भूलभुलैया में भटके हुए हम ......

December 1987

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वेदांत दर्शन में भारतीय तत्त्वचिंतन का सार निहित है, इसीलिए इसे ज्ञान का अंत अर्थात् चरमोत्कर्ष भी कहा जाता है। इससे यह स्पष्ट किया जाता है कि संसार सापेक्ष है, जबकि परम सत्य पूर्णब्रह्म निरपेक्ष। जीवन क्या है? इसका लक्ष्य या उद्देश्य क्या है? आदि बातों से विमुख होकर यहाँ तक कि अपने यथार्थ स्वरूप को न जानते हुए भी हम सापेक्षता के इस मायाजाल की भूल भुलैयों में जा फंसे हैं, इसका कारण क्या है और निवारण करने के उपाय क्या हैं?, इसकी विवेचना— व्याख्या इसमें इतने सुदृढ़ ढँग से हुई है, जैसी अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ है।

निस्संदेह सापेक्षता के इस संसार में भले ही कितनी चकाचौंध और ऐन्द्रजालिक आकर्षण क्यों न हो फिर भी न तो यह नित्य है, न ही महत। हम सभी अपने को चाहे जितना बुद्धिवादी, वाकपटु या चतुर क्यों न मानें, आत्मप्रशंसा का कितना ही गान क्यों न करते रहें, पर वास्तविकता यही है कि हम भ्रम में हैं और हमारा बुद्धि संस्थान जिस पर हमें गर्व है, उथला भर है, भ्रम-जंजालों में उलझा हुआ है।

भार को ही लें, जिसके सहारे वस्तुओं का आदान प्रदान चल रहा है। क्या इस संबंध में हमारी मान्यताएँ पूरी तरह से सही हैं इस पर गंभीरतापूर्वक चिंतन करने से सारा का सारा आधार डगमगाने लगता है। सही माने में तो वजन का कोई अपना अस्तित्व है ही नहीं। पृथ्वी की आकर्षणशक्ति का जितना प्रभाव जिस चीज पर पड़ रहा है, उसे रोकने के लिए जितनी शक्ति लगानी पड़ती है, उसी को उसका वजन मान लिया जाता है। यह आकर्षणशक्ति भिन्न-भिन्न हैं। पृथ्वी और चंद्रमा के बीच एक जगह ऐसी भी आती है, जहाँ कोई आकर्षणशक्ति है ही नहीं तो वहाँ वजन कुछ भी नहीं रहता। ऐसी जगह यदि कोई भारी पहाड़ भी रख दिया जाए तो वह बिना वजन का होने के कारण जहाँ का तहाँ लटका रहेगा। ऐसी दशा में यही कहा जा सकता है कि वजन सापेक्ष है। किसी पूर्वमान्यता पर इसका निर्णय असंभव है।

सामान्य जीवन में व्यवहार की दूसरी इकाई है— गति। भार की तरह यह भी आवश्यक और महत्वपूर्ण है; क्योंकि इसी के ज्ञान के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए भिन्न-भिन्न साधनों का चुनाव करते हैं; पर क्या गति के संबंध में हमारे द्वारा बनाई गई मान्यताएँ सही हैं।

हम मजे से अपनी कुर्सी पर बैठकर मेज पर कागज के कलम के सहारे लिखते हैं और जानते हैं कि वह स्थिर है; परंतु वस्तुतः हम एक हजार किलोमीटर प्रति घंटा की चाल से उड़े चले जा रहे हैं, क्योंकि पृथ्वी अपने अक्ष पर इसी गति से घूमती है। पृथ्वी पर हम बैठे हैं, अतएव स्वाभाविक ही उसी चाल से उड़ते हैं। यद्यपि यह तथ्य हमारी इंद्रियों की पकड़ में नहीं आता है, अतएव बड़ा विचित्र लगता है और स्थिरता प्रतीत होती है। पर यह तो एक प्रतीति भर है, वास्तविकता नहीं।

पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है; अतएव 24 घंटे बाद हम फिर अपने स्थान पर आ जाएँगे; यदि ऐसा सोचें तो भी व्यर्थ ही है। क्योंकि पृथ्वी 6,66,000 मील प्रतिघंटा की चाल से सूर्य की परिक्रमा हेतु भागी जा रही है। वह अंतरिक्ष में जिस स्थान पर है, वहाँ पर आना तो एक वर्ष बाद ही संभव है। परंतु यह मानना भी भ्रम ही है क्योंकि सूर्य महासूर्य की परिक्रमा लगा रहा है और अपने सौर परिवार के समस्त ग्रहों-उपग्रहों को लेकर तेजी से दौड़ा चला जा रहा है। यह महासूर्य भी किसी अतिसूर्य की परिक्रमा में लीन है। यह सिलसिला न जाने कितनी कड़ियों से जुड़ा है। अतएव जिस जगह पर हम वर्तमान समय में हैं, वहाँ पर पुनः लौट आना कम से कम इस जन्म में तो असंभव ही है।

स्थान और गति की भाँति दिशा-निर्धारण हेतु हम सब अपना सिर खपाते रहते हैं। लोक-व्यवहार में इसकी महती आवश्यकता हैं। इसके बिना भूगोल, नक्शा, यातायात जैसी कोई चीजें संभव न हो सकेंगी। दिशाज्ञान के बगैर न तो जलयान अपने निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच सकेंगे, न वायुयान। पूरब, पश्चिम आदि आठ तथा ऊपर नीचे मिलकर इस दिशाओं की मान्यता को लोक-व्यवहार में प्रश्रय दिया जाता है; पर वास्तविकता और यथार्थता के बारे में चिंतन करने पर यह मान्यता भी पूरी तरह से ध्वस्त हो जाती है।

