विज्ञानमानंद ब्रह्म

July 1986

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हमारा जीवन एक अखंड सत्ता नहीं है। वह अनेक खंडों में बँटा हुआ है। वह बरसों में बँटा है, वर्ष महीने में खंडित है और महीने दिवस-रात्रि में विभक्त हैं। हमारा जीवन बचपन, जवानी और बुढ़ापे की मंजिलों में भी बँटा है। हमारी चेष्टायें बँटी हुई हैं। हमारी चेष्टाएँ बँटी हुई हैं। हमारे प्राण भी श्वासोच्छवास में बँटे हुए हैं।

हम सबका व्यक्तित्व भी अलग-अलग है, गुण, कर्म, स्वभाव सब भिन्न-भिन्न हैं, काम जुदा है, काम के तरीके भी जुदा हैं। इच्छाएँ और भावनाएँ भी सबकी अलग-अलग हैं। रास्ते भी अलग हैं और रास्तों की पगडंडियाँ और चक्करदार भूलभुलैया भी अपनी-अपनी हैं।

मनुष्य-मनुष्य में व्याप्त यह विविधता अत्यंत आकर्षक और आश्चर्यजनक है; किंतु इन विविधताओं को एक सूत्र में बाँधने वाली एकता भी इसमें कम आश्चर्यजनक नहीं। कई ऐसी प्रवृत्तियाँ, आकांक्षाएँ और भावनाएँ हैं जो हम सब में समान हैं। इनमें सबसे प्रमुख आनंद की भावना है। आनंद के लिए ही हम जीते हैं, आनंद के लिए ज्ञान प्राप्त है और आनंद के लिए ही हमारे समस्त कार्यकलाप चलते हैं।

आनंद ही हमारे जीवन की प्रेरणा है; किंतु हमें भौतिक वस्तुओं से जो आनंद मिलता है वह क्षणिक एवं अस्थाई होता है और उस आनंद की अनुभूतियाँ भी कष्टों की अनुभूतियों में उलझी रहती हैं। परिणाम यह होता है कि परिपूर्ण आनंद का विकास हमारी अंतरात्मा में कभी हो ही नहीं पाता। आनंद की भावना हमारी अंतरात्मा की प्रमुख भावना है। आत्मा का अंग बनकर ही वह उसमें निवास करती है। इस भावना के स्वरूप को समझने से हमें आनंद के स्वरूप को समझने में सहायता मिल सकती है।

आत्मा की आनंदमूलक प्रवृत्तियों में पाँच मुख्य हैं— ज्ञान, सौंदर्य, प्रेम, कल्याण और निर्माण। इन स्वभावगत भावनाओं के संतोष के लिए ही हम पुरुषार्थ करते हैं और इनके परितोष में ही हमारी अंतरात्मा परिपूर्ण आनंद की अनुभूति करती है।

मनुष्य मात्र के चरित्र में ये पाँच भावनाएँ अनिवार्य रूप से विद्यमान रहती हैं। इसलिए इन्हें हम मनुष्य-चरित्र की अनिवार्य भावनाएँ कह सकते हैं। इनके विकास से मनुष्य का व्यक्तित्व निखरता है और इनका पूर्ण विकास ही मनुष्य को सार्थक जीवन बिताने का अवसर देता है।

आनंदमय विराट् विश्व की आत्मा में भी यही भावनाएँ काम करती हैं। भावनाएँ सदैव चेतन पुरुष में रहती हैं। इसीलिए हम विश्व को भी केवल अचेतन प्रकृति नहीं, बल्कि एक चेतन विश्वपुरुष मानते हैं। मनुष्य को भी हम विश्वपुरुष का एक अंग मानते हैं; अतः उसके चरित्र में भी इन्हीं मूल प्रवृत्तियों की प्रधानता है।

इस आधारभूत सत्य का अनुभव होने के बाद यह सत्य ही आनंदमय जीवन का प्रेरणास्रोत बन जाता है; क्योंकि मनुष्य के सब कार्य इन मूलभूत भावनाओं की तुष्टि के लिए ही होते हैं। सच तो यही है कि हम अपनी निर्माण मूलक प्रवृत्ति को संतुष्ट करने के लक्ष्य से ही सृजन कार्य करते हैं और दूसरों की प्रेमभावना की तृप्ति के लिए प्रेम करते हैं। सौंदर्य के प्रति आकर्षण भी सहज वृत्ति है। यह भावना हमें प्रतिक्षण जीवन के अनेक उल्लासप्रद कार्यों की प्रेरणा देती है। हमारा जीवन आनंदमय होने की अपेक्षा रखता है। अतः इन पाँच भावनाओं— निर्माण-भावना, ज्ञान-भावना, सौंदर्य-भावना, श्रद्धा एवं प्रेमभावना, कल्याण-भावना की परिपूर्णता से ही स्थाई आनंद की प्राप्ति होती है और जीवन का एक मात्र अंतिम लक्ष्य अखंड आनंद की प्राप्ति होकर जीवन पूर्ण आनंदमय बनता है। जीवन कृतार्थ, कृतकृत्य हो जाता है। हमारे सारे प्रयत्न इसी विशुद्ध परिपूर्ण परम आनंद की प्राप्ति के लिए हों।


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