विद्यार्थी नचिकेता अपने पिता वाजिश्रवा की आज्ञानुसार आचार्य यम के पास विद्या पढ़ने के लिए गए। वहाँ उन्होंने आचार्य के पुस्तकभंडार में कितने ही ग्रंथ देखे और पाया कि उनमें प्राणविद्या का असाधारण महत्त्व बताया और यश गाया गया है। उनने पाया कि हठयोग प्रदीपिका का कथन है कि— “प्राण वायु निग्रहित हो जाने से मन एकाग्र होने लगता है। जिसने प्राण को जीत लिया उसने मन जीत लिया और मनोनिग्रह से होने वाले लाभों पर अधिकार कर लिया।”
“इंद्रियों का स्वामी मन है और मन पर अंकुश प्राण का रहता है, इसलिए जितेंद्रिय बनने वाले को प्राण की साधना करनी चाहिए।”
जावाल दर्शनोपनिषद् का कथन है कि— “प्राणायाम से चित्त की शुद्धि होती है। चित्त शुद्ध होने पर अनेक तर्कों और जिज्ञासाओं का समाधान स्वयमेव हो जाता है।” प्रश्नोपनिषद् में उल्लेख है— “इस शरीररूपी ब्रह्मपुरी से प्राण ही कई प्रकार की अग्नियाँ बनकर दहकता है।”
प्राण का दर्शन किस रूप में किस स्थान पर हो सकता है, इस संदर्भ में त्रिशिखोपनिषद् में कहा गया है कि— “मूलाधार चक्र में निवास करने वाली आत्मतेजरूपी अग्नि जीवनीशक्ति है। यह प्राणरूपी आकाश में प्रकाशवान कुंडलिनी है।”
रुद्रषामल तंत्र में लिखा है— "बिजली की बेल के समान तपते हुए सूर्य के समान अग्निरूपी यह शक्ति मूलाधार-क्षेत्र से ऊपर चढ़ती हुई दिखती है।"
कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में कहा है— “यह प्राण ही ब्रह्म है। यही सम्राट है। वाणी उसकी रानी है। कान उसके द्वारपाल हैं। नेत्र अंगरक्षक हैं। इंद्रियाँ दासी हैं। देवताओं ने यह सारे साधन प्राणब्रह्म के लिए जुटाए हैं।”
अथर्ववेद की श्रुति है- “उस प्राण को नमस्कार है, जिसके अधीन यह सारा जगत है, जो सबका ईश्वर है, जिसके भीतर यह सारा ब्रह्मांड समाया हुआ है।
ब्रह्मोपनिषद् का कथन है— “यह प्राण ही अग्निरूप धारण करके तपता है। यही सूर्य, मेघ, इंद्र, वायु, पृथ्वी तथा मूल समुदाय है। सत्-असत् तथा अमृतस्वरूप ब्रह्म यही है।” शतपथ का कथन है। यह प्राण ही निश्चित रूप से अमृत है। छांदोग्य में कहा है— "इस प्राण की शक्ति आशा से अधिक है।” बृहदारण्यक में कहा गया है— “प्राण ही यश और बल है।”
ताण्डय का कथन है- “प्राण काे जागृत कर लेना ही महान जागरण है” जो ज्ञानी प्राण के रहस्य को जान लेता है, उसकी परंपरा अमर हो जाती है।
ऐसे-ऐसे अनेक कथनों को पढ़ने पर नचिकेता की जिज्ञासा प्राणतत्त्व को जानने हेतु जगी। उसने आचार्य ‘यम’ से उसके संबंध में अधिक जानने की जिज्ञासा प्रकट की। यम कितने ही दिनों तक उसकी पात्रता परखते रहे और बात को आगे के लिए टालते रहे। उनके अनेक प्रलोभनों वाले साधनों को सीख लेने की बात कही; पर जब वह उसी ज्ञान का आग्रह करता रहा तो यम ने पंचाग्नि विद्या का रहस्य बताया। इसके सूत्र-संकेत प्रश्नोपनिषद् में मिलते हैं।
अग्नियाँ तीन हैं। आह्वनीय, दक्षिणाग्नि और आहिताग्नि। फिर पंचाग्नि से क्या अभिप्राय? यह पाँच कोशों की साधना है। इसी को पंचाग्नि विद्या कहा गया है।
मंत्र विज्ञान सुविस्तृत है। मंत्र महोदधि और कुलार्णव तंत्र में अनेकानेक मंत्रों का उल्लेख और विधि-विधान बताया गया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि- “प्राणरहित शरीर में जैसे कुछ काम करने की शक्ति नहीं रहती। उसी प्रकार बिना प्राण को जागृत किए किसी मंत्र की पुरश्चरण-साधना सफल नहीं होती।”