एक नाली यदि हम सीधी खोदते जाएँ तो ऐसा लगता है कि वह सीधी समतल जा रही है, पर यथार्थ यह है कि यह खुदाई गोलाई में चल रही है और यदि यह क्रम लगातार चलता रहे तो उसी जगह जा पहुँचेगी जहाँ से शुरू हुई थी। फुटबॉल या बालीबाॅल की गेंद पर सीधी रेखा खींचने पर भी वह गोलाई में ही खिंचती है। सीधी खींचने का मतलब है कि उसके दोनों सिरों का अंतर सदा-सर्वदा बना रहे, पर यदि वे एक में आकर मिल जाएँ तो फिर सीधी लकीर कैसी? इस तरह कहीं भी लकीर खींची जाए कभी भी सीधी नहीं हो सकती। जो धरती हमें समतल दिखाई देती है यथार्थ में वह भी गोल है। जमीन पर खड़े होकर जमीन और आसमान मिलने वाला क्षितिज प्रायः ६ मील पर दिखाई पड़ता है; पर यदि दो सौ फीट की ऊँचाई पर चढ़कर देखा जाए तो वह १० मील पर मिलता दिखाई देगा। इन सब बातों से पृथ्वी की गोलाई सिद्ध हो जाती है। भले ही हम अपनी स्थूलबुद्धि से उसे समझ न पाएँ। ऐसी दशा में दिशाज्ञान से संबंधित हमारी पूर्व मान्यताएँ विश्वसनीय नहीं हैं।

चंद्रमा हमें ऊँचा लगता है; पर चंद्र तल पर जा पहुँचने पर लगता है कि पृथ्वी ऊपर आकाश में उदय होती है जैसा कि चंद्र यात्रियों ने अपने विवरण में लिखा है। यदि हम सौरमंडल के बाहर कहीं अंतरिक्ष में जा खड़े हों तो प्रतीत होगा पूरब, पश्चिम आदि दस दिशाओं में से कोई दिशा नहीं है। दिशा-ज्ञान सर्वथा सापेक्षिक ही है।

इसी तरह समय की मान्यता भी असंदिग्ध नहीं है। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय वही नहीं है जिसे हम जानते हैं। वस्तुतः जब हमें सूर्य उदय होता दिखाई पड़ता है, उससे साढ़े आठ मिनट पूर्व ही उग चुका होता है। उसकी किरणें पृथ्वी तक इतनी देर में पहुँचती है। अस्त होता जब दिखाई पड़ता है, उससे साढ़े आठ मिनट पूर्व ही डूब चुका होता है। सौरमंडल के अन्य ग्रहों के संबंध में भी यही बात है। इस प्रकार दिशा ही नहीं, समय संबंधी मान्यताएँ भी भ्रांतिपूर्ण ही है।

उपरोक्त तथ्यों के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि इंद्रियों से मिलने वाली जानकारियों को ही अंतिम सत्य मानकर हम कितने भ्रम में हैं। वस्तुओं का जो स्वरूप हम देखते हैं, वह हमारी पूर्व बताई गई मान्यताओं पर आश्रित है। यह स्वरूप भी किसी की सापेक्षता से ही निर्धारित किया जाता है। विभिन्न गुण व तत्संबंधी परिभाषाएँ भी सापेक्षता की ही उपज हैं। इन्हीं से ही नाना-विधि विवेचना-व्याख्या होती है। इनके द्वारा हम निरपेक्ष परम सत्य तक पहुँच सकें, यह असंभव है। परम तत्त्व निरपेक्ष है। हमारी गढ़ी गई मान्यताएँ तो इस स्थूलजगत का ही यथार्थ बोध करा पाने में सर्वथा अक्षम हैं, फिर जिसके लिए चिंतको ने  “नेति-नेति” ककर हार मान ली है, उस तक स्थूल मान्यताओं के सहारे कैसे पहुँचा जा सकता है? स्पष्ट है, नहीं।

वेदांत दर्शन स्पष्ट करता है कि हमें सापेक्षता की चकाचौंध और मोह के भ्रम-जंजाल से उबरना होगा। इस सम्मोहन के कारण हमने घृणा, द्वेष, ईर्ष्या को गले लगा लिया है और नाम, यश, महत्त्वाकांक्षा के पीछे भाग-दौड़ लगाए जा रहे हैं। इस तत्त्वचिंतन के प्रेरणाप्रद सिद्धांत इस सम्मोहन-निद्रा को एक झटके में तोड़कर चेतना-जगत में प्रविष्ट होने का सन्देश सुनाते हैं।

निःसंदेह शाश्वत चिरंतन सत्य की अनुभूति करने, उससे एकाकार होने हेतु इंद्रियातीत बोध की दुनिया में प्रवेश करना होगा। भ्रम-जंजाल की मृगमरीचिका से छुटकारा साधना के अवलंबन तथा सम्मोहन से जाग उठने पर ही हो सकता है। साधना से प्राप्त अंतर्दृष्टि से ही वास्तविकता और यथार्थता का ज्ञान होता है और परम सत्य से एकत्व हम पाते है। तब चतुर्दिक् पूर्ण सत्य, पूर्ण ज्ञान व पूर्ण आनंद का ही साम्राज्य संव्याप्त होता है। यथार्थता का यह बोध कोई भी वेदांत की शिक्षाओं को अपनाकर अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतारने पर कर सकता है।


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