अपनों से अपनी बात— हम बौने बनकर न रह जाएँ!

December 1987

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उत्पादन कितने ही कठोर तप द्वारा, कितने ही महत्त्वपूर्ण स्तर का क्यों न किया जाए, पर उसकी उपयोगिता तभी है, जब उसके द्वारा अधिक लोगों का हित साधन हो सके। समुद्रमंथन में अमृतकलश निकला, पर वह धन्वंतरि व देव परिकर की निजी धरोहर बनकर रह गया। निकटवर्ती परिकर ने तो लाभ उठा लिया, पर अन्य लोकवासी विशाल जनसमुदाय के लिए उसका उपयोग कर सकना तो दूरदर्शन भी दुर्लभ बना रहा। असंख्य लोग आए दिन मरते रहे। उनके स्वजन-संबंधियों को विछोह की आग में चलते रहना पड़ा। असंख्यों बाल-वृद्ध, नर-नारी, अपंग-असहायों की तरह तरसते रह गए। कदाचित वह अमृत सर्वसाधारण को मिल सका होता, तो वे भी देवताओं जैसी सुविधा प्राप्त करते और उसी स्तर का सुख-शांति भरा जीवन जीते; पर दुर्भाग्य ही रहा है कि अमृत उपलब्ध हुआ, पर उसका लाभ एक छोटा परिकर ही उठा सका। इसके लिए संकीर्णता को भी दोष दिया जा सकता है और वितरण-प्रणाली का कोई सुयोग न बन पाने की अस्त-व्यस्तता को कोसा भी।

अमृतघट की तुलना में मेघमाला की क्रिया-प्रतिक्रिया को असंख्य गुना अधिक सराहा जा सकता है, जो अस्तित्व की दृष्टि से भाप का एक छोटा समूह भर है। उसके पास निज की कोई संपदा भी नहीं हैं। फिर भी उसकी वितरण-प्रवृत्ति इस धरातल के असंख्यकों प्राणियों और वृक्ष-वनस्पतियों का जीवन पराण बनकर रहती हैं। बादलों को स्वल्प जीवन मिला हैं। वे वर्षा के साथ ही अपना अस्तित्व खो बैठते हैं, फिर भी सभी जलसिंचन हेतु उनकी अनुकम्पा के लिए आकाश की ओर टकटकी लगाये रहता हैं। अमृतकलश की निजी विशिष्टता कितनी ही क्यों न हो, पर वह सर्वसाधारण के काम न आ सकने पर ललकमात्र बनकर रह जाती हैं। उसकी तुलना में अकिंचन बादलों की महिमा ऐसी है, जिसके लिए विश्व का कण-कण मौन या मुखर वाणी से कृतज्ञता व्यक्त करता हैं।

पत्र या लेख किसी ने कितना ही सारगर्भित क्यों न  लिखा हो, पर उसे संबद्ध व्यक्तियों तक पहुँचाने की जिम्मेदारी पोस्टमैन ही वहन करते हैं। उसकी प्रतिक्षा में कितने ही लोग बहुत पहले से दरवाजे पर खड़े रहते हैं। उसे देखते ही, घर की ओर आते ही प्रतीक्षारत हृदय की कली खिल जाती है। सेठ-साहूकारों से बढ़कर पोस्टमैन के प्रति हर प्रतीक्षारत की असाधारण श्रद्धा और आत्मीयता बोलती है। उसे घर के एक सदस्य की तरह ही उस क्षेत्र के लोग मान देते हैं।

अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर काले अक्षर ही नहीं छपते वरन् उसके साथ प्रचंड प्राण-प्रवाह भी बहता है। ऐसा प्रवाह जो स्रोतों को जगाता है। जागों का खड़ा करता है। खड़ों को चलाता हैं और चलतों को उछाल देता हैं। उसकी दिव्य क्षमता में कही कोई संदेह की गुंजाइश हैं नहीं। विगत पचास वर्षों में उसने पच्चीस लाख से भी अधिक वटवृक्ष, कल्पवृक्ष एवं चंदन वृक्ष लगाए, पोसे और परिपक्व किए हैं। इसके द्वारा अपने-अपने स्तर और पौरुष के अनुरूप अपने क्षेत्र में जो विज्ञापनबाजी से सर्वथा दूर सत्प्रवृत्ति संवर्धन किया है, उसका यदि समग्र लेखा-जोखा लेना संभव हो, तो उसे एक स्वर से अद्भुत एवं अभूतपूर्व ही कहा जा सकता हैं। जो हो चुका, उसे इतिहास के प्रेरणा-पृष्ठ भर कहा जा सकता हैं। दर्शनीय वह हैं, जो वर्तमान में योजनाबद्ध हो रहा हैं। उत्साहवर्धक वह हैं, जो भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ हैं, जिसकी संभावना का कल्पना-चित्र, जो खींच सके हैं, वे पुलकन अनुभव करते हैं और विश्वास करते हैं कि सतयुग के समान नवयुग का अवतरण निकट भविष्य में हो सकना मात्र आशा नहीं, एक तथ्यपूर्ण यथार्थता है।

यह बहुमूल्य उत्पादन समुद्र-मंथन में उपलब्ध हुए अमृतकलश जैसा है। इसकी महिमा गाई जा सकती है, पर वह वहाँ जाकर अवरुद्ध हो जाती है, जब उसकी वितरण-व्यवस्था अपंग, असहाय जैसी अस्त−व्यस्त दिखती है। उसे जनसाधारण तक पहुँचाने के लिए अभीष्ट संख्या में कर्मवीर बादलों की तरह मैदान में नहीं उतरते। उस आलोक से अपने संपर्क क्षेत्र को आलोकित करने के लिए कोई अपनी क्षमता का दीपकों जैसा उपयोग करते नहीं दीख पड़ते। इतना भी न बने पड़े तो पोस्टमैन जैसी सरल रीति-नीति तो अपनाई ही जा सकती है। उमंग उठे तब तो! उत्साह जगे तब तो!

अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में लिपटी प्राणवान ऊर्जा और उसके द्वारा बन पड़ने वाली क्रिया-प्रक्रिया ‘हस्तामलकवत्’ प्रत्यक्ष है। उसकी उपयोगिता एवं क्षमता को हर पारखी ने भूरि-भूरि सराहा हैं। इसे तर्क, तथ्य और प्रमाण के अंबार प्रस्तुत करते हुए कहीं भी कोई भी सिद्ध कर सकता है। उसे पारस की उपमा देने वाले कहते हैं कि जो उसे छूते हैं वे अपने कलुष-कल्मष धो डालते हैं और ऐसा व्यक्तित्व विकसित करते हैं, जिसे कायकल्प की उपमा दी जा सके। यदि ऐसा न होता तो सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के दुहरे मोर्चे पर जो लाखों शूरवीर लड़ रहे हैं, उनका कहीं अता-पता भी न होता। उज्ज्वल भविष्य का जो विश्वास जन-जन के मन में जाग रहा हैं, उसका बीजांकुर भी कहीं दृष्टिगोचर न होता। इस दिव्य ऊर्जा की गरिमा और क्षमता को हर कसौटी पर कसा और खरा पाया जा सकता हैं। उसमें जन-जन को देवमानव में विकसित करने की भागीरथी ललक को युग चेतना के रूप में प्रज्वलित देखा ही सकता हैं।

घर-घर अलख जगाना, जन-जन की अंतःज्योति जगाना इस प्रयास के द्वारा संभव हैं। पर एक ही चट्टान बुरी तरह अवरुद्ध हो जाती हैं और आशा-संभावना पर तुषारापात होने जैसा भय लगता हैं।

