उस सर्प की कथा प्रसिद्ध है, जिसने एक महात्मा के उपदेश देने पर लोगों को काटना, उनका पीछा करना छोड़ दिया था। लेकिन उसके इस स्वभाव के कारण गाँव में बच्चों ने उसे तंग करना शुरू किया। लाठी से, कंकड़, पत्थरों से सर्प को घायल कर दिया, खेल ही खेल में उन्होंने। एक दिन वे ही महात्मा उधर से निकले तो सर्प की दुर्दशा पर दुःखी हुए, उन्होंने कहा- “मैंने तुझे दूसरों को काट कर प्राण नाश करने के लिए मना किया था, फुसकार के लिए नहीं”। महात्मा का आदेश पाकर सर्प अब फुसकार मारने लगा तो फिर बच्चों की या किसी की हिम्मत नहीं हुई उसे छेड़ने की, परेशान करने की।
उक्त सर्प की तरह मनुष्य को भी सामाजिक जीवन का निर्वाह पाने के लिए क्रोध की आवश्यकता पड़ती है, लेकिन यह क्रोध उस क्रोध से सर्वथा भिन्न होता है, जिसकी प्रेरणा से हम अंधे होकर दूसरों को भारी नुकसान पहुँचाने पर उतर आते हैं। “स्वस्थ क्रोध” की जीवन में आवश्यकता होती है, ताकि मनुष्य दूसरों के द्वारा पहुँचाए जाने वाले कष्ट, अन्याय, उत्पीड़न का अंत कर सके।
उपनिषद्कार ने अग्नि की स्तुति करते हुए कहा है— “मन्युरसि मन्यु में देहि” हे अग्नि “तुम मन्यु हो, मुझे भी “मन्यु” प्रदान करो। यहाँ “मन्यु” का अर्थ- ‘स्वस्थ क्रोध’ से ही है।
जिस तरह विष का शोधन करके उसे जीवनदाता रसायन बना लिया जाता है उसी तरह क्रोध का शोधन करके उसे एक महत्त्वपूर्ण शक्ति में बदला जा सकता है। महात्मा गाँधी ने कहा है— “क्रोध को अपने अधीनकर उसका शोधन करके ऐसी शक्ति में परिवर्तित किया जा सकता है जो सारे संसार को हिला दे।”
क्रोध और स्वस्थ क्रोध में यह अंतर है कि क्रोध में अपने ऊपर काबू नहीं रहता। वह आँधी-तूफान की तरह आता है। नशे की तरह यह मनुष्य के बुद्धि-विवेक को कुंठित कर देता है। स्वस्थ क्रोध में ऐसा नहीं होता। उसमें एक लंबा अनुभव होता है और धीरज होता है। वह मारात्मक न होकर उपचार प्रक्रिया है, जिसमें उछल-कूद या बौखलाहट नहीं होती। स्वस्थ क्रोध में उत्कृष्ट न्याय चेतना, परहित-चिंता ही मुख्य होती है। यह विचारपूर्वक, मननयुक्त होता है। समझ-बूझकर अंतिम उपाय के रूप में उपयोग में लाया जाता है। अस्वस्थ क्रोध में मनुष्य को सोचने-विचारने की शक्ति नहीं रहती।
“स्वस्थ क्रोध” कई बातों से प्रेरित होता है, जिसमें परदुःख-निवारण की भावना, दया, न्याय, बुद्धि, परहित-चिंतन, दुष्टता से लोहा लेने की प्रेरणाएँ ही मुख्य होती हैं।
स्वस्थ क्रोध की मुख्य प्रेरणा है— दूसरों का हित चिंतन। अग्नि में हाथ डालने की संभावना मालूम पड़ने पर माँ बच्चे पर बरस पड़ती है। इतना ही नहीं दो-चार चपत भी लगा देती है। विद्यार्थी के पढ़ने में लापरवाही करने पर अध्यापक डाँट-डपट देते हैं। इसमें परहित-साधन के लिए विचारपूर्वक क्रोध किया गया है।
दूसरों के दुःख को देखकर मनुष्य से नहीं रहा जाता और वह दुःख के कारण को दूर करने के लिए सक्रिय हो उठता है; वस्तुतः दूसरे के दुःख से प्रेरित क्रोध, जो उसका दुःख से उद्धार कर देता है, स्वस्थ क्रोध है। यह बुराई से बाहर समझा जाता है। स्मरण रहे, इनमें दुःख का संबंध अपनी सीमा से बाहर होता है।
