बढ़ती अनैतिकता और डायनी महौल

December 1987

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आहार-विहार के असंयम से रोग होने की पुरातन मान्यता में अब कुछ और नए आयाम जुड़े हैं। वायु-प्रदूषण से श्वसन-नलिका में कीचड़ जमने और उसके प्रभाव से समूचे शरीर में विषाक्तता भर जाने की भी एक प्रक्रिया है, जिससे कहीं भी गुँजाइश मिलने पर बीमारियाँ फूट पड़ती हैं। आहार-विहार सही होने पर भी यह एक बाहरी आक्रमण है, जो प्रकृति-प्रकोप एवं संक्रामक रोगों की तरह अनेक निर्दोषों को भी अपनी चपेट में लेते रहते हैं। इन दिनों श्वास, खाँसी, अपच, उल्टी, दस्त, सूजन के उपद्रव इसी प्रकार उभरते पाए गए हैं, जिनके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि रोगी ने जानबूझकर कोई ऐसी गलती की है, जिसका दंड उसे इस प्रकार भुगतना ही चाहिए था।

इसी शृंखला में एक कड़ी और इन्हीं दिनों नई-नई जुड़ी है, जिसमें मनुष्य के सिर पर एक प्रकार का उन्माद चढ़ता है, जो उसे अपराध करने या अपराधों के माहौल में सम्मिलित होने के लिए प्रेरित करता है। उत्तेजक आवेश ही नहीं, घोर निराशा में डुबोकर अपंग जैसी स्थिति में ले पहुँचने वाला अवसाद भी इसी कारण होता है। मनःक्षेत्र को विशेष रूप से प्रभावित करने वाली इस लहर को 'डायनी हवा' कहते हैं। यों डायन शब्द प्रेत-पिशाच स्तर की महिला वर्ग के लिए प्रयुक्त किया जाता है। हर हवा को किस प्रकार यह नाम दिया जाए? फिर भी उसकी प्रतिक्रिया को इसी स्तर की प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के कारण यह नाम सहज ही प्रचलित हो गया है। कारण कि कुछ दिन पहले तक ऐसे अपराधी प्रवाह किसी क्षेत्र विशेष को घेरते नहीं देखे गए, जिसमें लोग शरीर की अपेक्षा मन और भावना की दृष्टि से अपंग हो जाते हैं। उस राक्षसी प्रभाव में स्नेह, सौजन्य, वात्सल्य आदि मानवोचित गुण अनायास ही तिरोहित हो जाते हैं और व्यक्ति अपने-पराए तक का भेदभूल कर नृशंसता अपनाने लगता है। अपराधों की ऐसी बाढ़ आती है, जिसके पीछे कोई ठोस कारण नहीं होते; वरन् एक प्रकार का उन्माद ही विचित्र प्रकार के कुकृत्य करा लेता है।

मध्य पूर्व के रेगिस्तानी इलाके, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रिया, जर्मनी आदि देशों के कुछ हिस्से इस तरह की चपेट में आते देखे गए हैं, जबकि ऐसी कोई समस्या प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर नहीं होती, जिनके कारण अपराधों का ऐसा उभार चल पड़े और हजारों व्यक्तियों को मरने-मारने के लिए उतारू हो चले। इसी सिलसिले में अनेक व्यक्ति ऐसे शारीरिक रोगों से भी ग्रसित हो चलते हैं, जिनके कोई पूर्व लक्षण नहीं देखे गए थे। हृदय रोग और मस्तिष्क रोग इनमें प्रमुख होते हैं, जो भले-चंगों को अपने शिकंजे में अनायास ही कस लेते हैं।

"जनरल ऑफ इलेक्ट्रो केमिकल सोसाइटी" की पत्रिका के जनवरी 83 अंक में इस संदर्भ में एक लेख छपा था— "निगेटिव आयन्स एण्ड देयर इफेक्ट" इसमें इस नई उपजी व्यथा के ऊपर प्रकाश डाला गया था और कहा गया था कि क्षेत्र विशेष में कभी कभी विद्युत चुम्बकीय प्रवाह आते हैं और वे ऋणात्मक एवं धनात्मक कणों का संतुलन गड़बड़ा देते है। उस प्रभाव से मनुष्य की भाव चेतना गड़बड़ाती है और क्या करना चाहिए, क्या नहीं; इसकी बुद्धिमता भी साथ देना छोड़ देती है; किंतु इस कथन के साथ यह नहीं बताया गया कि क्यों तो विद्युतकण गड़बड़ाते है और क्यों उनका प्रभाव भावना-क्षेत्र पर उद्दंडता के रूप में पड़ता है?

यह व्यथा अभी-अभी ही उपजी है। प्राचीनकाल में ऐसा कभी होता रहा हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता। इसलिए वैज्ञानिक क्षेत्र में खलबली मची है और कितने ही देशों में इस विषय का पर्यवेक्षण चल पड़ा है। आश्चर्य इस बात पर किया जा रहा है कि ऐसा एक सीमित क्षेत्र में ही क्यों होता है? अकारण कोई विशेष परिस्थिति न होने पर भी ऐसा माहौल क्यों कर बनता है?

