दृष्टिकोण का परिष्कार

July 1986

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कैमरे की सहायता से वस्तु या व्यक्ति का किसी भी कोण से फोटो लिया जा सकता है, पर उन सभी में भारी अंतर रहेगा। सामने से, पीठ पीछे से, अगल-बगल से, छल से, जमीन पर लेटकर फोटो लेने से जो चित्र खींचे जाएँगे, उन सभी में भारी अंतर पाया जाएगा; यों होंगे वे सभी सही।

जीवन के संबंध में भी यही बात कही जा सकती है। वह क्या है? क्यों है? इसका लाभदायक उपयोग क्या हो सकता है? जैसे प्रश्नों पर विचार करते हुए अनेकों उत्तर उभरकर आते हैं, और कितने ही निष्कर्ष निकलते हैं। अपनाए गए दृष्टिकोण के अनुसार वे सभी सही प्रतीत होते हैं, पर उसका उत्तम और उपयोगी पक्ष क्या है? इस संदर्भ में गहराई तक, अधिक गहराई तक उतरने की आवश्यकता है। उथले धरातल पर विचार करने से कई बार ऐसे उत्तर सामने आते हैं, जो यथार्थवत् प्रतीत होते हुए भी वस्तुतः नितांत भ्रमपूर्ण होते हैं। भ्रम भी एक तथ्य है, जो अनेक बार असत्य होते हुए भी सत्यवत् प्रतीत होता है।

यहाँ अनेक अंधों द्वारा एक ही हाथी के अलग-अलग अवयव पकड़कर जो परस्पर विरोधी निष्कर्ष निकाले गए थे, वह कथा याद आ जाती है। जिसने जो अवयव पकड़ा था, उसी के अनुरूप हाथी की आकृति बताई थी। उसका बोध उस स्थिति में सही भी था। वह अपने निर्धारण को दृढ़तापूर्वक सही भी कह सकता था। इतने पर भी यह असमंजस बना ही रहता है कि सभी भिन्न तरह अनुभव करने वाले अपूर्ण हैं। समूचा हाथी जिसने देखा है और उसकी गतिविधियों को चरितार्थ होते देखा है, वही सही और समग्र रूप से यह बता सकता है कि हाथी किस प्रकार खरीदा, पाला और चलाया जाता है।

प्रश्न जीवन का है। यह देखने में तो खाने-सोने आदि नित्यकर्मों में दिन गुजारने वाले शरीर की, काम दें सकने योग्य समय-सीमा ही है, पर उसका मूल्याँकन एवं उसका उपयोग सुझाने वाला दृष्टिकोण अलग-अलग है। चिड़ीमार, मछलीमार बधिक भी अपने क्रियाकलाप में लगे रहते हैं और उनके अभ्यास में आ जाने पर किसी प्रकार अपना खाँचा भी उस प्रक्रिया के साथ जमा लेते हैं। चोर-उचक्के, व्यभिचारी भी अपने व्यवसाय में दिन गुजार लेते हैं। ठग चित्र-विचित्र प्रकार की तरकीबें सोचते, अपनाते और बदलते रहते हैं। मध्यवृत्ति के बुराई-भलाई के झंझट में नहीं पड़ते, श्रम करते और पेट भरते हैं। नियति के निर्धारण के अनुरूप बचपन, जवानी और बुढ़ापा काटकर मौत के मुँह में चले जाते हैं।

जीवन बहुमूल्य है। वह पेट भरने जैसे सामान्य क्रियाकलाप में व्यतीत कर देने जैसे घटिया स्तर का नहीं है। उस प्रकार तो पशु-पक्षी भी जी लेते और मौत के दिन पूरे कर लेते हैं। मनुष्य असाधारण है। शरीर-संरचना की दृष्टि से ही नहीं, वरन उसकी चेतना की गहराई और ऊँचाई को नापा-आँका जाए तो वह सचमुच ही असाधारण है। जिनने अपना उपयोग जिस भी दिशा में तन्मयतापूर्वक किया है, उसने उस स्तर की सफलताएँ भी पाई हैं, अभिरुचि के अनुरूप अपने को ढाला और उन्नति के उच्च शिखर तक पहुँचाया है। साहित्यकार, कलाकार, नेता, अभिनेता, पहलवान, विद्वान, धनवान आदि की अभिरुचि ही चेतना को दिशा विशेष में तत्पर और तन्मय किए रहती है। उसका प्रतिफल भी मिलता है। धीमी चाल से चलने वाले देर लगाते और थोड़ा पाते हैं; पर जिनकी गतिशीलता, प्रयत्नशीलता, तत्परता बढ़ी-चढ़ी हैं, वे सफलता के उच्च शिखर पर भी पहुँचते देखे जाते हैं।

