सज्जनों की अग्नि परीक्षा

July 1986

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सूर्य की ऊर्जा वस्तुओं को ऊपर उठाती है, समुद्र से बादलों को उठाना, तूफान खड़े करना, गीलेपन को भाप में बदलकर अंतरिक्ष में उड़ा देना। यह सब हम नित्य देखते हैं और सूर्य को उन्नयन-उत्कर्ष का प्रतीक मानते हैं, पर साथ ही यह भी स्पष्ट है कि पृथ्वी की आकर्षणशक्ति कम बलवती नहीं है, वह पकड़ती और गिराती है। यह दोनों ही शक्तियाँ अपनी चमत्कारी बलिदान का प्रदर्शन निरंतर करती रहती हैं। तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में उत्कर्ष को पुण्य और अपकर्ष को पतन या पाप की संज्ञा दी जा सकती है। मनुष्यों की विचारधारा और गतिविधियाँ प्रायः इन्हीं के आकर्षण-विकर्षण से प्रभावित होती रहती हैं। दिन और रात की तरह अपने-अपने अवसर पर इनका प्रभाव परिलक्षित होता रहता है। दोनों के बीच संघर्ष भी बना रहता है। प्रवाह, वातावरण और प्रभाव के अनुरूप उनका उतार-चढ़ाव भी प्रत्यक्ष होता रहता है। देवासुर संग्राम का पौराणिक उपाख्यान तो है ही; परंतु मनुष्यों के चिंतन और चरित्र इन दोनों के बीच रस्साकशी निरंतर बनी रहती है।

एक का मरण, दूसरे का जीवन है। पुण्य मरेगा और पाप फैलेगा। सद्ज्ञान की समाप्ति होगी तो अज्ञान बिखरेगा। आग-पानी जैसा यह बैर। आग को अवसर मिलता है तो पानी को भाप बनाकर उड़ा देती है और पानी का दाव लगे तो वह आग को बुझाए बिना नहीं रहता। सर्दी और गर्मी जैसा, गरीबी और अमीरी जैसा दोनों के बीच अंतर है। चूहे-बिल्ली जैसा बैर। एक का अस्तित्व दूसरे को सुहाता ही नहीं। अपना बचाव दूसरे पर आक्रमण करने से ही संभव है। इन दिनों यही लोकमान्यता है। यह अस्तित्व और समन्वय की मध्यवर्ती विधि-व्यवस्था किसी को सुहाती ही नहीं।

धर्मधारणा को सबल— समर्थ बनाने के लिए जब भी, जहाँ भी प्रयत्न होते हैं वहाँ उन पर प्रत्यक्ष आक्रमण होते ही हैं। चोर-डाकू समाज को संत्रस्त करते हैं;  अस्तु उन्हें काबू में रखने के लिए पुलिस, जेल, कचहरी, सरंजाम कटिबद्ध रहता है। संतों को दुष्टों द्वारा इसलिए त्रास दिए जाते हैं कि उनके द्वारा मार्ग में जो अवरोध उत्पन्न किए जाते हैं, उसे सफलता न मिलने पाए। दीपक जब बुझने को होता है तो पूरी तेजी से लपकता है। चींटी जब मरने को होती है, तो उसके पंख उगते हैं। रात्रि के अंतिम प्रहर में तमिस्रा अधिक सघन हो जाती है, 'मरता वह क्या न करता' की उक्ति पाप पर भी लागू होती है। जब धर्मधारणा के प्रयास तीव्र होते हैं, सफल होते चलते हैं, तब असुरता उसे अपने लिए प्राणसंकट की चेतावनी समझती है और समूची शक्ति के साथ आक्रमण करती है।

देवताओं का बढ़ता हुआ प्रताप दैत्यों से सहन नहीं होता। उस सफलता में उन्हें अपना विनाश जो दिखता है, इसलिए अस्तित्व की लड़ाई में वे चूकते नहीं। अनाचारियों को उनसे अधिक खतरा रहता है, जो सत्य के लिए संघर्ष करने हेतु जनता को उकसाते हैं। सामने की लड़ाई की अपेक्षा यह पीठ पीछे की लड़ाई उन्हें इसलिए भारी पड़ती है कि उसमें जड़ कट जाने का खतरा जो है।

राजनैतिक या सामाजिक अनाचारों के विरुद्ध जिनने भी आवाज उठाई है, जनता को इसके लिए संघर्षरत होने के लिए उकसाया है, उन सभी अग्रगामियों को शास्त्र या समाज का कोप सहना पड़ा है। यदि जनता लाभ उठाती है तो निहित स्वार्थियों को हानि पहुँचती है और यदि निहित स्वार्थियों को मनमर्जी करने दी जाए तो सर्वसाधारण का कचूमर निकलता है, इसलिए संघर्ष आवश्यक भी है और अनिवार्य भी। भले ही वह मार-काट स्तर तक न पहुँचने दिया जाए तो भी विरोध, असहयोग, प्रतिरोध, घराव, घिराव स्तर तक तो परिस्थिति के अनुरूप उसे ले ही जाना पड़ेगा। इस संघर्ष की उत्तेजना तब न्यायपक्ष को,पीड़ितपक्ष को ही देनी पड़ती है। भले ही उसे रोकने के लिए आक्रमण अनाचारियों की ओर से ही क्यों न हो।

