“अहमिंद्रो न पराजिग्ये”

July 1986

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जिसके साथ चलना या थोड़े समय भी रहना है उसका नाम, गाँव, पता-ठिकाना पूछते हैं। इससे निश्चिंतता होती है कि साथ रहते किसी का कोई उपकार बन पड़े या जोखिम-गदरबाजी हो उस मामले को आगे बढ़ाया जा सके। सर्वथा अपरिचित के प्रति संदेह ही बना रहता है।

अपना आपा सदा अपने साथ रहता है। उसका शरीर पक्ष एवं मन पक्ष इतना घनिष्ठ है कि चौबीस घंटे जागृति एवं सुषुप्ति स्थिति में अपने साथ ही बने रहते हैं। पत्नी को जीवन संगिनी, अर्धांगिनी, दो शरीर एक प्राण आदि विशेषणों से संबोधित करते हैं, पर वह भी कुछ घंटे ही साथ रह पाती है। सो भी कुछ गज फीट दूर। बच्चे कभी-कभी किसी प्रयोजन से निकट आते हैं, यह प्रिय समझे जाते हैं और उनके सुख-दुःख में साझी रहना होता है। इनके भविष्य के संबंध में सदा चिंता बनी रहती है और यथासंभव योजना-व्यवस्था बनती रहती है। फिर शरीर और मनरूपी अंगरक्षकों जैसे निरंतर के साथियों के संबंध में उपेक्षा बरती जाए, यह आश्चर्य की बात है। उनका परिचय एवं प्रयोजन न पूछा जाए, न जाना जाए तो यह कितने अचंभे की बात है।

जीवन जिस आत्मा को मिला है, वह उस प्रयोजन के निमित्त लग रहा है कि नहीं, जिसके लिए वह मिला था? अफसरों को सरकारी बंगला, वाहन आदि मिलते हैं तब उन्हें बाता दिया जाता है कि इनका उपयोग सरकारी कार्यों के लिए ही होना चाहिए, निजी कार्यों के लिए नहीं। कोई अफसर अपने बड़े बंगले में से आधा भाग किराए पर उठा दे, आधे में खुद रहे, मोटर की जब जरूरत पड़े तब स्वयं इस्तेमाल करे और बाकी समय में उसे किराए पर चलाने दिया करे, तो यह कार्य अनैतिक होंगे और पता चलने पर उसे दंड का भागी बनना पड़ सकता है।

जीवन बहुमूल्य है। सृजेता की अनुपम कला-कृति है। ऐसा साधनसंपन्न सुयोग सृष्टि के अन्य किसी प्राणी को नहीं मिला। बुद्धिमत्ता का पिटारा कल्पनाशील मस्तिष्क जैसा मनुष्य को मिला है, वैसा अन्य किसी प्राणी के भाग्य में नहीं बदा। ऐसे अनेक स्थानों से मुड़ने-तुड़ने और दस अँगुलियों वाले हाथ किसको मिले हैं। सीधा खड़ा होकर पैरों के बल चलने जैसी सुविधा और किस प्राणी को मिली है? ऐसे स्वादिष्ट भोजन नियमपूर्वक किसे उपलब्ध होते है? आजीविका उपार्जन और उसे पीछे के लिए भी संग्रह रख सकने की क्षमता किसको है? वस्त्र और मकान का उपयोग और कौन प्राणी करता है? सुव्यवस्थित परिवार बना पाने की बुद्धिमत्ता किसमें है? ज्ञानेंद्रियों की इतनी संवेदनशीलता किसमें है? प्राणियों में सर्वोत्तम स्तर का कलेवर किसे उपलब्ध है? फिर वह मनुष्य को ही मिले तो वह सृष्टा का पक्षपात हुआ। जबकि उसे समदर्शी और न्यायकारी कहा जाता है। मनुष्य को इतनी सुविधा मिले और अन्य प्राणी उससे वंचित रहें तो इसे देखते हुए यही सोचना पड़ता है कि या तो सृष्टा न्यायकारी नहीं है अथवा इतना सुविधासंपन्न जीवन उसे किसी ईश्वर इच्छित विशेष प्रयोजन के लिए मिला है। जैसा कि सरकारी अफसरों को अनेक सहायक सुयोग्य कर्मचारी मिलते हैं और टेलीफोन आदि साधनों की सुविधा रहती है।

यह प्रश्न अति महत्त्वपूर्ण है और ऐसे हैं जिनकी समग्र जानकारी मिलनी ही चाहिए। अन्यथा गलतफहमी में रहने से अनर्थ ही होगा। जब सौंपे हुए प्रयोजन के संबंध में समुचित प्रयास न किया गया होगा और आलस्य-प्रमाद में दिन भर मनोरंजन के सारे साधन खप जाएँ तो सौंपने वाला बड़ा अफसर, जिसकी व्यवस्था में राई-रत्ती अंतर नहीं आता, वह सौंपे गए उत्तरदायित्व के निर्वाह संबंधी लेखा-जोखा माँगेगा तब उत्तर देते न बन पड़ेगा। इतना ही नहीं उस प्रमाद के लिए दंड का भी भागी बनना पड़ेगा।

