प्रतिकूलताएँ कभी बाधक नहीं बनतीं!

December 1987

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अल्फ्रेड एडलर के अनुसार मानवी व्यक्तित्व के विकास में कठिनाइयों— प्रतिकूल परिस्थितियों का होना भी आवश्यक है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक — “ह्वाट लाइफ शुड मीन टू यू” में उन्होंने लिखा है कि “यदि हम किसी एक ऐसे व्यक्ति अथवा मानव समाज के विषय में यह कल्पना करें कि वे इस स्थिति में पहुँच गए हैं, जहाँ अब कोई कठिनाइयाँ नहीं रहीं तो हमारे विचार से ऐसे वातावरण में मनुष्य का विकास रुक जाएगा और जीवन आकर्षणहीन रह जाएगा। ऐसी स्थिति में भविष्य में प्रतीक्षायोग्य उत्साहवर्धन कोई बात नहीं रह जाएगी। सब कुछ पूर्वनिश्चित होने से तत्परता का प्रयास का स्थान जड़ता ले लेगी। ऐसी दशा में न तो ज्ञान का विकास होगा और न ही विज्ञान का। कला और धर्म जो अप्राप्य ध्येयों की कल्पना हमारे सामने रखकर हमें प्रफुल्लित रखते हैं, सब अर्थहीन हो जाएँगे। वस्तुतः हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारा जीवन कष्ट-कठिनाइयों से भरा है, उतना सरल नहीं है।”

बहुत से लोग कठिनाइयों से बचने के लिए दूसरों को अपनी ओर आकृष्ट करने और अपना काम बनाने के अनेकानेक तरीके अपनाते हैं; पर प्रायः देखा यही जाता है कि अंततः उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। प्रख्यात मनोवैज्ञानिक ग्रीनवी ने अपनी पुस्तक — “सुपर पर्सनालिटी” में लिखा है कि “यह मान्यता सही नहीं है कि लोगों को प्रभावित करने के लिए आकर्षक शरीर संरचना, बढ़ी-चढ़ी विद्वता, प्रचुर संपदा, ठाठ-बाट की साज-सज्जा या किसी विशेष प्रकार की कला-कुशलता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यह विशेषताएँ दूसरों का ध्यान भर आकर्षित करती है, बहुत हुआ तो कोई इनसे किसी प्रकार लाभांवित होने के लिए पीछे लग सकता है; पर जब वैसा कुछ हाथ लगते दिखता नहीं तो निराश होते ही मुँह मोड़ लिया जाता है। वैभव से अपना ही स्वार्थ सिद्ध हो सकता है। दूसरे जिन्हें उनसे कोई लाभ मिलने वाला नहीं है, देर तक आकर्षित नहीं रह सकते।”

वस्तुतः जिनका दूसरों पर प्रभाव पड़ता है, वे सद्गुणों एवं सत्प्रवृत्तियों से युक्त विभूतियाँ होती है। उन्हें जहाँ भी पाया जाता है, उनके प्रति अंतःकरण में सहज श्रद्धा उमड़ पड़ती है। सज्जनता, नम्रता, उदारता और शिष्टता का अर्थ है — परिपक्व व्यक्तित्व। खिला हुआ फूल अपनी सुंदरता और सुगंध से दर्शकों को सहज प्रसन्नता प्रदान करता है। सद्गुणों की विभूतियों से भरे हुए व्यक्ति भी इसी प्रकार सहज श्रद्धा के पात्र बनते हैं। सही तरीके से प्राप्त की गई सफला सर्वत्र सराही जाती है; क्योंकि इनसे प्राप्त करने वाले की लगन और तत्परता का परिचय मिलता है। इनकी शालीनता देखकर भी यही अनुमान लगता है कि यहाँ आत्मपरिष्कार के लिए दूरदर्शिता से भरी-पूरी सतत् साधना की गई है।

विभिन्न स्तर की सफलताओं में सर्वोपरि है— सामान्य स्तर के अनगढ़ व्यक्तित्व को उच्चस्तरीय बना सकना। मूर्तिकार पत्थर को गढ़ते और प्रतिमा बनाते हैं। चित्रकार कागज और कलम की सहायता से हृदयग्राही चित्र विनिर्मित करते हैं। वादक बांसुरी से राग-रागनियों की स्वरलहरी बहाते हैं। कलाकारिता के क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावोत्पादक कला है— पेट-प्रजनन भर में व्यतीत होते रहने वाले जीवन को उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श गतिविधियों का अभ्यस्त कर लेना। इन सफलता के श्रेयाधिकारियों की जन-जन का सहज सम्मान मिलना ही चाहिए।

पेड़ की शीतल छाया और सुषमा में बैठने वालों को ही नहीं, उसे देखने वालों को भी प्रसन्नता होती है और शांति मिलती है। इसी प्रकार सहृदयता, नीतिमत्ता, साहसिकता, सज्जनता, नम्रता, उदारता, सुरुचि, सुव्यवस्था जैसे सद्गुणों का जहाँ भी विस्तार दिखता है, वहाँ संपर्क में आने वाले हर किसी की सहज श्रद्धा उमगने लगती है।