यरुशलेम विश्वविद्यालय के मूर्धन्य वैज्ञानिक प्रो. फिलक्स सुलमान की शोध है कि यह शरीर में सेरोटोनिन नामक न्यूरो हारमोन के बढ़ जाने से होता है। विद्युतकणों से इसका कोई संबंध नहीं है। कारण बताने में वे भी असमर्थ रहे। सिर्फ इतना बता सके कि कूलर और एअर कंडीशनर का प्रभाव बाहरी गरम हवा के साथ मिलकर ऐसा उपद्रव खड़ा करता है। पर वे भी यह नहीं बता सके कि जिनके घर उपरोक्त उपकरण नहीं है, वे क्यों इस विपत्ति के शिकार बनते हैं?

कई वैज्ञानिकों ने इसे वायु-प्रदूषण और विशेषतया भीड़-भाड़ का प्रतिफल बताया है। वे कहते हैं कि घिच-पिच क्षेत्रों में मनुष्यों की विद्युतशक्ति धूल-मिलकर ऐसी विडंबना रचती है, जिसके कारण मनुष्य सामान्य मनोदशा में नहीं रह पाता। इसका अभाव वे यह बताते हैं कि यह 'डायनी हवा' बड़े शहरों या व्यावसायिक केंद्रों के इर्द-गिर्द ही मँडराती है।

मनोविज्ञानी अन्वेषक इसका कारण यह बताते हैं कि किसी विशेष प्रकार के आचरण जिस क्षेत्र में होने लगते हैं, उसी की नकल करने की इच्छा दूसरों में भी उभरती है। उल्टी आने पर दूसरों का भी जी मिचलाने लगता है। दुखती आंखें देखकर अच्छी आंखें भी दुखने लगती है। उसी प्रकार अपराधप्रधान क्षेत्रों में बसने या रहने वाले लोग अज्ञात प्रभावों के वशीभूत होकर उसी प्रकार के कृत्य करने लगते हैं; किंतु इस कथन में भी असमंजस यह रह जाता है कि ऐसे केंद्रों में भी अपराधी लोग ही अपना धंधा चलाते रहते हैं। सर्वसाधारण पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता और न अपराधी क्षेत्र घोषित किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त यह उपद्रव ऐसे क्षेत्रों में भी उभरते देखे गए हैं, जहाँ पहले इस प्रकार का कोई प्रचलन नहीं रहा है और न उन क्षेत्रों का वर्तमान स्तर ही इस प्रकार का हैं।

सुप्रसिद्ध आणविक जीव विज्ञानी डा. जैम्बिसमोनाड का कहना है कि इस तरह के विचार एवं भाव-तरंगे आकस्मिक नहीं पैदा हो जाती है, बल्कि वे गणितीय नियमों के अनुसार तथा संकल्पों के कारण निःसृत एवं विस्तृत होती है। उनके अनुसार भौतिक जगत में पृथ्वी के ऊपर सैकड़ों मील ऊपर तक घेरे हुए बायोस्फीयर की तरह ही सूक्ष्मजगत में चेतना-प्रवाह की अत्यंत सूक्ष्मपरतें विद्यमान है। उनमें से एक परत 'आइडियोस्फीयर' है, जिसमें वैचारिक संपदा का वह भंडार छिपा पड़ा है, जो सृष्टि के आरंभ से लेकर अब तक मानव मस्तिष्क द्वारा छोड़ा गया है। यह विचार तरंगें ही अपनी समर्थता के कारण समय-समय पर मनुष्य जाति के उत्थान-पतन का आधारभूत कारण बनी है। जीवधारियों की तरह विचार भी अपनी वंशपरंपरा में ही यथावत् न बने रहकर विकास के लिए सतत् आतुर रहते हैं। समानधर्मी विचार आपस में मिलने और घनीभूत होते रहते हैं। अनुकूल मानसिक संपर्क पाकर उसकी ओर चढ़ दौड़ते हैं और अपने संपर्क में सभी को लपेट लेते हैं।

इस संदर्भ में बेल्जिम के प्रख्यात परामनोविज्ञानी डा. डगसन का यह कथन अधिक युक्तिसंगत प्रतीत होता है कि जिस प्रकार समुद्र में पानी की, जमीन में खनिजों की, हवा में प्रवाहों की परत होती है, उसी प्रकार चेतना के विश्वव्यापी क्षेत्र में भी अपराधी प्रवृत्तियों की सम्मिलित घटनाएँ बन जाती है और वे परिस्थितियों के अनुसार किसी दिशा विशेष में चल पड़ती है। जहाँ उन्हें उपयुक्त अवसर प्रतीत होता है, वही नीचे उतरकर मनुष्य को ही नहीं, पशु-पक्षियों को भी प्रभावित करने लगती हैं और वे भी शांति से रहने की अपेक्षा अधिक क्रोधी एवं उपद्रवी हो जाते हैं।

चूँकि अब अपराधी प्रवृत्तियाँ सर्वत्र अधिक बढ़ रही हैं, इसलिए उनके समूह भी अधिक मात्रा में बन रहे हैं और संसार की शांति एवं मानवी गरिमा में भारी विक्षेप उत्पन्न कर रहे हैं। इसका उपचार स्थानीय नहीं हो सकता, वरन विश्वव्यापी सदाचार एवं नीति-मर्यादाओं के संरक्षण तथा आत्मिक के उपचार-प्रयत्नों द्वारा ही संभव हो सकता है।


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