यह अवरोध इतना भर हैं कि पाठक उसका रसास्वादन करके झूठी पत्तल की तरह कचरे के ढेर में फेंक देते हैं। ऐसी नहीं बन पड़ता जैसा सद्गृहस्थों को आचरण करते देखा जाता हैं। पिता कुछ स्वादिष्ट पदार्थ बाहर से लाता हैं, तो उसे घर के हर सदस्य को बाँटता है। उसकी सहज वृति होती है कि जिससे अपने रसास्वादन करने की प्रसन्नता प्राप्त होती है, उससे अपने परिवार के हर सदस्य को भी लाभांवित होने देना चाहिए। विवाह-शादी के दिनों में मिठाई बनती है, तो उन्हें पास-पड़ोसियों, स्वजन-संबंधियों के यहाँ भी पहुँचाया जाता हैं। जो ऐसा नहीं करते, उनका व्यवहार कृपण, संकीर्ण, स्वार्थपरता से भरा माना जाता हैं। यही उदाहरण उन पर भी लागू होता हैं, जो स्वयं तो अखण्ड ज्योति नियमित रूप से मँगाते हैं— पढ़ते और रसास्वादन का लाभ भी लेते हैं, पर इतना नहीं बन पड़ता कि इस दीपक की नांद के नीचे बंद कर देने की अपेक्षा उस ज्योति से संपर्क क्षेत्र को आलोकित करने की उदारता दिखाई जाए।

जो उपयोगी है, जिसकी प्रकाश-प्रेरणा में जीवन का ज्योतिर्मय होना माना जाता है, उसे अग्रगामी होने के लिए अवसर क्यों न दिया जाए? इसके लिए यदि जब तक मुँह खोलना पड़ता है और परिचितों तक पहुँचने के लिए कुछ कदम बढ़ाने पड़ते हैं, तो इतना छोटा श्रम सहन करने में कृपणता क्यों दिखाई जाए? आलस्य, प्रमाद, संकोच और अहंकार को क्यों आड़े आने दिया जाए? यह उत्साह मन में क्यों न जगाया जाए कि अपने घर परिवार के सभी सदस्य उसे पढ़ें या सुनें। एक कदम और आगे बढ़कर मित्रों-संबंधियों, पड़ोसियों, परिचितों तक भी तो इस प्रयास को गतिशील किया जा सकता है। जो इस अमृतकलश के महत्त्व से सर्वथा अपरिचित हैं, उन्हें एक-एक करके पुराने अंक पढ़ाने-वापस लेते रहने पर इस स्थिति तक पहुँचा जा सकता है कि वे स्वयं ही इसे नियमित रूप से प्राप्त करते रहने के लिए चंदा जमा करें।

यदि वर्तमान सदस्यों में से प्रत्येक यह धारणा बना लें, निश्चय कर लें कि उसे अपने प्रभाव क्षेत्र पर दबाव डालकर दो नए सदस्य और बनाने हैं, तो निश्चय ही यह छोटा निर्धारण पूरा होकर रहेगा। इतना भी न बन पड़ने या उसमें असफलता रहने जैसा तो प्रश्न ही नहीं उठता।

परिजनों का इतना-सा स्वल्प सहयोग परिणाम की दृष्टि से इतना प्रभावी सिद्ध हो सकता है कि उसकी कल्पनामात्र से रोमांच हो उठे। मिशन का जितना विस्तार अब है, उसकी तुलना में वह देखते-देखते तीन गुना अधिक कार्यक्षेत्र प्राप्त कर सकता हैं। तीन गुने अधिक सहयोगी उपलब्ध हो सकते हैं। उसी अनुपात में युग-अवतरण की सृजन-साधना को तीन गुने कम समय में सफल होते देखा जा सकता है।

अखण्ड ज्योति पत्रिका कलेवर में दिखती भर है। उससे वाचनकाल के स्वल्प रसास्वादन मात्र मिलने से मन बहलता तो है; पर वस्तुतः वह इतनी ही तुच्छ नहीं है। इसके साथ लिपटी प्राण-उर्जा में वह क्षमता है कि अपने संपर्क-क्षेत्र को उसी प्रकार अपनी लपेट में ले सके जैसे ज्वलंतशिखा सूखे ईंधन को अपनी पकड़ में लेकर अपने जैसा बना लेती है।