जीवन का मूल्य और स्वरूप जो समझ नहीं पाते, उनके लिए वह एक प्रकार की घाम-पात है जो ग्रीष्म में अपना अस्तित्व गँवा बैठती है और वर्षा आने पर फिर अपना स्वरूप दृश्यमान करती रहती है। जीवन और मरण का चक्र नियति का एक सामान्य विधान है। वस्तुओं का उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन होता ही रहता है। शरीर भी एक पदार्थ है। वह भी इसी प्रकृति के साथ बँधा हुआ है। जो शरीर के अस्तित्व को ही जीवन मानते हैं, उनके लिए ईंधन जुटाना और इस अग्नि को सीमित अवधि तक प्रज्वलित रखना ही एकमात्र कृत्य है। कोटि-कोटि जीव-जंतुओं की तरह वे भी आए दिन विपुल संख्या में जन्मते और मरते रहते हैं। इनमें से कुछ प्राणी श्रम-सीमा में संतोष और औचित्यपूर्वक निर्वाह कर लेते हैं, पर जिनकी महत्वाकांक्षाएँ-एेषणाएँ अत्यधिक उग्र हैं, उनमें लालच व्यामोह और अहंकार एक प्रकार का ऐसा उन्माद भर देता है कि किसी भी रीति से वे साधनसम्पन्न बन सकें, बड़े कहला सकें और दूसरों के सामने अपनी वरिष्ठता का आतंक प्रस्तुत कर सकें। जीवन का यह वह स्वरूप है, जो सीमित तो शरीर तक रहता है, पर जिनकी मनोवांछा उबलती रहती है, वे लोगों की दृष्टि में अपना वजन, विस्तार और वैभव बढ़-बढ़कर प्रदर्शित करना चाहते हैं।

ऐसे लोग अभीष्ट सफलताएँ प्राप्त करने के लिए आत्मसाधना एवं औचित्य-मर्यादा तक ही सीमित नहीं रह जाते, वे अनीति अपनाते, उद्धत कर्म करते, आतंक जमाते और जो भी संभव है, उसे बिना न्याय अन्याय का भेद किए कर गुजरते हैं। चर्चा का विषय बनते हैं और अपनी समर्थता का परिचय देते हैं। तथाकथित सफल मनोरथों और बड़े आदमियों में ऐसे ही लोगों की गणना होती है। सफलताओं का चमकीला सेहरा भी उनके सिर पर बँधता देखा गया है।

यह वे विडंबनाएँ हैं, जिनमें आम आदमी घिरा और बँधा रहता है। जो अपने को शरीर मानकर चलता है, वह शरीर के साथ जुड़ी हुई सफलताओं को ही अपने बड़प्पन का चिह्न मानता है और गिलहरी का मुँह जिस प्रकार कपास के छोटे गुच्छे से ही भर जाता है, उसी प्रकार अपने बड़प्पन पर इठलाते-इतराते, दर्प एवं गर्व का प्रदर्शन करते हैं।

जीवन का शरीर पक्ष इतना ही है, किंतु जो गहराई में उसे देखने और समझने का प्रयत्न करते हैं, उन्हें प्रतीत होता है कि वह इतनी छोटी वस्तु नहीं है, जितनी कि समझी और प्रयुक्त की गई। जीवन आत्मा का घोंसला है। घोंसला तिनकों का समूहमात्र है। कौशल और महत्व उस पक्षी का है, जो उसमें रहता और बुनता है। पक्षी के चले जाने पर घोंसले को हवा के झोंके ही तितर-बितर कर देते हैं। आत्मा की अग्नि का अस्तित्व ही शरीर के चूल्हे को गरम किए रहता है। उसके विलग होते ही सुंदर और समर्थ दिखने वाली काया देखते-देखते सड़ने-गलने लगती है और ढाँचे को उन्हीं पंचतत्त्वों में विलय कर देती है, जिनसे मिलकर वह बनी थी। आत्मा इसके पहले भी थी और बाद में भी बनी रहती है।

शरीर आधि-व्याधियों से घिर जाने पर अपंग- असमर्थ की तरह रोता-कलपता रहता है और दूसरों की सहायता से किसी प्रकार अपने अस्तित्व की रक्षा कर पाता है। कई बार तो दुर्घटनाएँ ही अकालमृत्यु का कारण बन जाती हैं। तब प्रगति के मनोरथ अवगति के दुर्भाग्य को ही कोसते-कलपते रहते हैं। स्वास्थ्य की स्थिरता गँवा बैठने पर महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति तो दूर, किसी प्रकार काया का ढाँचा खींचना तक भारी पड़ता है।