शास्त्रकार ने कहा है— “क्रोधोवैवस्वतो राजा”। क्रोध यमराज है और यमराज का काम है— न्याय व्यवस्था को स्थिर रखना, बुराई करने वालों को दंड देना। स्वस्थ क्रोध न्यायबुद्धि पर चलता है। किसी पक्ष के साथ अन्याय हो रहा है तो चेतनासंपन्न व्यक्ति उसे देखकर अनदेखा नहीं कर सकता। वह अन्यायी को दंड देकर निर्बल पक्ष के अधिकारों की रक्षा करता है, न्याय का पक्ष करता है। यदि कोई दुष्ट अबला स्त्री पर अत्याचार कर रहा है तो यहाँ हमारे स्वस्थ क्रोध की आवश्यकता है, जिसका प्रयोगकर हम दुष्ट का दमन कर सकते हैं और उस स्त्री के न्यायानुकुल अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं। इसी तरह कोई आततायी किसी असहाय को प्रताड़ित कर रहा है, कोई श्रीमंत किसी गरीब पर अन्याय कर रहा है तो हमारे अंदर उस मन्युशक्ति के उदय होने की आवश्यकता है, जिससे हम न्याय की रक्षा कर सकें और अन्यायी को परास्त कर सकें।
स्वस्थ क्रोध में अचानक निवारक कार्यवाही को स्थान नहीं है, पहले बीच के और भी रास्ते हैं। समझाने-बुझाने, दलील, तर्क, साम, दाम, भेद आदि उपायों के बाद दंड अंतिम उपाय के रूप में काम में लाया जाता है। महाभारत भगवान कृष्ण की न्यायचेतना का अंतिम उपाय था। उन्होंने कौरवों को कई तरह से समझाया-बुझाया, संधि का प्रस्ताव रखा; लेकिन जब दुर्योधन ने एक दुराग्रह के रूप में कहा— “सूच्याग्रेन्नैव दास्यामि बिना युद्धेन केशव।” हे श्रीकृष्ण! मैं सुई की नोंक के बराबर भी जमीन नहीं दूँगा, बिना युद्ध किए।” इस तरह जब सब उपाय व्यर्थ चले गए तब तो महाभारत के रूप में श्रीकृष्ण की न्याय चेतना ने काम किया।
स्वस्थ क्रोध लोक-कल्याण की भावना से प्रेरित होता है। समाज में एक तरह के ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जो शांति, प्रेम, दया, करुणा की भाषा को नहीं समझते। समझौते और शांतिवादी मार्ग को नहीं जानते। वे मनचाहा करते हैं, चाहे उससे दूसरों की हानि ही क्यों न हो। ऐसे व्यक्तियों की कमी नहीं, जो दूसरों को नष्टकर उन्हें अपने शोषण का साधन बना लेते हैं। ऐसे लोगों का इलाज मन्यु से ही होता है। आततायी, दुष्ट, अन्यायी व्यक्ति को जब यह शिक्षा न मिलेगी कि कोई हमसे भी बलवान है, वे सीधी राह नहीं चलेंगे।
स्मरण रहे स्वस्थ क्रोध उस राख से ढकी चिनगारी की तरह है जो अपनी ज्वाला से किसी को दग्ध तो नहीं करती; किंतु आवश्यकता पड़ने पर बहुत कुछ जलाने की सामर्थ्य रखती है।
जहाँ मन्यु अर्थात- स्वस्थ क्रोध निवास करता है वहीं न्याय की, अधिकारों की रक्षा हो सकती है। जिस समाज में इसका अभाव हो जाता है वह कायर, नपुंसक, दीन-हीन बन जाता है। उसकी नैतिक क्षमता और चरित्र भी गिर जाता है। जिस समाज में अन्यायी-आततायी के प्रति रोष नहीं, शोषणकर्त्ता, अपराधी, अत्याचारी से निपटने की भावना नहीं, वह समाज कायरों का समाज है। वह सदैव दूसरों की गुलामी के दिन काटे तो इसमें कोई संदेह नहीं।
ऋषियों की हड्डियों के ढेर देखकर राम का आक्रोश, समुद्र के अहंकार पर लक्ष्मण का कोप, क्षत्रियों के अत्याचारों पर परशुराम का क्षोभ, आततायी कंस के प्रति, कौरवों के प्रति श्रीकृष्ण का विरोध इसी मन्युशक्ति की स्थिति का परिचायक है। आज हमें इसी का आह्वान अपने जीवन में करना चाहिए, जिससे हम अन्यायों से निपट सकें। दीन-हीन गरीब असहायों के अधिकारों की रक्षा कर सकें।