एल.एच. स्नीडर अपने ग्रंथ— “बिहेवियोरल साइकोलॉजी” में लिखते हैं कि “विचारों और कार्यों का स्तर सुनिश्चित होना चाहिए। तभी उन्हें निजी पुरुषार्थ का— उपलब्ध साधनों का, परिपोषण मिलेगा और सफलता का द्वार खुलेगा। दूसरों का समर्थन सहयोग भी प्रायः उन्हीं को मिलता है, जिन्हें दृढ़ निश्चयी और प्रयास में समग्र तत्परता जुटा सकने वाला समझा जाता है।”

चंचल, उथले और अधूरे मन से किए जाने वाले काम ही प्रायः असफल होते हैं। ऐसा क्यों होता है? अस्थिरता का कारण क्या है? यह खोजने पर प्रतीत होता है कि सैद्धांतिक अपरिपक्वता ही चंचलता का प्रमुख कारण है। दृढ़ता उन निर्णयों में नहीं हो सकती जो उथली स्वार्थपूर्ति पर अवलंबित है। लाभ की न्यूनाधिकता का प्रसंग सामने आते ही मन डगमगाने लगता है और एक काम को छोड़कर दूसरे को अपनाने लगता है।

आदर्शवादिता का आधार लाभ या लोभ नहीं, आत्मसंतोष एवं आत्मकल्याण होता है। ऐसी दशा में एक बार पकड़े हुए काम को इसलिए छोड़ने की आवश्यकता नहीं पड़ती कि उसे हटाकर दूसरा करने लगे तो अधिक लाभ मिलेगा। कोई काम न तो छोटा है न बड़ा। हर कार्य की गरिमा उसके पीछे काम करने वाली निष्ठा के साथ जुड़ी होती है। इस प्रकार छोटे दिखने वाले काम भी सन्निहित सदाशयता को सुविस्तृत करने में सहायक हो सकते हैं और बड़े दिखने वाले काम भी अंतःक्षेत्र की निकृष्टता से प्रेरित होने पर सदाशयता के संवर्द्धन में सर्वथा निष्फल रह सकते हैं। उच्चस्तरीय सिद्धांत अपनाकर किसी काम में हाथ डालने पर उसमें आत्मसंतोष का रसास्वादन होता है। फिर प्रतिक्रिया में शिथिलता रहने पर भी उत्साह गिरने या मनोयोग घटने जैसी कोई बात नहीं होती।

आत्मविश्वास और आत्मानुशासन ही उच्चस्तरीय कामों में अंत तक निष्ठा बनाए रहने में समर्थ होते हैं। आत्मविश्वास श्रेष्ठ कामों की सफलता में ही सुनिश्चित रह सकता है। ओछे और खोटे काम अंतःकरण में ऐसा विश्वास जगने ही नहीं देते कि कार्य की सफलता एवं उपयोगिता मिल ही जाएगी या मिलने पर सराही ही जाएगी। यही कारण है कि ओछे मनोरथों से प्रेरित कार्य सदा कर्त्ता को अविश्वासी बनाए रहते हैं। उस अस्थिरता में पूरे मनोयोग से काम नहीं हो पाता और न केवल सफलता संदिग्ध रहती है, वरन् उसमें उदासी, निराशा एवं ऊब तक उत्पन्न हो सकती है। आए दिन काम बदलते रहने वालों में अधिकांश आदर्शविहीन ही होते हैं। जिन्हें परिस्थितियों ने काम बदलने के लिए विवश— बाधित कर दिया हो, ऐसे अपवाद तो कम ही देखने को मिलते हैं।

दरबारी बगीचों में लगे कोमल पौधे तनिक-सी गर्मी-सर्दी पाते ही हिचकियाँ भरने लगते और दम तोड़ने लगते हैं। छुईमुई किसी के उंगली छू जाने से ही सकुचाती, सिकुड़ती और मुरझाई दिखती है; किंतु पर्वतों और रेगिस्तानों में उगने वाले पौधे ऋतु प्रभावों की कठोरता को धैर्यपूर्वक सहन करते हुए अपना अस्तित्व सुरक्षित रखे रहते हैं।

इसके विपरीत जिन्हें अभावों, प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है, वे अपने भीतर ऐसी क्षमता विकसित करते हैं जो आगत कठिनाइयों का सामना करते हुए अस्तित्व की रक्षा कर सकने में समर्थ हो सके। हिमाच्छादित पर्वतों पर उगने वाले पेड़ों को उस तरह पाला नहीं मारता, जैसे कि मध्यम ताप वाले प्रदेशों में तनिक-सी ठंड बढ़ते ही उनका सिकुड़ना-सूखना आरंभ हो जाता है। रेगिस्तानी सूखे इलाकों की तपती बालू और पानी की कमी में भी कैक्टस आदि पौधे भली प्रकार हरे-भरे बने रहते हैं। उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले “एस्किमो” बर्फ की मोटी परतों पर ही समूचा जीवनयापन करते हैं। कठोर श्रम से आहार प्राप्त करने वाले वनवासी स्थिति के अनुरूप सुदृढ़ भी रहते हैं और अभ्यस्त तथा प्रसन्न भी।

पूरे प्रतिपादन का निष्कर्ष यही है कि कठिनाइयों से— प्रतिकूलताओं से घिरे होने पर भी जीवन का वास्तविक प्रयोजन समझने वाले व्यक्ति कभी निराश नहीं होते। वे हर प्रकार की परिस्थितियों में अपने लक्ष्य से ही प्रेरणा प्राप्त करते तथा श्रेष्ठता के पथ पर क्रमशः आगे बढ़ते जाते हैं।


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