मानवी शरीर चेतना का एक विशाल भंडार है। इसी ऊर्जा-प्रवाह से शरीर के सारे आंतरिक क्रियाकलाप चलते रहते हैं और वह स्वस्थ— सबल बना रहता है, पर कई बार इस शक्ति-प्रवाह में व्यतिक्रम उत्पन्न हो जाने से विद्युत सभी अंगों को समान रूप में नहीं मिल पाती। ऐसी असंतुलन की स्थिति में उनमें तरह-तरह के असामान्य लक्षण उभरने लगते हैं, जो अन्ततः व्याधि का रूप धारण कर लेते हैं। इस स्थिति में यदि चेतना-प्रवाह के व्यवधान को किसी बाह्य माध्यम द्वारा ठीक किया जा सके, तो शरीर के अंग पुनः स्वस्थता को प्राप्त कर सकते हैं।
आजकल चिकित्सा जगत में इसी सिद्धांत का उपयोगकर कृत्रिम यांत्रिक विद्युत द्वारा विभिन्न प्रकार के रोगों का उपचार किया जा रहा है। उपचार जगत में चिकित्सा विज्ञान की इस नवविकसित तकनीकी को “इलैक्ट्रोथेरेपुटिक डिवाइसेज” के नाम से जाना जाता है। इस प्रयोजन हेतु रुग्ण शरीर के भीतर के ऊर्जा केंद्रों को विकसित किया जाता है और बाह्य विद्युत के हस्तांतरण का कार्य संपन्न भी। जिससे शरीर को अनुभव होने वाले दुख-दर्दों को आसानी से दूर किया जा सके। इतना ही नहीं गूँगे का बोलना, अंधे का देखना और अपंग का चल सकना तथा पागलों का ठीक होना भी संभव हो सका है।
गत दो दशकों की उपलब्धियों को ध्यान में रखते हुए चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञों ने विश्वास प्रकट किया है कि बिना किसी औषधि और शल्य-प्रक्रिया के क्षतिग्रस्त तंत्रिकाओं को आसानी से जोड़ा और सक्रिय बनाया जा सकता है। लगभग 2000 वर्ष पूर्व रोमन चिकित्सकों द्वारा ईल मछली पर किए गए परीक्षणों से यह सिद्ध हो गया था कि मछली की टाँग कटकर भी कुदकने-फुदकने लगती है, अर्थात् शरीर से अंगों के पृथक हो जाने पर भी उनमें विद्युत-प्रवाह अनवरत बना ही रहता है। यदि इस विद्युत-प्रवाह को पुनः शरीर में हस्तांतरित किया जा सके तो टूटी हुई अस्थि पुनः जुड़ सकती है। सन् 1812 में इसी स्तर के सफल प्रयोग-परीक्षण बहुत बड़ी संख्या में संपन्न किए गए। इसके बाद ही फैराडे का “इलैक्ट्रोमेग्नेटिक काॅयल” का सिद्धांत प्रकाश में आया। यदि इस चिकित्सा के विकास का यही क्रम निरंतर चलता रहा तो इस शताब्दी के आखिर तक जनसाधारण भी इसके प्रभावकारी सत्परिणामों से अवगत होकर विभिन्न रोगों से बचाव हेतु इनका लाभ उठा सकेंगे।
काय-विद्युतीय क्षमता के सिद्धांत पर ही सन् 1970 में ल्यूगी गैल्वेनी ने एक मेंढक की टाँग को एक धातु के टुकड़े से स्पर्श कराया तो उससे जुड़े यंत्र में विद्युत करेंट जैसे झटके महसूस होने लगे। यानी धातु में विद्युत धारा का संचार हो उठा। यही ऊर्जा प्रवाह माँसपेशियों, कोशिकाओं और त्वचा की क्रियाशीलता बढ़ाने में सक्रिय योगदान देता रहता है।
विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक आलसेंडो वोल्टा ने यह सिद्ध कर दिखाया है कि विद्युत उद्दीपनों की न्यूनाधिकता के कारण ही मांसपेशियाँ सिकुड़ती-फैलती रहती हैं। शरीर के स्नायुतंत्र की संरचना को देखकर यही कहा जा सकता है कि कोशिकाओं का संबंध विद्युत धारा के साथ स्थापित होने से विद्युत रसायन तरंगों में परिवर्तित हो जाती है, जो टूटी हुई अस्थि को फिर से जोड़ देने में सफल होती है। इसी विद्युतीय क्षमता के आधार पर हृदय रोगियों को भी स्वस्थ जीवन जीने के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया जा रहा है। हृदय की धड़कनों में परिवर्तन तथा अन्यान्य प्रकार की दुर्बलताओं में इन्हीं विद्युत रसायन तरंगों का प्रयोग आरोग्य लाभ के लिए किए जाने लगा है। पेसमेकर के आरोपण की प्रक्रिया भी इसी सूत्र के आधार पर सफल हुई है।