यही बात आत्मा के संबंध में भी है। उस पर एक ही रोग चढ़ता है; पर होता इतना भयंकर कि जिन्हें काया के शत-सहस्र रोगों से भी बढ़कर माना जा सकता है। इस रोग का नाम ही “माया” है। माया अर्थात अपना स्वरूप, उद्देश्य और कर्त्तव्य को भूल जाना। इस व्यथा के कारण दृष्टिकोण में भारी अंतर पड़ जाता है। पीलिया रोग हो जाने पर दूसरी सब वस्तुएँ पीली दिखती हैं। यहाँ तक कि अपनी आँखें भी पीले रंग की दिख पड़ती हैं। आत्मविस्मृति ऐसा ही पीलिया रोग है। उसे दिशाभ्रम से उत्पन्न भटकाव ही कह सकते हैं। इसे ऐसा विचित्र शीर्षासन कह सकते हैं, जिसमें वाहन, सवारी के काम आने की अपेक्षा मालिक पर चढ़ बैठता है और उसे ऐसे नाच नचाता है, जैसे मदारी अपने पालतू बंदर को नचाया करता है।

भगवान ने मनुष्य को अद्भुत काया और अनुपम मानस दिया है; पर एक काम उसके जिम्मे छोड़ा है कि इस बहुमूल्य वस्तु का ऐसा उपयोग करे जो उसकी गरिमा बनाए रखे और ऐसे परिणाम प्रस्तुत करे, जिन्हें गौरव के अनुरूप कहा जा सके। यह तभी बन पड़ता है जब दृष्टिकोण निर्भ्रांत हो। विशेषतया अपने स्वरूप, महत्त्व और कर्तृत्व का ज्ञान हो। परमात्मा का अविनाशी अंश आत्मा है, उसे प्रज्ञाप्रेरित होना चाहिए। प्रज्ञा, वह जो जीवन के स्वरूप और सदुपयोग समझा सके और अपनी प्रखरता के सहारे संमार्ग दिखा सके। उस पर चल सके और धकेलते-घसीटते हुए आगे बढ़ा सके।

अपूर्णता को पूरी करना और विश्व-वाटिका को सुरम्य बनाना, यह दो कार्य ऐसे हैं जो जीवनसत्ता- आत्मा के लिए अपनाने योग्य हैं। दूसरे शब्दों में इसे अंतरंग पुण्य और बहिरंग परमार्थ भी कह सकते हैं। परमार्थ शरीर करता है और पुण्य की पवित्रता से आत्मा को निर्मल-निरामय बनाया जाता है। यही है आत्मज्ञान का प्रमाण-परिचय। जिसने भटकाव से छुटकारा पा लिया, जिसने भवबंधन से छुटकारा पा लिया उसे अपनी सत्ता की वास्तविकता का आभास होता है, साथ ही यह भी सूझ पड़ता है कि किस राजमार्ग पर चलना चाहिए, किस उलझनभरी पगडंडी में भटकने में सतर्कता बरतनी चाहिए।

आध्यात्मिक जीवन वह है, जिसमें सर्वतोमुखी संयम-साधना के सहारे अपने को निखारा जाता है। संयम ही तप है। तप ही अंतःकरण की प्रचंडता को प्रदीप्त करता है। इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम के सहारे मनुष्य उन अनाचारों से बच सकता है, जो उसकी दुर्गति के प्रधान कारण हैं, शरीर के लिए औसत नागरिक स्तर पर निर्वाह और सृजन स्तर का बड़प्पन प्राप्त कर लेना पर्याप्त होना चाहिए। इस स्तर को अपना लेने भर से कोई व्यक्ति तपस्वी हो सकता है और संचित कुसंस्कारों, कषाय-कल्मषों से छुटकारा पा सकता है। पुण्यपथ यही है।

परमार्थ एक ही है— चिंतन में प्रज्ञा का समावेश, परमार्थ का अवलंबन। लोकमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन। व्यक्तिगत अंतरंग जीवन में यदि स्वरूप और लक्ष्य को समझते हुए अपनी प्रखरता को जगा लिया जाए और उसे इस योग्य बना लिया जाए कि संपर्क में आने वाला तद्रूप पाठ ग्रहण करते चला जाए, तो यह आज का सबसे बड़ा परमार्थ होगा। परमार्थ वस्तुओं को देकर सामयिक आवश्यकता की पूर्ति के रूप में भी हो सकता है; पर वास्तविक परमार्थ उस प्रकाश को कहते हैं, जो आत्मस्वरूप और उद्देश्य को जगने-जगाने में समर्थ हो सके।


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