प्रतिभावान स्वतंत्र वातावरण में स्वतंत्रतापूर्वक साँस लेता है, उसे घुट मरने की परिस्थिति किसी भी शर्त पर स्वीकार नहीं।
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जो दूरदर्शी, परमार्थपरायण और चरित्रवान हैं उसके लिए समग्र प्रगति का द्वार खुला पड़ा है।
कहावत है— “इतने मीठे मत बनो कि लोग तुम्हें चट कर जाए, इतने कडुवे भी मत बनो कि लोग तुम्हें थूकते फिरें।” यही बात क्रोध पर भी लागू होती है। जिस क्रोध की ज्वाला से हम स्वयं और दूसरे लोग दग्ध हों, हमारा व दूसरों का अहित हो, वह त्याज्य है, लेकिन जो दवा बनकर हमारी सामाजिक बुराइयों की चिकित्सा करे, दूषित तत्त्वों का निवारण करे, बिगड़े हुओं को सुधारने के लिए मजबूर करे, भूल के लिए दंड दे, ऐसा स्वस्थ क्रोध, आवश्यक भी है, अनिवार्य भी।