समुचित दायित्वों के निर्वाह के संबंध में हमें अपने आप का परिचय प्राप्त करना चाहिए और साथ ही समुचित कर्म निर्वाह के लिए जो मिला है उसका संचालन भी जानना चाहिए। इन प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए हमें आत्मविस्मृति से उबरना चाहिए। यह आत्मविस्मृति ही मायाजाल है। इससे उबरकर जो यथार्थता है उसे समझ लेने को आत्मज्ञान कहते हैं। इसे प्राप्त कर लेने पर, माया की तंद्रा से अपने को उबार लेने पर मनुष्य उस ज्ञान का अधिकारी बन जाता है, जिसे सर्वश्रेष्ठ साध्य कहा गया है।

यहाँ जीव का निजी स्वरूप और उसे उपलब्ध जीवन-संपदा तथा विशिष्ट साधनों की जानकारी उपलब्ध करनी चाहिए। जीवन जिसे सौंपा गया है, वह असाधारण गरिमासंपन्न जीवात्मा है। जीवात्मा ईश्वर का एक अंश एवं युवराज है। उसे वरिष्ठता एवं विशिष्टता इसलिए दी गई है कि वह अपनी त्रुटियों का निष्कासन करते हुए पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचे। ईश्वर में जितनी कुछ विशेषताएँ व विभूतियाँ हैं, वे सभी मनुष्य के अंतराल में बीजरूप में छिपाकर रखी गई हैं। यह इसीलिए कि पात्रता के अनुरूप वह उसका महत्त्व समझे और प्रयत्नपूर्वक उन्हें खोजने का पुरुषार्थ करके हस्तगत करे।

मन को स्वस्थ, समर्थ एवं तत्पर रखना भी एक कला है। उसे जानकर अभ्यास में उतार लेने पर संकल्पबल एवं मनोबल के सहारे वह अपने तथा दूसरों के लिए बहुत कुछ कर सकता है। यही बात शरीर के संबंध में है। उसकी अनुचित छेड़-छाड़ न की जाए तो स्वस्थ, समर्थ, निरोग एवं बलिष्ठ रहकर वह दीर्घ जीवन का आनंद ले सकता है तथा इस समर्थ साधन के सहारे मन की प्रेरणाओं को प्रत्यक्ष चरितार्थ करके दिखा सकता है। इसके विपरीत यदि अनाड़ीपन से काम लिया जाए तो शरीर और मन दोनों ही रुग्ण रहने लगते हैं और ऐसी कुटेवें अपनाते हैं, जिनके कारण जीवन भारभूत लगे और उनका निर्वाह ही भारभूत प्रतीत होने लगे। मनोविकारों से ग्रसित व्यक्ति शरीर और संबंधियों के साथ अपनी कुटेवों के कारण दुर्व्यवहार करने लगते हैं। शरीर पर भी अनुचित भार लादते हैं। फलतः वे जीवात्मा के उत्तरदायित्वों में हाथ बँटाना तो दूर, उद्विग्नता और रुग्णता के शिकार हो जाते हैं। इस स्थिति से हमें बचना चाहिए। अनाड़ी ड्राइवर अच्छी-खासी मोटर को किसी पेड़ से टकराकर खाई-खड्ड में पटक देता है और न केवल वह बहुमूल्य वाहन का, वरन बैठी हुई सवारियों का भी कचूमर निकाल देता है। ऐसी दशा में उसका लाइसेंस भी जब्त हो जाता है।

जीवन की अपूर्णता को पूर्णता तक पहुँचा देना यह इस मानव जीवनरूपी सुयोग में उठाया जा सकने वाला सर्वोत्तम स्वार्थ है। इसे किस प्रकार पूरा किया जाए, उसका एक ही उत्तर है कि भगवान के इस विश्व-उद्यान को सुरम्य-समुन्नत बनाने के लिए कुशल माली की भूमिका निभाई जाए और मानव समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए एक भाव भरे अध्यापक की तरह कार्यरत रहा जाए। माली और अध्यापक की दुहरी भूमिका निभाने वाले को इतना वेतन तो सहज ही मिल जाता है कि वह औसत नागरिक स्तर का निर्वाह भली प्रकार कर सके। इसके लिए उसे किसी अनीति, अनाचार का आश्रय न लेना पड़े। मितव्ययिता और सात्विकता का आश्रय लेने वालों को उन दुष्कर्मों को करने की तनिक भी आवश्यकता नहीं पड़ती, जिनमें अज्ञानी लोग अनर्थ करते, दुःख पाते, निंदा के भाजन बनते, आत्मप्रताड़ना सहते और दैवी-प्रकोप के भाजन बनते हैं।

इस राजमार्ग पर चलने के लिए हमें आत्मोपासना करनी चाहिए। एक बड़ा-सा दर्पण सामने रखना चाहिए और उसमें अपनी छवि देखते हुए अनुभव करना चाहिए कि इस ईश्वर के राजकुमार को उसके सौभाग्य और उत्तरदायित्व का स्मरण कराने के लिए भाव भरा अनुरोध करना चाहिए। यह आत्मस्वरूप ही सबसे बड़ा देवता है। यदि यह अपने निर्धारित उत्तरदायित्वों को समझे और सत्प्रवृत्तियाँ अपनाकर राजमार्ग पर चले तो अपना और समस्त संसार का श्रेयसाधन कर सकता है। यह दर्पण-दर्शन साधना नित्य करने से आत्मजागरण का लाभ मिल सकना सरल हो जाता है। जिसकी आत्मा जग पड़ी उसके लिए संसार देवलोक के नंदन वन से कम आनंददायक नहीं रहता।


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