यज्ञ से सिद्धियों की प्राप्ति

July 1986

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जैसे एक ही व्यक्ति पहलवान, चिकित्सक, व्यापारी, सांसद आदि हो सकता है उसी प्रकार एक ही भगवान अनेक देवताओं के रूप में प्रतिपादित किया जा सकता है। जिस प्रकार विष्णु सहस्रनाम में एक ही भगवान के हजार नाम बताए गए हैं। वही बात देवताओं के संबंध में भी समझी जानी चाहिए। विष्णु हजार नहीं हो सकते, उनके नाम ही हजार हैं। उसी प्रकार परम सत्ता एक ही है। विभिन्न प्रयोजनों के लिए उनके अनेक नाम रखे जा सकते हैं। देवशक्ति के अनुकूलन में एक ही सबसे बड़ा तथ्य है कि वह पात्रता चाहता है। पात्रता के बिना मात्र मनुहार या उपहार के सहारे उसे कोई अपना वशवर्ती नहीं बना सकता। यज्ञ इसी प्रक्रिया का नाम है। जिसके माध्यम से शिक्षा और प्रेरणा ग्रहण करके मनुष्य सत्पात्र बनता है। जिस प्रकार गहरे गड्ढे में वर्षा का जल उसी मात्रा में भर जाता है, उसी प्रकार मनुष्य के भीतर सत्प्रवृत्तियाँ गहराई से भरने पर दैवी-अनुग्रह अपने आप बरसने लगता है। वृक्षों की आकर्षणशक्ति से बादल अपेक्षाकृत अधिक मात्रा में बरसने लगते हैं। उसी प्रकार भगवान से अनुकंपा माँगनी नहीं पड़ती। माता-पिता से छोटा बालक अपनी आवश्यकता या फरियाद कहाँ व्यक्त करता है। उसी प्रकार भक्त भी भगवान से अपनी भौतिक या आत्मिक आवश्यकताएँ न तो समझ पाया है और न कह पाता है। कहना भी चाहे तो उसकी सुनवाई नहीं होती, क्योंकि जब तक जो व्यक्ति जिस अनुदान का सदुपयोग न कर पाए तब तक उस पर उन वैभवों को लाद देने से मनुष्य का अहंकार और अनाचार बढ़ता है, इसलिए भगवान के दरबार में किसी को कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु देने की एक ही शर्त है कि वह उसका सदुपयोग कर पाएगा या नहीं। दुरुपयोग में तो उलटी विपत्ति ही बढ़ती है। सदुपयोग करने न करने के संबंध में किसी व्यक्ति के भावी आश्वासनों पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता। विवाह के समय वर-वधू आपस में प्रतिज्ञाएँ करते हैं; पर दिन बीतने नहीं पाते कि उन्हें भूला देते हैं और अपनी पुरानी आदतों के अनुरूप उद्धत आचरण करने लगते हैं। ईश्वर को विश्वास दिलाने के लिए अपने क्रियाकलाप एवं वर्तमान रीति-नीति ही संतोष दे सकती है।

यज्ञ एक कृत्य भी है और एक दर्शन भी। दृश्य के माध्यम से भावनाएँ उभारने की परंपरा पुरानी है। चित्रों और प्रतिमाओं का निर्माण इसी निमित्त हुआ है। यज्ञ-प्रक्रिया भी एक कृत्य है, जिसका तत्त्वज्ञान हृदयंगम करने पर मनुष्य को पवित्र, प्रखर और परमार्थपरायण बनना पड़ता है। इस दिशा में जितनी प्रगति होती जाती है, उसी अनुपात से भगवान की अनुकंपा मनुष्य पर बरसने लगती है।

