं। मनुष्य जन्म सुरदुर्लभ कहा गया है। देवता एक प्रकार की भोग योनि है। वे मात्र प्रारब्ध भुगतते हैं, किंतु मनुष्य को कर्म करने और भविष्य बनाने का पूरा अवसर है। इस सुयोग को आमतौर से उपेक्षा में ही अस्त−व्यस्त कर दिया जाता है।

योनियों में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य योनि है। इतनी सुविधाएँ अन्य किसी प्राणी को उपलब्ध नहीं। मनुष्य कलेवर में प्रवेश करने के उपरांत भी अनुगमन की, अभ्युदय, उत्कर्ष की कई सीढ़ियाँ हैं। गए-गुजरे लोग तो नर-पशु जैसा वनमानुष या नर-वानर जैसा अनगढ़ जीवन ही जी पाते हैं, पर यदि उनके चरण प्रगति-पथ पर बढ़ चलें तो महामानव, नर-नारायण, पुरुष, पुरुषोत्तम, देवता, ऋषि, अवतार जैसा स्तर प्राप्त कर सकना कोई कठिन नहीं है। सही स्वरूप समझने पर सही मार्ग भी मिल जाता है। और सही लक्ष्य पर पहुँच सकना भी कठिन नहीं रहता। मनुष्य महान हैं। उसकी प्रगति भी महानता की दिशा में ही होनी चाहिए। वैसी ही उपलब्धियाँ भी हस्तगत होनी चाहिए।

जिन विभूतियों को प्राप्त कर लेने की समुचित संभावना है, उनसे वंचित क्यों रहना पड़ता हैं? इसका एक ही कारण है, आत्मस्वरूप के संबंध में भ्रम और कर्त्तव्य के संबंध में भटकाव। इस विपन्नता से यदि छुटकारा मिल सके तो वह सब कुछ मिल सकता है, जिसे इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखे हुए महामानव प्राप्त कर सके हैं।

इस मार्ग में सबसे बड़ी कठिनाई एक ही है, अपने को आत्मा के स्थान पर शरीर मान बैठना और उन्हीं प्रयासों में निरत हो जाना जो शरीर की ललक, लिप्सा की पूर्ति के लिए किए जाते हैं। लोभ, मोह और अहंकार शरीर की ही अभिलाषाएँ हैं। वासनाएँ और तृष्णाएँ भी उसे मनः क्षेत्र से उभरती हैं, जिसे ग्यारहवीं अदृश्य इंद्रिय कहा जाता है। यह अभिलाषाएँ जब प्रचंड रूप धारण करती हैं, तो मर्यादाओं को तोड़ती, वर्जनाओं को लाँघती, बाढ़ के पानी की तरह मार्ग में जो आता है, उसी को डुबोती-मिटाती चलती हैं। आग ईंधन डालने से बुझती नहीं, वरन और भी अधिक भड़कती है। लिप्साओं को पूरा करने का जितना प्रयत्न किया जाता है, तृष्णा उसी अनुपात में और भी अधिक बढ़ती चली जाती है। जाल में फंसे हुए पक्षी के फंदे उसके फड़फड़ाने के साथ और भी अधिक जकड़ते चले जाते है।

शरीर को जितना दिया जाता है, उसकी तुलना में उसकी माँग बढ़ती ही जाती है। इसे पूरा करने के लिए अनाचार की सीमा तक पैर जा पहुँचते है। इतने पर भी तृप्ति का कोई ओर छोर नहीं दिखता। बढ़ते हुए विषयों की परिणति व्यसनों और संकटों के रूप में सामने आ खड़ी होती है। आयुष्य इसी प्रकार बीतता चला जाता है। अंत में कषाय-कल्मषों के कुसंस्कार और पाप-कर्मों के भयानक अभिशाप पीठ पर लदकर भुगतने के लिए साथ चलते है।

बहुमूल्य जीवन का यह अपव्यय मात्र इसलिए ही होता है कि मनुष्य अपने आत्मस्वरूप को समझने का प्रयत्न नहीं करता। उसे स्मरण ही नहीं रहता कि वह आत्मा है— ईश्वर का अविनाशी अंश। उसे सृष्टा के सुरम्य उद्यान का वरिष्ठ माली बनाकर भेजा गया है। उसका दायित्व है कि विश्व-वाटिका को संतुलन बनाने के लिए भरपूर परिश्रम करे और प्रेम तथा श्रेय का दुहरा लाभ प्राप्त करें। इस पुण्य-परमार्थ के साथ-साथ अपनी अपूर्णता को पूर्णता में बदलने का लाभ भी अनायास ही मिलता रहता है।

सच्चाई और सात्विकता का सीधा मार्ग है। न उसमे मोड़-तोड़ है, ना छल प्रपंच। सीधा सरल मार्ग हर किसी के लिए सरल हो सकता है और उस पर चलते हुए कोई भी सुख-शांति से भरे जीवनोद्येश्य को पूर्ण कर सकता है। शर्त एक ही है की अपना स्वरुप, आश्रय और कर्त्तव्य समझा जाए। यह समझने में कठिनाई तभी होती है, जब व्यक्ति अपने आपको शरीर मान बैठता है और उसी के लिए मरता-खपता है। यदि अपने को आत्मा माना जा सके, उसकी गरिमा को सँजोए रखा जा सके तो समझना चाहिए कि लक्ष्य प्राप्ति में कोई कठिनाई नहीं रह गई।


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