देखा गया है कि दफ्तरों में जहाँ एक आदमी अधिक काम करता है या ईमानदारी बरतता है तो अन्य सभी बाबू लोग, साहब लोग विरोधी बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि इस उदाहरण से तो हमारी आरामतलबी या आमदनी में कमी पड़ेगी। ऐसी दशा में उचित यही है कि इस पर इल्जाम लगाया या भगाया जाए। यह कुचक्र प्रायः सफल भी होता है। ईमानदार परिश्रमी को हैरान करने में अन्य सभी एकमत हो जाते हैं और मिल-जुलकर षड्यंत्र बनाते हैं।

स्वतंत्रता-संग्राम के दिनों में रियासती या अंग्रेजी इलाके के जनसेवक चुन-चुनकर पकड़े और जेल में बंद किए जाते थे, ताकि उनकी जनसंपर्क शृंखला टूट जाए और आंदोलन न पनपे। चोर-डाकू भी उन्हीं पर हमला करते हैं, जिनसे उनके काम में बाधा पड़ने की संभावना प्रतीत होती है। भले ही उनसे कोई निजी दुश्मनी न हो।

पाप जब मरने की स्थिति में होता है तो पुण्य पर पूरी शक्ति के साथ आक्रमण करता है। यह आक्रमण प्रत्यक्ष आक्रमण, इल्जाम, चरित्रहनन, फूट, षड्यंत्र आदि अनेकों प्रकार का हो सकता है; पर होता अवश्य है। दुष्ट शक्तियाँ अपनी पराजय चुपचाप होते सहन नहीं कर सकतीं।

गाँधी जी गोली से मारे गए। दयानंद को विष दिया गया। श्रीकृष्ण पर स्यमंतकमणि की चोरी लगाई गई। जटायु के पंख कटे। ईसा को फाँसी पर चढ़ाया गया। सुकरात को विष का प्याला पिलाकर मारा गया। इसके अतिरिक्त क्रांतिकारियों, शहीदों, बलिदानियों का लंबा इतिहास है, जिसमें ऐसे अगणित महामानवों की नामावली सम्मिलित है, जिनमें उनका दोष नहीं के बराबर था; पर उन्हें प्राणघातक कष्ट दिए गए। हरीबल राय जैसे मासूम बच्चों का वध इसी नृशंस-प्रक्रिया में सम्मिलित होता है। मंसूर को मात्र उच्चविचारों के कारण ही शूली पर चढ़ना पड़ा। इतिहास के अगणित हत्याकांडों में यही नृशंसता काम करती रही है।

यह प्रक्रिया परोक्ष रूप में भी चलती है। अदृश्य जगत में छाया हुआ पाप ऐसे कुचक्र रचता है, जिसमें कोई प्रत्यक्ष कारण न होते हुए भी अपने पराभव की आशंकामात्र से दुष्टताएँ अपनाई गई हैं।

कंस ने अपना शत्रु पैदा होने की संभावना को ध्यान में रखते हुए अगणित नवजात बालकों का वध करा दिया था। मूसा के डर से पूर्व मिश्र के बादशाहों ने भी यह बालघात की मुहिम पूरी सतर्कता के साथ चलाई थी। श्रीकृष्ण के जन्मकाल से ही पूतना, तृणावर्त, वृत्तासुर, अघासुर, कालिया नाग उनका प्राण-हरण करने के लिए भरसक प्रयास करते रहे। रामावतार के समय ताड़का, सूर्पणखा, सुरसा, त्रिजटा जैसी महिलाएँ और मारीचि, खर-दूषण जैसे दुष्ट समय पाते ही त्रास देते रहे। तपस्वियों को बीन-बीन असुरों ने मारा था और उनकी अस्थियों के पहाड़ खड़े कर दिए थे। जिन्हें देखकर राम को भुजा उठाकर प्रतिशोध की प्रतिज्ञा लेनी पड़ी थी।

मध्यकालीन संतों को शासकों, पुरोहितों तथा दूसरे दुष्टजनों द्वारा अनेकानेक त्रास सहने पड़े। पारसी धर्म के संस्थापक जरथुस्त को अनेकानेक स्थानों पर अपमान व उत्पीड़न सहने पड़े। जैन तपस्वियों को विचलित कर देने वाले त्रास असामान्य रूप में सहने पड़े हैं।

रामकृष्ण परमहंस को केंसर रोग से पीड़ित होना, भीष्म का छः महीने शरशैय्या पर पड़े रहना, तपस्वियों को प्रलोभन तथा भय दिखाकर उनको अपनाया, मार्ग छोड़ देने के लिए दबाव डालने की अनेक घटनाएँ घटित होती रही हैं। इन कार्यों में अदृश्य दानवों के भी कुटिल हाथ काम करते रहे हैं। इसे अग्नि परीक्षा ही कहना चाहिए, जिससे सोने की तरह बहुमूल्य एवं खरे होकर निकलते हैं। हीरा घिसे जाने पर ही चमकता है।


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