मृत्यु के बाद एक साधु स्वर्ग पहुँचे। स्वर्ग के द्वार पर भगवान चित्रगुप्त खाता लिए बैठे थे। उन्होंने साधु का नाम ठिकाना सब कुछ पूछा। साधु ने कहा— ‘मुझे नहीं जानते, मैं तो धरती का प्रसिद्ध संत हूँ। मैं यौवन में राग में डूबा रहा किंतु बाद में अखंड साधना की।
चित्रगुप्त ने खाता खोला। शुरू से ही पृष्ठ पलटने आरंभ किए तो साधु ने कहा— “शुरू में क्या रखा है? मेरे पुण्य देखने हैं तो वृद्धावस्था का हिसाब देखो।”
चित्रगुप्त ने आरंभ के पृष्ठ देखने छोड़ दिए। उन्होंने पूरा अंतिम भाग पलटा, पर उन्हें पुण्य के नाम की एक पंक्ति भी नहीं मिली।
साधु चकित रह गए। यह क्या हुआ? अवश्य चित्रगुप्त के हिसाब में भूल है। बोले— “यह कैसा हिसाब है?”
चित्रगुप्त कुछ नहीं बोले। इत्मीनान से पृष्ठ उलटते गए। साधु ने आश्चर्य से देखा— यौवनावस्था में तो उसके पुण्यों की भरमार है।
‘गलत है आपका यह हिसाब। यौवन में तो मैं केवल प्रेम-प्रणय में लीन रहा।’
चित्रगुप्त सुनकर हँसे। बोले— “साधुजी! जिसे प्रेम कहा जाता है, उसी को तो हम लोग पूजा कहते हैं।”