मारकण्डेय पुराण में कहा गया है कि— “जैसे हाथी महावत की इच्छानुसार अपनी चाल चलता और बदलता है, उसी प्रकार सिद्ध किया हुआ प्राण अभीष्ट प्रयोजनों में निरत रहता है।”
जैसे पाला हुआ चीता मृगों को ही मारता है, पालने वाले को नहीं। उसी प्रकार निग्रहित सिद्ध प्राण अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति करता है। साधक को हानि नहीं पहुँचाते।
प्राणतत्त्व को कितनों ने ही कास्मिक एनर्जी— 'दैवीतत्त्व' कहा है और कई उसे “विजुअल लाइफ” प्रत्यक्ष जीवन कहते हैं। वस्तुतः वह ऐसी शक्ति है, जिसे अपने निजी भंडार में भरते हुए अधिकाधिक शक्तिशाली बनाया जा सकता है। जो कार्य घर में जनरेटर होने पर उसके प्रयोग से हो सकते हैं, उसी स्तर के मानवी कार्य इस क्षमता के आधार पर हो सकते हैं। उसे परमार्थ प्रयोजनों में भी लगाया जा सकता है।
विशेषतया इसका प्रयोग रोगों के निवारण में हो सकता है। 'मैस्मरेजम विद्या' में उसके कुछ उपचार लिखे भी हैं और वे कारगर भी होते हैं। किसी दुर्बल मन वाले को यह अनुदान भी दिया जा सकता है। शक्तिपात के रूप में किसी दुर्बल प्राण वाले को सबल प्राण जैसा बनाया जा सकता है। इस क्षमता वाले के शाप-वरदान भी फलते हैं। उसको उपचार या प्राण-प्रहार दोनों ही रूपों में प्रयुक्त किया जा सकता है। प्राणायाम की गरिमा अखिल विश्व से प्राणतत्त्व— 'वायरल फोर्स' को खींचकर साधक के मनःक्षेत्र में भर देने के रूप में बताई गई है।
स्वसंचालित नाडी-संस्थान ऑटोनॉमिक नर्वस सिस्टम जब किसी अन्य उपाय से नियंत्रण में नहीं आता तब प्राणतत्त्व ही उसे वश में करता है। हारमोन तत्त्वों-अंतःस्रावी ग्रंथियों पर अन्य किसी उपाय से नियंत्रण स्थापित नहीं किया जा सकता, किंतु जागृत हुए प्राण द्वारा यह नितांत कठिन कार्य भी सरल हो जाता है।
संस्कृत में प्राण शब्द की व्युत्पत्ति ‘प्र’ उपसर्ग पूर्वक ‘अन्’ धातु से होती है। अन् धातु (प्राणने) जीवनीशक्ति चेतना वाचक है। इस प्रकार प्राण शब्द का अर्थ चेतनाशक्ति होता है। प्राण और जीवन प्रायः एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।
यह प्राणतत्त्व, जीवनतत्त्व जब न्यून पड़ता है तो व्यक्ति हर दृष्टि से लड़खड़ाने लगता है और जब वह समुचित मात्रा में रहता है तो समस्त क्रियाकलाप ठीक तरह चलते हैं। जब वह बढ़ता है तो उस अभिवृद्धि को बलिष्ठता, समर्थता, सतर्कता, तेजस्विता, मनस्विता, प्रतिभा आदि के रूप में देखा जा सकता है। ऐसे व्यक्ति ही महाप्राण कहलाते हैं। वे अपना प्राण असंख्यों में वितरित करते और अनेकों को अपनी नाव पर बिठाकर पार करते हैं।
कई व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से समर्थ और मानसिक दृष्टि से सुयोग्य होते हैं; पर अंतःकरण में साहस न होने के कारण कोई महत्त्वपूर्ण कदम नहीं उठा पाते। शंका-आशंकाओं से असमंजस में पड़ी मनःस्थिति में न तो कोई साहसिक निर्णय कर सकना बन पड़ता है और न अवसर का लाभ उठा सकना ही संभव होता है। इसके विपरीत मनस्वी व्यक्ति स्वास्थ्य, शिक्षा, साधन, सहयोग, अवसर आदि की कठिनाइयाँ रहते हुए भी दुस्साहस भरे कदम उठाते और आश्चर्यचकित करने वाली सफलताँ प्राप्त करते हैं।
प्राणवान होने के लिए साहस भरे कामों में हाथ डालना और उन्हें पूरा करके ही रुकना ऐसा उपाय है, जिस आधार पर प्राणशक्ति निरंतर बढ़ती ही जाती है। इन्हीं उपायों में एक प्राणायाम का अभ्यास भी है, जिसके अनेकों रूप प्रचलित हैं।