गहन परिवर्तन की आवश्यकता

December 1987

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विज्ञान ने भौतिक पदार्थों पर कुछ सीमा तक नियंत्रण पाया है और ऐसे अनेकानेक साधन-सुविधा उपलब्ध कराए हैं, जिनकी सहायता से मनुष्य अपने भाग्य का निर्माण करने में सक्षम हुआ है। उसने मानवी काया के कुछ गुप्त रहस्यों के उद्घाटन में सफलता पाई है, पर है वह स्थूलकाया की हलचलों तक ही सीमित। पदार्थपरक विज्ञान का महत्त्व अधिक बढ़ जाने के कारण मनुष्य का पूरा ध्यान भौतिक उन्नति की ओर चला गया, परिणामस्वरूप उसके जीवन की रीति-नीति ही बदल गई। चिंतन, चरित्र, व्यवहार में भारी उलट-फेर हो गया एवं प्रगति अधूरी रह गई।

सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक अलोक्सिस कैरल का कथन है कि समय आ गया है, जब मनुष्य को अपने सर्वांगीण विकास के लिए, उत्कर्ष के लिए, स्वयं का पुनर्निर्माण करना होगा। पुनर्निर्माण की यह प्रक्रिया कष्टसाध्य साधना के बिना पूरी नहीं हो सकती। कारण कि मानव स्वयं ही संगमरमर तथा स्वयं ही मूर्तिकार भी है। अपने हाथों ही उसे अपना निर्माण करना होगा। हथौड़े की कठिन मार— कष्ट साध्य साधनाओं द्वारा ही दोष-दुर्गुणों, कषाय-कल्मषों को दूर किया और अपने चरित्र को निर्मल बनाया जा सकता है। कठिन परिस्थितियों से गुजरे बिना व्यक्तित्व का विकास संभव नहीं है। जब तक आदमी विज्ञानप्रदत्त सुविधा, वासना, विलासिता द्वारा उपलब्ध अपूर्व संतोषों से घिरा रहेगा, तब तक उसकी समझ में नहीं आएगा कि उसका पतन हो रहा है।

मानव जीवन की गरिमा का इस तरह ह्रास होते देखकर विचारशील विवेकवानों ने अब इस दिशा में सोचना प्रारंभ कर दिया है कि कहीं आधुनिक जीवन-पद्धति के कारण पूरे विश्व का नैतिक, बौद्धिक एवं चारित्रिक पतन तो नहीं हो गया? बढ़ते अपराध, अत्याचार, अपहरण, उत्पीड़न आदि की बाढ़-सी आ गई है, जो रोके नहीं रुक रही; जबकि इस मद में धन भी बहुत खर्च हो रहा है और जनशक्ति भी अपेक्षाकृत अधिक नियोजित है। सभ्यजनों में इतने अधिक चंचल और भ्रांत चित्त व्यक्ति क्यों हैं? क्या विश्वसंकट आर्थिक परिस्थितियों की अपेक्षा व्यक्तिगत तथा सामाजिक परिस्थितियों पर अधिक निर्भर नहीं है?

अलेक्सिस कैरल आशा व्यक्त करते हैं कि तथाकथित वैज्ञानिक सभ्यता अपने पतन के पहले हमें यह पुनर्निर्धारण करने के लिए बाध्य कर देगी कि इस महान संकट की जड़ हमारे भीतर और हमारी सामाजिक संस्थाओं में तो नहीं है? इस तरह बाध्य होकर ही हम अपने उद्धार की आवश्यकता को यथार्थतः स्वीकार करेंगे। स्वयं के उत्थान में हमारे सामने एक ही बाधा उपस्थिति होगी— वह है हमारी जड़ता। ऐसा नहीं है कि हम पुनः उन्नति करने के अयोग्य हैं। वस्तुतः इस संकट का एक मात्र कारण यही है कि हमने सद्गुणों को भुलाकर आलस्य, भ्रष्टाचार और विलासी जीवन-पद्धति को अपनाया और नीचे गिरते चले गए।

बुद्धिहीनता, दुश्चरित्रता और अपराध-प्रवृत्ति परंपरागत नहीं होती। बहुत से बच्चों में जन्म से ही उनके श्रेष्ठ पैतृक गुणों की संभावना रहती है। तत्परतापूर्वक उनके जन्मजात सद्गुणों को विकसित किया जा सकता है। आधुनिक समाज ने उत्कृष्ट सभ्यता, सदाचार और साहस को तिलांजलि नहीं दे दी है। दुष्टता असाध्य रोग नहीं है; परंतु व्यक्ति का यह पुनर्निर्माण आधुनिक जीवन-पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन के द्वारा ही हो सकता है। सुसंस्कारिता एवं सभ्यता को नए सिरे से अवधारण करना ही, वर्तमान आदतों, मान्यताओं को बदलकर नई जीवन-पद्धति अपनाने के लिए हमारी मनोवृत्ति को सहमत कर सकता है।

क्या इतने विशाल एवं महत्त्वपूर्ण कार्य को करने के लिए मनुष्य के पास पर्याप्त क्षमता एवं सूक्ष्मदृष्टि है? सामान्य रूप से देखने पर इस क्षमता का अभाव-सा दिखता है, कारण कि आज आदमी वित्तेषणा में इतना डूब चुका है कि अन्य सारी बातों को भूल गया है। इसके उपरांत भी आशा की एक किरण दिखाई देती है। विश्व के नवनिर्माण के लिए जिनका उत्तरदायित्व है वे पूरी तरह समाप्त नहीं हुए हैं। उनके मौलिक गुणों को अभी भी स्वरूप दिया जा सकता है। हो सकता है कि ऐसे व्यक्ति सर्वसाधारण के आवरण में छिप गए हों। उनकी संख्या बहुत कम है, परंतु वे हार नहीं मानेंगे।