अब तक जो कुछ कार्य विस्तार बन पड़ा है, उसमे अखण्ड ज्योति में सन्निहित प्रेरणाओं को जितना श्रेय दिया जा सकता है, उससे हजार गुना श्रेय उनको है, जो इस परिकर से जुड़े है और अपने श्रम-सहयोग से अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी रूचि एवं सामर्थ्यानुसार नवसृजन प्रयासों में लगे हैं। उन्हीं ने क्रियात्मक रूप से सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन की क्रियात्मक भूमिका निबाही है। अखण्ड ज्योति को मस्तिष्क कहा जाए तो उसके परिकर को समर्थतासंपन्न काय-कलेवर। काया के माध्यम से ही तो मस्तिष्क अपने मनोरथों को पूरा करता है। अखण्ड ज्योति की योजनाएँ उसके पाठक परिजनों के विशालकाय परिकर के द्वारा ही संपन्न होती हैं। शरीर न हो तो अकेला प्राण कहीं आकाश में ही अदृश्य रूप में उड़ता-फिरता रह सकता है।

अखण्ड ज्योति की, उसके सुत्रसंचालाकों की एकमात्र अभिलाषा यही रही है कि उसे अब की अपेक्षा अधिक घरों में प्रवेश करने का, अधिक विचारशीलों के साथ जुड़ने का अवसर मिले। वह अपने परिवार को तीन गुना बढा हुआ देखे। उसे अपने पुत्र-पौत्रों की अधिक सार्थक सेवा करने का अवसर मिले, जिससे सभी का मन हुलसे और युगचेतना का कार्य-विस्तार अधिक लोगों में अधिक जीवन-संचार कर सके।

संभावनाएँ विशाल वटवृक्ष जैसी असीम अनंत हैं, पर वे धूमिल इसलिए हो जाती हैं कि अंकुर को खाद-पानी मिलने की सुविधा नहीं मिलती। प्रचार-प्रसार में परिजन उतना उत्साह प्रदर्शित नहीं करते जितना कि उन्हें करना चाहिए। यही कारण है कि उगते अंकुर कुम्हला जाते है। माली के उपेक्षा दिखाने पर बगीचे की भी तो शोभा-संभावना चली जाती है। अखण्ड ज्योति इक्यावन वर्ष की होने पर भी इतनी बौनी बनी रहे कि हिंदी भाषी प्रदेशों के घर-घर में उसकी पहुँच न हो सके तो समझना चाहिए कि दुर्भाग्य आड़े आ गया।

अखण्ड ज्योति के संचालक अपनी भावनाओं और प्रेरणाओं का वितरण करने हेतु हर विचारशील के घर में प्रवेश पाने के लिए व्याकुल हैं। इस व्याकुलता में उत्सुकों के हाथ तो आत्मसंतोष ही पड़ने वाला है; पर जो दरवाजे खोल देंगे और प्रवेश की अनुमति देंगे, उनके लिए विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि वे दो रुपये मासिक का अतिथि सत्कार करके बदले में इतना कुछ प्राप्त कर सकेंगे, जिसे दिव्य वरदान-अनुदान की उपमा दी जा सके। जिसका अभाव जीवन के हर क्षेत्र में उत्साहवर्धक विभूतियाँ उत्पन्न करते हुए प्रत्यक्ष देखा जा सके।

वर्त्तमान पाठकों में से प्रत्येक के पास अखण्ड ज्योति का— उसके सुत्रसंचालको का भावभरा अनुरोध पहुँचना चाहिए कि वे इन दिनों एक आदर्शवादी लक्ष्य सामने रखें कि उन्हें अखण्ड ज्योति के दो नए ग्राहक बनाए बिना चैन नहीं लेना है। अपनी सदस्यता तो जीवनभर स्थिर रखनी ही है।



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