जाॅन हाॅपकिन्स संसार का सबसे पहला व्यक्ति है, जिसने हृदय रोगियों की पीड़ा को भलीभाँति समझा और उपचार हेतु चिकित्सा के नए आयाम खोज निकाले। “ओटोमैटिक इम्पलान्टेबल डीफ्रिब्रीलेटर” की खोज का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत विद्युत आघात का ही प्रयोग किया जाता है, जिससे रोगों के हृदय की धड़कन सामान्य एवं लयबद्ध तरीके से सुसंचालित होने लगती है। बाल्टीमोर के सिनाई हॉस्पिटल की कोरोनरी केअर यूनिट के निदेशक डॉ0 माइकल मिरोवस्की ने 900 वोल्ट की ऐसी बैटरी का निर्माण करके दिखाया है, जो हृदय की अत्यधिक अनियंत्रित एवं असामान्य धड़कनों को सुगमतापूर्वक नियंत्रित कर सकती है।
कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के डॉ0 एन्ड्रयू बैसेट ने अस्थि भंग के पाँच रोगियों को परीक्षण हेतु चुना। जिनकी चिकित्सा असंभव-सी दिखती थी। विद्युत-प्रवाह को शरीर में पहुँचाने से उनमें से चार लोगों की टूटी हड्डी पाँच माह के अंदर ही पुनः पूर्ववत् हो गई। उनके कथनानुसार विद्युत-प्रवाह अस्थियों की जीवित कोशिकाओं को सीधा प्रभावित करता है और केल्शियम आयन्स एकत्रित होने की प्रक्रिया को प्रभावहीन बनाकर छोड़ता है। यह ऊर्जा-प्रवाह शरीर में पहुँचते ही कोशिकाओं में समाविष्ट ऑक्सीजन की मात्रा कम करता और क्षारीयता को बढ़ाता है, जिससे हड्डियाँ जुड़ने की प्रक्रिया संपन्न होती है।
मस्तिष्क को ऊर्जाशक्ति का मूल स्रोत माना जाता है। शरीर तंत्र के कुशल संचालन में इसी क्षमता की आवश्यकता पड़ती है। यह देखने में भले ही छोटा हो, किंतु इसकी प्रभावी क्षमता देखते ही बनती है। छोटे से परमाणु को जब अपनी शक्ति प्रदर्शित करने का अवसर मिलता है, तो वह धरती-आसमान हिलाकर रख देता है। मानव शरीर की ऊर्जा में चेतनतत्त्व घुले रहने के कारण इसकी सामर्थ्य और भी बढ़ जाती है। मस्तिष्क के मध्य अर्थात् पेरीएक्वेडक्टल ग्रे मैटर में ऊर्जा-प्रवाह पहुँचाने से प्रतिक्रियास्वरूप इनडोर्फिन नाम का एक प्राकृतिक रसद्रव्य निस्सृत होने लगता है, जो दर्द के प्रभाव को तुरंत समाप्त कर देता है। कैलीफोर्निया यूनीवर्सिटी के डॉ0 योशिया होसोबुची ने इस तरह के परीक्षण कैंसर रोगियों पर भी किए, जिनमें अप्रत्याशित सफलता मिली है। अलबर्ट आइंस्टीन कॉलेज ऑफ मेडिसिन के डॉ0 स्टीफन वेज के अनुसार आज कई चिकित्सा केंद्रों में इस स्तर के प्रयोग 75 प्रतिशत रोगियों पर किए जाने लगे हैं, जिसके आशातीत सत्परिणाम सामने हैं।
ट्यूलेन यूनीवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के डॉ0 राबर्ट हीथ के अनुसार यह ऊर्जा-प्रवाह शरीर में पहुँचकर न केवल दर्द को ही मिटाता है, वरन चेतन तत्त्व मिले रहने के फलस्वरूप विचारों की श्रृंखला को भी पूरी तरह प्रभावित करता है। योग-साधना के द्वारा इसी काय-ऊर्जा को, संतुलित-नियंत्रित करके मस्तिष्क के ‘प्लेजर सेंटर्स’ को सरलता से उकसाया जाता है, जिससे व्यक्ति का जीवन सदा स्वस्थ एवं सुखद बना रहता है। स्पेन के सुप्रसिद्ध चिकित्सक जोस डलगाडो द्वारा किए गए परीक्षणों से पता चला है कि यदि मस्तिष्क को विद्युत द्वारा उत्तेजितकर उसकी आंतरिक ऊर्जा को सुविकसित कर लिया जाए और उसे उपयुक्त दिशाधारा दी जा सके, तो व्यक्ति के चिंतन-प्रवाह को विधेयात्मक मोड़ दिया जा सकता है, उसे परिमार्जित-परिष्कृत किया जा सकता है और व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बनाया जा सकता है। योग-साधनाओं द्वारा योगीजन इसी प्रक्रिया को संपन्न करते हैं। विभिन्न प्रकार के योगाभ्यासों द्वारा शरीर विद्युत को नियंत्रित-सुनियोजितकर वे न सिर्फ शरीर-मन से स्वस्थ बने रहते हैं, वरन अपनी मलीनता को हटाकर प्रखरता उभारने में भी सफल होते हैं। यह प्रखरता वस्तुतः काय-ऊर्जा के सुनियोजन से ही सफल— संभव बन पाती है। श्रेष्ठ, प्रखर-व्यक्तित्वसंपन्न व्यक्ति संभवतः अगले दिनों इसी आधार पर बनाए जाएँगे।