गीताकार ने कहा है कि तुम देवताओं की भावना करो। देवता तुम्हारी भावना पूरी करेंगे। यहाँ भावना में अर्थ आवश्यकता नहीं है। देवतत्त्वों को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं। भगवान के पास क्या नहीं है? उसे किससे क्या चाहिए यहाँ अभिप्राय हवन, शाकल्य, घृत आदि देने में नहीं; वरन यह है कि वे किससे क्या चाहते हैं और मिल जाने पर वे किसी प्रकार बलिष्ठ बनते और सहयोग प्रदान करते हैं। आग की आवश्यकता ईंधन की है, जहाँ ईंधन मिला नहीं कि अग्नि प्रज्वलित हुई नहीं। उसी प्रकार मनुष्य पवित्र और प्रखर बना नहीं कि उस पर दैव अनुकंपा अनायास ही बरसी नहीं। संसार भर के महापुरुष इसी एक तथ्य के उदाहरण हैं। उन्होंने सर्वप्रथम अपने चिंतन, चरित्र और व्यवहार को उच्चस्तरीय बनाया। यह प्रथम सोपान पूरा होते ही प्रामाणिकता सिद्ध होती है। लोकश्रद्धा उमड़ती है। सब ओर से सहयोग का माहौल बनता है और उस आधार पर अप्रत्याशित दैवी सहायता भी मिलने लगती है। इस तथ्य की साक्षी में हम किसी भी महापुरुष का जीवनक्रम उलट-पुलटकर देखते हैं। मात्र याचना में किसे क्या मिलता है। भिखारी को संपन्न लोग भी पाई पैसा ही देते हैं, उनके नाम अपनी जमीन जायदाद थोड़े ही कर देते हैं। सिद्धियाँ भगवान की बेटियाँ हैं उन्हें वे उसी के हाथों सौंपते हैं, जिनसे सदुपयोग की, परमार्थ-प्रयोजनों में लगाए जाने का विश्वास हो। हेय और हीन व्यक्ति को अपनी सुयोग्य कन्या कोई नहीं सौंपता। देवता भी यही करते हैं वे हर किसी की मनोकामना पूरी नहीं करते। यज्ञीय जीवन जीने वाले— जीवन में यज्ञ परंपराओं का समावेश करने वाले ही सिद्धि चमत्कारों का अनुदान प्राप्त करने के अधिकारी माने जाते हैं और उन्हें ही वे मिलती भी हैं।

यज्ञ द्वारा देवशक्तियों का आह्वान, अनुमोदन एवं बदले में उनके अनुग्रह की प्राप्ति का शास्त्रकारों ने पूरा जोर देते हुए प्रतिपादन किया है। यहाँ देवताओं से आशय ईश्वर की दिव्यशक्तियों से है। ईश्वर एक है। उसकी जिस सामर्थ्य के साथ संबंध बनाना होता है तब उसे उसी रूप में ध्यान-धारणा क्षेत्र में उतारते हैं। श्रद्धा-विश्वास के अनुरूप वे प्रतिफल भी देती हैं।

अदृश्य दैवीशक्तियों के अतिरिक्त मनुष्यों में भी वे साकार रूप से विचरते और दृश्यमान होते हैं। मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ हैं— पिशाच, पशु और देव। पिशाच वे हैं जो हृदय हीन, निष्ठुर, कुकर्मी और अपराधी प्रवृत्तियों को अपनाते हैं। नरपशु वे हैं जो पेट, प्रजनन के अतिरिक्त और कुछ सोचते ही नहीं। श्रेष्ठ या निकृष्ट करने के लिए जिस साहस और पराक्रम की आवश्यकता होती है वह उनमें होता ही नहीं इसलिए हेय, अनगढ़ और अस्त-व्यस्त जीवन जीकर मौत के दिन पूरे करते हैं। नर-देव या नर-नारायण वे हैं जो शरीर की दृष्टि से तो वे सामान्य मनुष्यों जैसी आकृति के ही होते हैं; पर प्रकृति उनकी उत्कृष्ट स्तर की देवोपम होती है। ऐसे ही लोगों को संत, सुधारक और शहीद श्रेणी में गिना जाता है। ऐसों को ही ऋषि, महामानव या देवात्मा कहते हैं।

गीताकार की वह उक्ति यहाँ भी लागू होती है कि तुम देवताओं की भावना करो और देवता तुम्हारी भावनाएँ पूरी करेंगे। यहाँ भावना और कामना का अंतर स्पष्टतया समझ लेना चाहिए। भावनाएँ परमार्थपरक होती हैं और कामनाएँ स्वार्थपरक। उनमें वासना, तृष्णा और अहंता की महत्वाकांक्षाएँ भरी रहती हैं, जबकि भावनाओं में, उत्कृष्टता, आदर्शवादिता और उदारता ओत-प्रोत रहती है।

ऐसे देवमानवों की सेवा, सहायता करने से वैसा ही लाभ मिलता है जैसा कि राम, कृष्ण, बुद्ध, गाँधी आदि के सहयोगियों को मिला और वे सामान्य से असामान्य हो गए। कलेक्टर के चपरासी का जब मान बढ़ जाता है तो कोई कारण नहीं कि ईश्वर के समतुल्य बन जाने वाले ईश्वरपरायण व्यक्तियों, धर्मात्माओं, तपस्वियों का संपर्क-सान्निध्य प्राप्त करने का उपयुक्त लाभ न मिले किंतु स्मरण रहे यह सान्निध्य चापलूसी करने से नहीं सधता, वरन उनकी इच्छानुसार अपना चिंतन, चरित्र और व्यवहार बदलने से ही सम्भव होता है।

इसी प्रकार का नाम योग है। योग अर्थात जुड़ना। इसी को यज्ञ कहते हैं। यज्ञ अर्थात महानता के प्रति आत्मसमर्पण करना। उन्हीं उच्च आदर्श के अनुरूप अपने को ढालना— गतिशील रखना।


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