उपर्युक्त वातावरण का नवसृजन तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि हमारे सोचने का मूलभूत दृष्टिकोण नहीं बदलता। आधुनिक समाज की पीड़ा और पतन का कारण केवल बुद्धिदोष— वैचारिक मलीनता है। पदार्थों के भौतिक गुणों की वैज्ञानिक जानकारी पाना उचित था और है भी, परंतु मानवी गुणों को महत्त्वहीन समझकर उनकी उपेक्षा करना न्यायोचित नहीं है। पिछले दिनों यही त्रुटि हुई है, जिसका विशेष प्रभाव हुआ। स्थूलजड़ पदार्थ को ही सब कुछ मानकर मनुष्य उसी में उलझ गया, जबकि स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्मचेतनतत्त्व अत्यधिक महत्वपूर्ण है। विचारो की शक्ति अद्भुत और अपार है, परंतु जब शारीरिक संरचना ने ही यथार्थता ग्रहण कर ली तो मानसिक क्षमताओं को भुला दिया गया। इस महान भूल के कारण ही भौतिक विज्ञान का महत्त्व अधिकाधिक बढ़ता गया और आदमी विलासिता, स्वार्थपरता एवं चारित्रिक पतन के गर्त में गिरता चला गया। इससे ऊबने तथा सही दिशा की ओर बढ़ने के लिए हमें अपना दृष्टिकोण बदलना होगा। शरीर के साथ आत्मा को भी उचित महत्व देना होगा।

यदि वैज्ञानिक सभ्यता अपनी पाशविक परिपाटी को छोड़कर अध्यात्मवाद का राजमार्ग अपना ले तो शीघ्र ही अपूर्व घटनाएँ घटित होने लगेगी। तब पदार्थ अपने श्रेष्ठता खो देगा और उसका स्थान चेतना ले लेगी। मानसिक गतिविधियाँ इतनी ही महत्त्वपूर्ण हो जावेगी जितनी कि शरीर विज्ञान संबंधी नैतिकता और धार्मिकता का अभ्यास उतना ही महत्वपूर्ण होगा जितना की गणित, भौतिकी एवं रसायन शास्त्र का। आज की शिक्षा-प्रणाली व्यर्थ प्रतीत होगी। स्कूल और विश्वविद्यालय अपने कार्यक्रम बदलने के लिए बाध्य होगी। आरोग्य संगठनों से, चिकित्सा विशेषज्ञों से यह पूछा जाने लगेगा कि वे विशेष रूप से शारीरिक बीमारियों की रोक-थाम की ओर ही ध्यान क्यों देते है? मानसिक एवं नाडी संस्थान की गड़बड़ी की ओर ध्यान क्यों नहीं देते? वे आध्यात्मिक स्वास्थ्य की ओर से आँख क्यों बंद कर लेते है। छूत की बीमारियों से ग्रस्त व्यक्ति ही क्यों अलग रखे जाते है? जो चारित्रिक तथा मानसिक दोषों से ग्रस्त है उन्हें पृथक क्यों नहीं रखा जाता? जिनके कारण शारीरिक बीमारियाँ होती है, मात्र उन्हीं आदतों, परिस्थितियों को क्यों गंभीर और भयानक माना जाता है, पर जिन आदतों के कारण भ्रष्टाचार, अपराधीवृत्ति तथा विक्षिप्तता पनपती है, उन्हें भयानक क्यों नहीं माना जाता? स्पष्ट है कि जड़वादी मान्यता से छुटकारा समग्र मानव जीवन को ही बदल देगा।

प्रगति के लिए— उत्कर्ष के लिए त्याग एक आवश्यक शर्त हैै। शिक्षा संस्थाओं एवं प्रयोगशालाओं में कार्यरत वैज्ञानिकों की कमजोरी उनके सामान्य संकुचित अर्थपरायण जीवन लक्ष्य के कारण है। आदमी जब उच्च आदर्शों से प्रेरित तथा उत्कृष्ट विचारों से ओत-प्रोत होता है तब वह ऊँचा उठता है। जिसका हृदय महान वीरोचित कार्य करने के लिए उमग रहा हो, उसके लिए त्याग करना कठिन नहीं होता। वर्तमान मानव को सुधारने के समान सुन्दर एवं साहसिक कार्य दूसरा नहीं। यह तथ्य हर विज्ञजन को समझना चाहिए। साथ ही खोज की जानी चाहिए कि आदमी के आवश्यक गुणों का हनन किए बिना आधुनिक सभ्यता में मोड़ किस तरह लाया जा सकता है।

निश्चय ही वर्तमान विलासी विज्ञान के सिद्धांतों का विरोध अथक उत्साह से करना पड़ेगा, कारण कि सुविधा विज्ञान द्वारा प्रदत्त जीवन-पद्धति मनुष्य को इतनी सुखकर लगने लगी है जितना कि मदिरा, अफीम और कोकीन। इस मद में आकंठ डूबा वह अपने जीवन लक्ष्य को भूल चुका है। इसे उलटने के लिए घोर प्रयत्न करने, उसे उसकी सांस्कृतिक व पारस्परिक गौरव-गरिमा का ज्ञान कराने और शिक्षापद्धति तथा सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं।


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